भारत में अल्पसंख्यक कौन और कैसे ?

भारत में अल्पसंख्यक कौन ? इसका माकूल जवाब अभी तक नहीं मिल सका है. इसमें कोई दो राय नहीं कि भारत के संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के तहत उन लोगों के लिए कुछ अलग से प्रावधान किया गया है जो भाषा और धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक श्रेणी में आते हैं. दरअसल अल्पसंख्यक उस समुदाय को माना जाता है जिसे अल्पसंख्यक कानून के तहत केंद्र की सरकार अधिसूचित करती है. पूरे भारत में छह धार्मिक समुदायों – मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, पारसी और जैन को केंद्र सरकार द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में भारत के राजपत्र में अधिसूचित किया गया है। राष्ट्रीय स्तर पर धार्मिक अल्पसंख्यकों के संबंध में, हिंदू धर्म को छोड़कर अन्य धर्मों को मानने वाले सभी लोग अल्पसंख्यक माने जाते हैं। मुसलमान, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन और पारसी के बाद सबसे बड़ा धार्मिक अल्पसंख्यक हैं। तमाम राज्यों में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग द्वारा अधिसूचित समुदायों को अल्पसंख्यक का दर्जा प्राप्त है

भारत में अल्पसंख्यक शब्द की अवधारणा पुरानी है. सन 1899 में तत्कालीन ब्रिटिश जनगणना आयुक्त द्वारा कहा गया था भारत में सिख, जैन, बौद्ध, मुस्लिम को छोड़कर हिन्दू बहुसंख्यक हैं. यहीं से अल्पसंख्यकवाद और बहुसंख्यकवाद के विमर्श को बल मिलने लगा. ब्रिटिश नियामकों से एक कदम आगे बढ़कर भारत में जब राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन किया गया तो माननीय सर्वोच्च नयायालय के मुख्य न्यायाधीश आर.एस लाहोटी ने अपने एक निर्णय में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग भंग करने का सुझाव तक दिया था लेकिन उसपर कोई अमल नहीं हुआ. अल्पसंख्यक शब्द को लेकर संघीय ढांचे में संघ के राज्यों के विविध भौगोलिक परिवेश के अनुकूल यह तय किया जाय कि कहां कौन ‘अल्पसंख्यक’ माना जा सकता है!

भारत में अल्पसंख्यक का अर्थ हमेशा ही गैर-हिंदुओं समझा जाता रहा है। दुर्भाग्य से भारत में बहुसंख्यक या अल्पसंख्यक शब्द की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है। 1899 में उस समय के ब्रिटिश जनगणना आयुक्त ने सिख, जैन, बौद्ध, पारसी और मुस्लिम को अल्पसंख्यक कहा था जबकि हिंदुओं को देश का बहुसंख्यक समुदाय बताया था। हालांकि इस परिभाषा में कहीं भी इस बात का उल्लेख नहीं था कि अल्पसंख्यक कहे जाने के लिए कुल आबादी में समुदाय विशेष की न्यूनतम कितनी संख्या (%) होनी चाहिए। कई यूरोपीय देशों में कुल आबादी में 10% से कम आबादी वाले समुदाय को अल्पसंख्यक माना जाता है। ऑस्ट्रेलिया में 6% से कम आबादी वाले समुदाय को अल्पसंख्यक माना जाता है। लेकिन भारत में ऐसा कुछ भी निर्धारण नहीं किया गया है। भारतीय जनतंत्र में अल्पमत आधे से कम को कहते हैं और आधे से एक भी अधिक को बहुमत कहा जाता है। यह प्रजातांत्रिक व्यवस्था है, लेकिन इसी आधार पर अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक समुदाय का निर्धारण नहीं हो सकता है।

