आज हालात 1991 जैसे नहीं
यशवंत सिन्हा ने भारतीय अर्थव्यवस्था को 1991 में जिस हालत में छोड़ा था, वह सबको मालूम है। सौभाग्य से मनमोहन सिंह ने उसे उबारा और जो राह दिखाई उसी पर वह चलती रही है। आज देश में न तो 1991 जैसे हालात हैं न 2010-11 जैसे। आज विदेशी मुद्रा भंडार लबालब है। उद्योगों को सहारा देने के लिए बैंकों के पास पर्याप्त पूंजी है। नोटबंदी के बाद, सारा काला धन सिस्टम में लौट आया है, जो कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से औपचारिक अर्थव्यवस्था की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है।
जब से पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा ने एक मुहिम शुरू की है, जिसे वे देश की अर्थव्यवस्था को बिगाड़े जाने के खिलाफ मुहिम कहते हैं, एक ऐसा माहौल बनाया जा रहा है मानो देश आर्थिक संकट की तरफ बढ़ रहा है। पिछले तीन दशकों में दो अवसर ऐसे आए जब भारत की अर्थव्यवस्था वास्तव में डांवांडोल थी। पहली बार यह 1991 में थी जब यशवंत सिन्हा खुद वित्तमंत्री थे, और दूसरी बार यूपीए-2 के कार्यकाल के दौरान 2012-13 में, जब रुपया भारी दबाव में था, जिसके मूल में दोनों तरह के घाटे थे- चालू खाते का घाटा और राजकोषीय घाटा। इसके अलावा, ये वे दिन थे जब डॉ मनमोहन सिंह अपनी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोपों के कारण काफी परेशान थे। ए राजा से लेकर सुरेश कलमाडी जैसे लोगों के भ्रष्ट कारनामे सरकार की साख को काफी नुकसान पहुंचा रहे थे।
लेकिन आज वैसी स्थिति नहीं है। आज एक ऐसी सरकार है जिसे स्पष्ट बहुमत हासिल है; जिस सरकार के नेता का कहना है कि वह देश को आर्थिक विकास के एक नए दौर में ले जाने के लिए प्रतिबद्ध है। नरेंद्र मोदी के विजन की बाबत इतिहास निर्णय करेगा, पर उन्होंने अपने आलोचकों की भी प्रशंसा अर्जित की है, अपने उन प्रयासों के लिए जो उन्होंने आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए किए हैं। उनके आलोचक तक उन पर भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगाते हैं। ‘इंडियन एक्सप्रेस’ में लिखे अपने लेख में यशवंत सिन्हा ने बार-बार कहा है कि भारतीय अर्थव्यवस्था की दशा बड़ी शोचनीय है। उन्होंने विकास की राह का सबसे बड़ा रोड़ा नोटबंदी और जीएसटी को बताया है। वे खासकर मौजूदा वित्तमंत्री पर कुपित हैं। वित्तमंत्री ने भी उन्हें अस्सी साल की उम्र में नौकरी चाहने वाला कह कर उन पर पलटवार करने की कोशिश की है।
सिन्हा आइएएस अफसर रह चुके हैं, महत्त्वपूर्ण पद संभाले हैं और महत्त्वपूर्ण उत्तरदायित्वों का निर्वाह किया है। लेकिन जब भी वे अर्थव्यवस्था के बारे में बात करते हैं, चंद्रशेखर का चेहरा सामने आ जाता है। चंद्रशेखर की अगुआई वाली सरकार में सिन्हा वित्तमंत्री थे। वीपी सिंह की सरकार विश्वास मत खोने के कारण गिर गई थी। चंद्रशेखर कांग्रेस की मदद से प्रधानमंत्री बने। दिल्ली में 3, साउथ एवेन्यू स्थित अपने सरकारी आवास में बैठ कर चंद्रशेखर अपने मंत्रिमंडल की सूची को अंतिम रूप दे रहे थे। उनके कुछ शुभचिंतक वहां मौजूद थे। डॉ सुब्रमण्यम स्वामी, चंद्रशेखर के काफी करीबी थे। वहां ऐसी चर्चा चल पड़ी थी कि आर्थिक मामलों का विशेषज्ञ होने के कारण उन्हें ही डूबती अर्थव्यवस्था को उबारने की जिम्मेदारी दी जानी चाहिए। लेकिन अगले वित्तमंत्री के तौर पर यशवंत सिन्हा चुने गए।
