अल्पसंख्यकों का विश्वास जीतने में जुटी आप

वोटों के समीकरण से यह साबित हो गया है कि आम आदमी पार्टी (आप) की राजनीति में कुमार विश्वास से ज्यादा अहमियत विधायक अमानतुल्लाह खान की है। शायद इसी के चलते आप के संस्थापकों में शुमार विश्वास को अपशब्द बोलने वाले अमानतुल्लाह का निलंबन रद्द कर दिया गया। इसके जरिए पार्टी ने अल्पसंख्यकों को यह संदेश दिया कि वह उनके साथ है। केजरीवाल को पता है कि मुफ्त पानी-बिजली, अनधिकृत कालोनियों को नियमित करने व उनमें सुविधा दिलवाने आदि के नाम पर पूर्वांचली प्रवासियों और अल्पसंख्यकों का समर्थन उन्हें दिल्ली में नंबर एक की दौड़ में आगे रखेगा। उसकी सीधी लड़ाई भाजपा से होती रहेगी और कांग्रेस तीसरे नंबर से ऊपर आ ही नहीं पाएगी। इसीलिए दो दिन पहले हुई आप की राष्ट्रीय परिषद की बैठक में कुमार विश्वास को भाव नहीं दिया गया। इसका एक कारण अगले साल के शुरू में होने वाले दिल्ली राज्यसभा चुनाव हैं, जिसमें विधान के तहत बहुमत वाले दल को ही तीनों सीटों पर जीत हासिल होती है। नगर निगम चुनाव के बाद दिल्ली सरकार के मंत्री रहे कपिल मिश्र पर कार्रवाई होने के बाद से ही कुमार विश्वास पर भी पार्टी की गाज गिरना तय सा हो गया था। उन्होंने राज्यसभा के लिए अपनी दावेदारी जता कर माहौल को और तीखा बना दिया है।

अब तो यह लगने लगा है कि भाजपा के प्रति नरम रुख रखने वाले नेताओं के लिए आप में जगह ही नहीं होगी। अमानतुल्लाह ने कुमार विश्वास पर भाजपा से मिलकर पार्टी तोड़ने का आरोप लगाया था। उनके खिलाफ दिखावटी कार्रवाई होने के बाद भी उन्होंने आरोप लगाने बंद नहीं किए और उनकी इफ्तार की दावत में पार्टी के सभी बड़े नेता शामिल हुए। भले ही तब अमानतुल्लाह को निलंबित करके कुमार विश्वास को राजस्थान का प्रभारी बना दिया, लेकिन अमानतुल्लाह को उसके बाद लगातार अहमियत देकर केजरीवाल ने अल्पसंख्यकों को यह संदेश दिया है कि पार्टी उनके साथ है। दो नवंबर की बैठक में जिस तरह की नारेबाजी हुई उससे साबित हो गया है कि कुमार विश्वास के लिए अब आप में जगह नहीं है। भाजपा से विश्वास की नजदीकियां जगजाहिर हैं। उनके जन्मदिन से लेकर कई मौकों पर भाजपा नेता आते रहे हैं। आप में कुमार विश्वास जैसे गिनती के नेता हैं जो पार्टी बनने से पहले से इससे जुड़े थे। दिल्ली विधानसभा चुनाव की सफलता ने केजरीवाल को निरंकुश सा बना दिया। जिसने भी उनकी हां में हां नहीं मिलाई वह बाहर होता चला गया।

पार्टी को वैचारिक रूप से मजबूत बनाने और अखिल भारतीय स्वरूप देने के प्रयास में लगे नेताओं- योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण व आनंद कुमार को दो साल पहले केजरीवाल ने एक ही झटके में पार्टी से बाहर कर दिया था। उनके पुराने साथी कुमार विश्वास भी काफी दिनों से पार्टी में अलग-थलग हो गए थे। पंजाब क्या उन्हें तो दिल्ली निगम चुनाव में भी कहीं नहीं बुलाया गया। पंजाब चुनाव के बाद वे इशारों में बोले लेकिन दिल्ली निगम चुनाव के बाद तो वे खुलकर बोलने लगे। वे खुलेआम कहने लगे हैं कि पार्टी अब पहले जैसी नहीं रही। दिल्ली का राजनीतिक समीकरण ऐसा है कि केवल भाजपा विरोधी वोट के कम बिखराव से कोई पार्टी भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकती है। यह लगातार कई चुनावों से इसलिए भी संभव हो रहा है क्योंकि भाजपा के वोट औसत में बढ़ोतरी नहीं हो रही है। पिछले कई छोटे चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन सुधरा और इसे खतरे की घंटी मान कर आप अल्पसंख्यक वोटों को अपने पक्ष में करने में लग गई है।

केजरीवाल ने वोटों का गणित समझ लिया है। उन्हें पता है कि एक बार कांग्रेस के परंपरागत वोट उसके पास वापस गए तो आप का वजूद खत्म हो जाएगा। बवाना उपचुनाव में पहली बार कोई बाहरी कहा जाने वाला उम्मीदवार अल्पसंख्यक और पूर्वांचली प्रवासियों के बूते चुनाव जीत गया। यह समीकरण केवल दिल्ली में ही नहीं सफल है, बल्कि इससे आप को देश के कई राज्यों में पैर जमाने का मौका मिल जाएगा। इसलिए आप को अब कुमार विश्वास की नहीं, बल्कि अल्पसंख्यकों का वोट दिलाने वाले अमानतुल्लाह जैसे नेताओं की जरूरत है। भले ही विश्वास पर परिषद में कोई फैसला नहीं हुआ हो, लेकिन यह कभी भी हो सकता है। इसके संकेत पार्टी में हर स्तर पर मिलने लगे हैं।

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