भारतीय सविंधान के अनुच्छेद 29 के अनुसार – भारत के किसी भी हिस्से में रहने वाले नागरिकों के किसी भी हिस्से की अपनी एक अलग भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे उसी के संरक्षण का अधिकार होगा। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि इस लेख का दायरा केवल अल्पसंख्यकों तक ही सीमित नहीं है, क्योंकि इसे आमतौर पर माना जाता है। यह ‘नागरिकों के वर्ग’ शब्दों के उपयोग के कारण है जिसमें अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक भी शामिल हैं। सर्वोच्च न्यायालय, अपने एक निर्णय में अनुच्छेद 30 के तहत संरक्षण की अवधि में राज्य स्तर पर अल्पसंख्यक को परिभाषित करता है
‘अल्पसंख्यक या तो भाषाई या धार्मिक केवल राज्य की जनसांख्यिकी के संदर्भ में निर्धारित होता है और देश की जनसंख्या को ध्यान में रखकर नहीं। ‘

अंग्रेजों ने 1899 में अल्पसंख्यक शब्द का प्रचलन भारतीय समाज को अलग-अलग समुदायों में तोड़ने के लिए किया था, ताकि भारतीय समुदायों को विभाजित किया जा सके। आजादी के बाद भी अल्पसंख्यक शब्द की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं बन सकी। संविधान के अनुच्छेद 366 पूरा का पूरा परिभाषाओं के लिए ही है। लेकिन, अल्पसंख्यक की परिभाषा इस अनुच्छेद में भी नहीं है। संविधान निर्माताओं ने कभी भी अल्पसंख्यक समुदाय को परिभाषित करने की जरूरत ही महसूस नहीं की। यहां तक की भारत सरकार ने भी 1992 में जब राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का कानून पारित किया तो उसमें भी अल्पसंख्यक की परिभाषा में यही कहा गया कि ‘अल्पसंख्यक वह समुदाय है जिसे केंद्रीय सरकार अधिसूचित करे।’

स्पष्ट है कि किसी भी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने का अधिकार सरकार ने खुद अपने हाथ में लिया है। भारत में प्रचलन में यही देखा गया है कि मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन, बौद्ध, पारसी आदि को अल्पसंख्यक माना जाता है। इन्हें अपने समुदाय का संरक्षण करने के लिए कई अधिकार भी दिए गए हैं। लेकिन, जब संख्या के आधार पर किसी भी समुदाय को अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक कहा जाता है तो यह भी देखा जाना चाहिए की किसी खास स्थान या राज्य में किसी समुदाय विशेष की जनसंख्या कितनी है। ताकि स्थान विशेष पर जो समुदाय सच में अल्पसंख्या में है, उसे ही अल्पसंख्यकों को मिलने वाली सुविधाओं का लाभ मिल सके। देश में अल्पसंख्यक के मुद्दे को लेकर शुरू से ही राजनीति होती रही है।

सुप्रीम कोर्ट में जम्मू-कश्मीर के एक वकील द्वारा दायर की गयी जनहित याचिका में इस संबंध, भाषा और धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक समुदाय के पहचान को परिभाषित करने की मांग की गयी है. चूंकि 2011 की जनगणना के आंकड़ों में मुताबिक जम्मू-कश्मीर में 68.31% जनसंख्या मुसलमानों की है. अत: जनसंख्या के आधार पर इस राज्य में मुसलमान किसी भी दृष्टिकोण से अल्पसंख्यक नहीं कहे जा सकते हैं. अल्पसंख्यक समुदाय को चिन्हित नहीं करने की वजह से जम्मू-कश्मीर में अल्पसंख्यकों को दिया जाने वाला हर लाभ मुसलमानों को मिल रहा है जबकि वहां जो समुदाय वास्तविक रूप से अल्पसंख्यक है, वो उन सुविधाओं से महरूम हैं.

एक टीवी चैनल की रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2016-17 में अल्पसंख्यकों के लिए निर्धारित प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप का फायदा जिन छात्रों को मिला है उनमें 1 लाख 5 हजार से अधिक छात्र मुसलमान समुदाय से आते हैं जबकि सिख, बौद्ध, पारसी और जैन धर्म के 5 हजार छात्रों को इसका फायदा मिल सका है. इसमें भी हिन्दू समुदाय के किसी भी छात्र को इसका फायदा नहीं मिला है जबकि जनसंख्या के आधार पर जम्मू-कश्मीर में हिन्दू 28.44% है, जो मुसलमानों से बहुत कम हैं.