वे काफी परेशानी भरे दिन थे। भुगतान संकट था, आंतरिक ऋण-जाल का मुद््दा पहले से ही हावी था। सिन्हा के हाथ में वित्त मंत्रालय की कमान रहते, अर्थव्यवस्था अपने सबसे डरावने दौर से गुजरी। जून 1991 में चंद्रशेखर सरकार गिर गई और फिर नरसिंह राव की सरकार आई, जिसके वित्तमंत्री थे डॉ मनमोहन सिंह, जिनका पूरी दुनिया में सम्मान था। वित्तमंत्री के रूप में उन्होंने जो कुछ कहा उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्व बैंक की प्रशंसा मिली। उन्होंने कहा कि देश को मिश्रित अर्थव्यवस्था के दौर से निकाल कर पूंजीवाद के रास्ते पर ले जाने की जरूरत है। इस पहल ने देश को मंडरा रहे भुगतान संकट से निजात दिलाई। यशवंत सिन्हा ने देश की अर्थव्यवस्था की हालत बद से बदतर होने की बात कही है, पर जरा उस दौर को याद करें।
यशवंत सिन्हा ने भारतीय अर्थव्यवस्था को 1991 में जिस हालत में छोड़ा था, वह सबको मालूम है। सौभाग्य से मनमोहन सिंह ने उसे उबारा और जो राह दिखाई उसी पर वह चलती रही है। आज देश में न तो 1991 जैसे हालात हैं न 2010-11 जैसे। आज विदेशी मुद्रा भंडार लबालब है। उद्योगों को सहारा देने के लिए बैंकों के पास पर्याप्त पूंजी है। नोटबंदी के बाद, सारा काला धन सिस्टम में लौट आया है, जो कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था से औपचारिक अर्थव्यवस्था की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम है। सत्ता में आते ही मोदी ने देश को एक आर्थिक महाशक्ति बनाने का संकल्प जताया था। वे जानते थे कि उद्यमिता के क्षेत्र में प्रशिक्षित लोगों की कमी है। इसलिए उन्होंने कौशल विकास के लिए अलग मंत्रालय गठित किया। यह उम्मीद की गई थी कि दो से तीन साल में मंत्रालय प्रशिक्षित उद्यमियों की फौज खड़ी कर देगा, जो बड़े सपने देखने के काबिल होंगे।
इसी तरह के प्रयोग भारतीय तकनीकी संस्थानों (आइआइटी) और भारतीय प्रबंध संस्थानों (आइआइएम) में भी किए गए। जो स्नातक खुद अपनी कंपनी या उद्योग शुरू करना चाहते हैं, वे प्रशिक्षित तो हैं ही, किफायती दरों पर साधन और सुविधाएं पा सकते हैं। उन्हें बड़े बैंकों और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं से शुरुआती पूंजी मिल सकती है। ये प्रशिक्षित लोग बड़ी कंपनियों की कमान संभाल रहे हैं, जीडीपी की वृद्धि में योगदान कर रहे हैं और रोजगार पैदा कर रहे हैं।
कौशल विकास मंत्रालय को इस मॉडल का लाभ उठाना चाहिए था, पर वह नहीं कर सका। वह यही समझता रहा मानो बेरोजगारों की फौज में सुरक्षा गार्डों व मैकेनिकों की तादाद बढ़ाते जाना उसका काम है। मंत्रालय के नेतृत्व में बदलाव किया गया है, पर तीन महत्त्वपूर्ण वर्ष जाया हो गए। अब एक नए मंत्री के नेतृत्व में काम फिर से शुरू किया गया है।
जिस जीएसटी को डॉ मनमोहन सिंह ने आर्थिक विकास के लिए सबसे आवश्यक बताया था, वह लागू किया जा चुका है। इस पर सर्वसम्मति है कि जीएसटी लागू होने के बाद अर्थव्यवस्था को नई गति मिलेगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि पहले नोटबंदी के बाद और फिर जल्दी से जीएसटी लागू होने के बाद कुछ प्रबंध संबंधी दिक्कतें रही हैं। जब बड़े ढांचागत बदलाव होते हैं, तो ये अड़चनें स्वाभाविक कही जाएंगी। सरकार ने पहले ही आश्वस्त कर दिया है कि ये दिक्कतें दूर कर दी जाएंगी।
आज ऐसी कई योजनाएं हैं जो उत्पादन को बढ़ावा देने के मकसद से ही शुरू की गई थीं। मेक इन इंडिया और स्टार्ट अप इंडिया जैसे कार्यक्रम अर्थव्यवस्था की गति तेज कर सकते हैं। जहां तक चुनावी राजनीति का सवाल है, प्रधानमंत्री निर्विवाद नेता हैं और उन्होंने अपनी इस राजनीतिक शक्ति को अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में लगाया है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)