अयोध्या: कारसेवकों ने अब्बा और चचा को दौड़ा कर मार डाला था- बाबरी मस्जिद में आखिरी नमाज पढ़ाने वाले इमाम के पोते की आपबीती

राकेश कुमार सिन्हा

बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना को आज (6 दिसंबर) पूरे 25 साल हो गए। ये एक ऐसी घटना थी जिसने पूरे देशे के धार्मिक सौहार्द को हिलाकर रख दिया था। 6 दिसंबर 1992 को हिंदू कार सेवकों की लाखों की भीड़ ने बाबरी मस्जिद के ढांचे को ढहा दिया। इस घटना के बाद देश के कई हिस्सों में हिंसक घटनाएं हुईं। खुद उत्तर प्रदेश में भी जगह-जगह बड़े पैमाने पर दंगे हुए। इस घटना में सैकड़ों ने अपने अजीज (प्रिय) लोगों को खो दिया। ऐसे ही एक पीड़ित बाबरी मस्जिद के इमाम हाजी अब्दुल गफ्फार के पोते मोहम्मद शाहिद हैं। जिनके दादा ने 22 दिसंबर, 1949 को बाबरी मस्जिद में आखरी बार नमाज पढ़ाई थी। शाहिद उस दर्दनाक हादसे को याद करते हुए बताते हैं कि कैसे उस हैवान भीड़ ने उनके पिता और चाचा को दौड़ा कर मार डाला। तब शाहिद रोज की तरह अपनी साइकिल पर सवार होकर रोजगार की तलाश में घूम रहे थे।

शाहिद बताते हैं, ‘तब मैं महज 22 साल का था। हमारा घर आसानी से भीड़ का निशाना बन गया। क्योंकि ये मुख्य सड़क पर था। जब लोग आक्रोशित होकर चिल्लाते रहे थे। तब भीड़ में से किसी ने बताया कि यह घर मुस्लिम का है। ऐसे में मेरे पिता और चाचा ने भागने की कोशिश की लेकिन भीड़ ने उनका पीछा किया और वो मारे गए। भीड़ ने हमारे रोजगार का मुख्य साधन रही आरा मशीन को आग लगा दी। उन्होंने सागौन और शीशम की लकड़ियों को आग के हवाले कर दिया। उन्होंने कुछ नहीं छोड़ा, सब जला दिया।’

शाहिद आगे बताते हैं कि उनके परिवार को पिता की मौत के बदले में दो लाख रुपए का मुआवजा मिला। जबकि हमारे परिवार में चार बहनें और छह भाई हैं। शाहिद कहते हैं, ‘चूंकि मैं घर में सबसे बड़ा था। इसलिए सभी ने मुझसे मां और भाई-बहनों की देखभाल की उम्मीद की। मगर मुझे क्या करने की जरूरत थी? भीड़ ने सबकुछ तो जला दिया था। हमारी जिंदगियां तबाह कर दी थीं। इस बात को आज 25 साल हो गए। आज भी देखा जा सकता है कि जली हुई आरा मशीन में क्या बचा है। मैं अब बेरोजगार हूं। इसलिए मैं बाहर जाता हूं और लोगों से रोजगार मांगता हूं। यहां कुछ दिन मुझे काम मिलता है।’

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