अल्पसंख्यक की सटीक व्याख्या और परिभाषा नहीं होने की वजह से इसका बड़े स्तर पर दुरुपयोग भी हो रहा है. जमू-कश्मीर इसके दुरुपयोग का ताजा उदाहरण है. हालांकि ऐसा नहीं है कि यह मामला महज जम्मू-कश्मीर तक सीमित है. इसको अगर ध्यान से देखें तो भारत के तमाम हिस्सों में अल्पसंख्यक शब्द को परिभाषित नहीं किए जाने की वजह से 1 समुदाय के साथ अन्याय हो रहा है. लेकिन अभी भी देश के 15 से ज्यादा राज्य ऐसे हैं जहां राज्य अल्पसंख्यक आयोग काम नहीं कर रहा है. इसी वजह से जम्मू-कश्मीर जैसे राज्य में अल्पसंख्यक समुदाय को लेकर भ्रम की स्थिति कायम है और जिस समुदाय को अल्पसंख्यक माना जाना चाहिए उसके उलट बहुसंख्यक लोगों को लाभ मिल रहा है.

दरअसल जबकि जनगणना के आंकड़े कुछ और बयां करते हैं. इस संबंध में एक रोचक तथ्य और है जिसपर गौर किया जाना चाहिए. जनगणना 2011 के आंकड़ों के मुताबिक देश में मुसलमानों की कुल जनसंख्या 17 करोड़ 22 लाख है, जो कि कुल आबादी का 14.2% है. पिछली यानि 2001 की जनगणना में यह आबादी कुल आबादी की 13.4% थी. अर्थात मुसलमानों की आबादी में आनुपातिक तौर पर 0.8% की बढ़ोत्तरी हुई है. वहीं देश का बहुसंख्यक समुदाय अर्थात हिन्दू समुदाय कुल जनसंख्या का 79.8% है, जो कि 2001 में 80.5% था. अर्थात, कुल जनसंख्या में हिन्दुओं की हिस्सेदारी कम हो रही है. इसके अतिरिक्त अगर अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की बात करें तो इसाई समुदाय और जैन समुदाय की स्थिति में कोई कमी नहीं आई है जबकि सिक्ख समुदाय की हिस्सेदारी में 0.2% की मामूली कमी आई है. कमोबेश ऐसी ही स्थिति बौध समुदाय की भी है. अब अगर कुल जनसंख्या में इन समुदायों की वृद्धि दर अथवा कमी गिरावट की दर का विश्लेषण करें तो मुस्लिम समुदाय की वृद्धि दर कुल जनसंख्या की वृद्धि दर से 6.9% ज्यादा है. देश की जनसंख्या इन वर्षों में 17.7% की दर से बढ़ी है जबकि मुसलमान समुदाय की वृद्धि दर 24.6% रही है.

वहीं इन्हीं मानदंडों पर अगर हिन्दू समुदायों के वृद्धि दर की बात करें तो कुल जनसंख्या के वृद्धि दर की तुलना में हिन्दुओं की जनसंख्या 0.9% की कमी के साथ 16.8% की वृद्धि दर से बढ़ी है. इसके इतर भी कुछ अन्य आंकड़े वर्गीकृत हुए हैं जैसे देश में लगभग 29 लाख लोग किसी को धर्म को नहीं मानने वाले हैं जो कि कुल जनसंख्या का बहुत छोटा हिस्सा है. उत्तरप्रदेश और असम जैसे राज्यों में मुस्लिम आबादी तुलनात्मक रूप से अधिक है. उत्तरप्रदेश के 21 जिले ऐसे हैं जहां मुसलमानों की हिस्सेदारी 20% से अधिक है. उत्तर प्रदेश के ही 6 जिले ऐसे हैं जहां मुसलमान समुदाय हिन्दू समुदाय के बराबर अथवा ज्यादा भी है.

जनगणना 2011 के आंकड़ों के अनुसार हिन्दू

मिजोरम में 2.75 %
लक्षदीप में 2.77 %
जम्मू-कश्मीर में 28.44 %
नागालैंड में 8.75 %
मेघालय में 11.53 %
मणिपुर में 41.39 %
अरुणाचल प्रदेश में 29.04 % और
पंजाब में 38.49 % हैं.
ऐसे में बड़ा सवाल यह उठता है कि इन राज्यों में अल्पसंख्यक तय करने का पैमाना क्या है ? क्या यहां हिन्दुओं को अल्पसंख्यक समुदाय को मिलने वाला लाभ मिल रहा है ?

