अपराध की पदचाप
दिल्ली हाइकोर्ट ने उचित ही दिल्ली पुलिस को निर्देश दिया है कि वह महिलाओं का पीछा किए जाने की घटनाओं को गंभीरता से ले। यों तो इस निर्देश की कोई जरूरत नहीं होनी चाहिए, क्योंकि यह कोई ऐसा मामला नहीं है जिसमें पुलिस को अपने कर्तव्य के बारे में अस्पष्टता या दुविधा हो। महिलाओं का पीछा करना 2013 में भारतीय दंड संहिता के तहत एक गंभीर अपराध मान लिया गया। इसकी पृष्ठभूमि से सब वाकिफ हैं। सोलह दिसंबर 2012 को दक्षिण दिल्ली में एक मेडिकल छात्रा के साथ चलती बस में सामूहिक बलात्कार की जो घटना हुई उसने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया था। इस घटना पर आक्रोश जताते हुए देश भर में कई दिन तक विरोध-प्रदर्शन होते रहे थे। उस आंदोलन के दबाव में या उसके फलस्वरूप 2013 में यौनहिंसा से जुड़े कानूनों को और सख्त बनाया गया। इनमें महिलाओं का पीछा करने को एक संगीन अपराध मानना भी शामिल था और इसके लिए भारतीय दंड संहिता में धारा 354-डी जोड़ी गई। लेकिन अब तक का अनुभव बताता है कि सिर्फ कानून को सख्त बना देने से अपेक्षित परिणाम की उम्मीद नहीं की जा सकती, और यह बात इस धारा पर भी लागू होती है।
नए कानून के बाद पीछा किए जाने की शिकायतों में कोई कमी नहीं आई, बल्कि उनमें साल-दर-साल बढ़ोतरी ही हुई है।
क्या इसे इस रूप में देखा जाए कि नए कानून ने पीड़ित पक्ष को पुलिस में शिकायत दर्ज कराने के लिए उत्साहित किया है? पर क्या पुलिस कार्रवाई के लिए उत्साहित दिखती है? तथ्य उसकी उदासीनता और निष्क्रियता ही बयान करते हैं। उदाहरण के लिए इस मामले को ही लें, जिसकी सुनवाई करते हुए दिल्ली हाइकोर्ट ने पुलिस को हिदायत दी है। अदालत एक व्यक्ति द्वारा एक महिला को गोली मार कर हमेशा के लिए अपंग कर देने से संबंधित मामले की सुनवाई कर रही थी। दोषी ठहराए गए व्यक्ति पर महिला का पीछा करने का आरोप था। पीड़ित महिला ने पुलिस में इसकी शिकायत भी की थी। पर इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। पीछा करने वाले ने पीछा करना जारी रखा और एक दिन उससे शादी करने की जिद न मानने पर पीड़ित महिला की रीढ़ में गोली मार दी, जिससे उसका कमर से नीचे का हिस्सा जीवन भर के लिए अपंग हो गया। वह गुरुग्राम स्थित एक कंपनी में काम करती थी, मगर पीछा किए जाने की वजह से परेशान होकर उसे वह नौकरी छोड़ देनी पड़ी थी। ऐसा बहुत-सी महिलाओं के साथ होता है। वे पहले आने-जाने का रास्ता बदलने को मजबूर होती हैं, और एक दिन निराश होकर अपनी नौकरी छोड़ने को भी।
पुलिस के पास दर्ज होने वाली शिकायतें हकीकत का एक छोटा-सा अंश बताती हैं, क्योंकि बहुत कम महिलाएं उसके पास शिकायत दर्ज कराने जाती हैं। इसके कई कारण हो सकते हैं। जैसे, एक यह उम्मीद कि हो सकता है कि पीछा करने वाला थक कर कुछ दिन बाद पीछा करना छोड़ दे, या आने-जाने का रास्ता बदल लेने से ही समस्या हल हो जाए। यह डर भी हो सकता है कि कहीं पीछा करने वाला और उग्र तरीके से पेश न आए। बहुत सारे मामलों में पीछा करने वाले जान-पहचान के दायरे के होते हैं, और शायद यह भी पुलिस के पास शिकायत दर्ज न कराने या उसमें देरी करने का सबब बनता हो। लेकिन दर्ज मामलों में भी हम देखते हैं कि दोषसिद्धि की दर बहुत कम है; एक चौथाई से ज्यादा नहीं है। पर इसी मामले में क्यों, यह बात स्त्री विरोधी अन्य अपराधों पर भी लागू होती है। देखना है कि दिल्ली हाइकोर्ट के ताजा निर्देश से क्या फर्क पड़ता है!