हालांकि इस संबंध में दायर याचिका के बाद मुख्य न्यायाधीश खेहर की अध्यक्षता वाली पीठ ने इस मामले को महत्वपूर्ण बताते हुए इसपर चार सप्ताह में रिपोर्ट दाखिल करने को कहा है. चूंकि यह स्थानीय लोगों के न्याय से जुड़ा मामला भी है अत: इसपर शीघ्र समाधान निकालने की जरूरत भी है. अगर इस याचिका की मांग को मान लिया जाता है तो जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं को भी अल्पसंख्यकों की मिलने वाली सभी सुविधाओं का लाभ आसानी से मिल सकेगा. हालांकि इस संबंध में पहले भी अनेक सुझाव आते रहे हैं लेकिन सरकारों द्वारा उसपर कोई ठोस अमल नहीं किया गया है.

उच्चतम न्यायालय ने गत 11 फरवरी को राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को अल्पसंख्यक शब्द की परिभाषा तीन महीने के भीतर तय करने का आदेश दिया. शीर्ष अदालत ने याचिकाकर्ता को कहा कि वह अपनी मांग से जुड़ा प्रतिवदेन आयोग के समक्ष फिर से दाखिल करें जिस पर तय समयसीमा के भीतर फैसला होगा. वकील ने अपनी याचिका में कहा था कि राष्ट्रीय स्तर की जनसंख्या की बजाय राज्य में एक समुदाय की जनसंख्या के आधार पर अल्पसंख्यक शब्द को पुन: परिभाषित करने और उस पर पुन:विचार किए जाने की आवश्यकता है. उच्चतम न्यायालय के आदेश के मुताबिक ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की परिभाषा तय करने में जुटे अल्पसंख्यक आयोग ने कहा है कि इस संदर्भ में कुछ व्यवहारिक दिक्कत है जिस वजह से वह संविधान विशेषज्ञों की राय लेगा. हालांकि आयोग ने स्पष्ट किया है कि संविधान और सभी के हितों के ध्यान में रखते हुए वह अपनी रिपोर्ट तीन महीने की तय समयसीमा के भीतर सरकार एवं शीर्ष अदालत को सौंप देगा.

अश्वनी कुमार उपाध्याय की ओर से दायर जनहित याचिका में कहा है कि हिंदू जो राष्ट्रव्यापी आंकड़ों के अनुसार एक बहुसंख्यक समुदाय है, पूर्वोत्तर के कई राज्यों और जम्मू कश्मीर में अल्पसंख्यक है.
याचिका के अनुसार, हिंदू समुदाय उन लाभों से वंचित है जो कि इन राज्यों में अल्पसंख्यक समुदायों के लिए मौजूद हैं. अल्पसंख्यक आयोग को इस संदर्भ में ‘अल्पसंख्यक’ शब्द की परिभाषा पर पुन: विचार करना चाहिए. याचिका में कहा गया है कि अल्पसंख्यक की पहचान राज्य स्तर पर की जानी चाहिए न कि राष्ट्रीय स्तर पर. क्योंकि कई राज्यों में जो वर्ग बहुसंख्यक हैं उन्हें अल्पसंख्यक का लाभ मिल रहा है.

याचिका में कहा गया है कि मुसलमान
लक्ष्यद्वीप में 96.58 %
जम्मू-कश्मीर में 68.31 %

बहुसंख्यक होते हुए भी अल्पसंख्यक है जबकि जम्मू-कश्मीर की बात की जाए तो 2011 की जनगणना के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों की जनसंख्या 68.31% है जबकि हिंदू सिर्फ 28.44% ही हैं। इसके बावजदू अभी तक के नियमों के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में भी मुसलमानों को ही अल्पसंख्यक माना जाता है और अल्पसंख्यकों को मिलने वाली तमाम सुविधाएं भी वहां रह रहे बहुसंख्यक मुसलमानों को ही मिल रही हैं। लेकिन जो समुदाय वहां सच में संख्यात्मक रूप से अल्पसंख्यक है, उसे अल्पसंख्यकों को मिलने वाली सुविधाओं का कोई फायदा नहीं मिल पा रहा है। याचिका में कहा गया है कि मुसलमान

असम में 34.22 %
पश्चिम बंगाल में 27.1 %
केरल में 26.56 %
उत्तर प्रदेश में 19.26 % तथा
बिहार में 16.87 % होते हुए अल्पसंख्यकों के दर्जे का लाभ उठा रहे हैं जबकि पहचान न होने के कारण जो वास्तव में अल्पसंख्यक हैं, उन्हें लाभ नहीं मिल रहा है. इसलिए सरकार की अधिसूचना मनमानी है.

यह भी कहा गया है कि ईसाई
मिजोरम – 87.16 %
मेघालय – 74.59 %
नगालैंड – 87.93 % में बहुसंख्यक होते हुए भी अल्पसंख्यक हैं जबकि

मणिपुर – 41.29 %
अरुणाचल प्रदेश – 30.26 %
गोवा – 25.10 %
केरल – 18.38 % मे भी इनकी संख्या अच्छी है, इसके बावजूद ये अल्पसंख्यक माने जाते हैं.

इसी तरह सिख
पंजाब – 57.69 % में बहुसंख्यक हैं जबकि
चंडीगढ़ – 13.11 % में भी अच्छी संख्या मे है लेकिन वे अल्पसंख्यक माने जाते हैं.

याचिका में यह भी मांग किया है कि केंद्र सरकार 23 अक्टूबर, 1993 की उस अधिसूचना को रद्द किया जाए, जिसमें पांच समुदायों– मुसलमानों, ईसाई, बौद्ध, सिख और पारसी को अल्पसंख्यक घोषित किया गया है.

जिस ढंग से अल्पसंख्यक शब्द को आज परिभाषित किया गया है वो ‘हिन्दू समुदाय’ के लिए वाकई चिंताजनक है और हिन्दू सगठनों की चिंता बेजा नहीं है. आज अगर संघ प्रमुख जनसंख्या के इस असंतुलन पर अपनी चिंता व्यक्त कर रहे हैं तो उसके विविध पक्षों को समझने की जरुरत है.

2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में सबसे अधिक जनसंख्या हिंदुओं की है। देश में हिंदू 79.8% हैं जबकि मुसलमान 14.2% हैं। ऐसे में ये भी कहा जा सकता है कि भारत में मुसलमान दूसरा बड़ा बहुसंख्यक समुदाय है। लेकिन ऐसा कहने पर देश की राजनीति में भूचाल उठ खड़ा होगा। देश के धर्मनिरपेक्ष ढांचे को लेकर सवाल उठने लगेंगे। दुनिया में इंडोनेशिया और पाकिस्तान के बाद भारत में मुसलमानों की आबादी सबसे अधिक है। लेकिन अल्पसंख्यकों को मिलने वाली तमाम सुविधाओं का सर्वाधिक लाभ मुसलमानों को ही मिल रहा है।

अंत में ये 2 सवाल उठते है ——–

  1. अल्पसंख्यक किसे माना जाए और किसे नहीं। क्या इसका निर्धारण राष्ट्रीय स्तर के साथ ही राज्य स्तर पर या जिला स्तर पर नहीं किया जाना चाहिए?
  2. इसके साथ ही यह भी सवाल उठता है कि क्या किसी समुदाय को अल्पसंख्यक घोषित करने के लिए देश की कुल जनसंख्या में उस समुदाय की न्यूनतम हिस्सेदारी (%) की बात तय नहीं की जानी चाहिए?

अगर आज सरकार और अल्पसंख्यक आयोग इस बात की पहल करे कि जिन राज्यों में हिंदू अल्पसंख्यक हैं, वहां उन्हें अल्पसंख्यक का दर्जा मिल सके तो इसका स्वागत होना चाहिए। वैसे भी ये काम बहुत पहले ही हो जाना चाहिए था, लेकिन देर ही सही एक अच्छा काम होगा।

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