आस्था का मायाजाल

आस्था का मायाजाल
एक बार फिर त्योहारों का मौसम आ गया है। फिर गली-मोहल्ले के बेरोजगार महीने-दो महीने के लिए व्यस्त हो जाएंगे। फिर चंदे के नाम पर हफ्ता वसूली शुरू हो जाएगी। फिर एक बार श्रद्धा के नाम पर फिल्मी गानों पर छिछोरी हरकतें करने का अवसर मिलेगा! फिर एक बार अपनी धार्मिक असुरक्षा की भावना को लाउडस्पीकर के शोर से दबाने का प्रयास किया जाएगा। फिर यातायात ठप्प करके संदेश दिया जाएगा कि हम अपनी प्राचीन संस्कृति भूले नही हैं और धार्मिक आस्था के सार्वजनिक प्रदर्शन का ठेका किसी एक मजहब ने नहीं ले रखा है!

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने चाहे जिस उद्देश्य से गणेशोत्सव प्रारंभ किया हो, इतना स्पष्ट है कि बाजारवाद के इस दौर में यह धार्मिक आस्था के प्रदर्शन का एक सशक्त माध्यम है। धर्मनिरपेक्षता का नियम कहता है कि अगर एक बार कोई प्रथा धार्मिक आस्था से जुड़ गई तो वह अनंतकाल तक चलेगी। धर्मनिरपेक्षता का दूसरा नियम कहता है कि अगर धर्म ‘क’ को मानने वाले चार दिन सड़क जाम करते हैं तो ‘ख’ धर्म वालों को भी कम से कम उतने दिन हुल्लड़ मचाने का मौलिक अधिकार है! ऐसे में कुछ सोचने-समझने और समझाने के लिए न कोई गुंजाइश बचती है और न ही वक्त।

कब तक
डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख गुरमीत राम रहीम को मिली सजा ने साफ कर दिया कि देर से ही सही, अपराधी को दंड मिलना जरूरी है। हमारे देश को आजादी मिले इतने वर्ष हो गए पर शायद पाखंडियों से आजादी पाने के लिए हमें अभी लंबा सफर तय करना पड़ेगा। सोचने वाली बात है कि कब तक हम धर्मांध बने रहेंगे? धर्म के नाम पर कब तक ये पाखंडी अपनी रोटियां सेकते रहेंगे? आखिर क्यों लोग आसानी से इनके चुंगल में फंस जाते हैं?

 आशाराम, रामपाल और राम रहीम के कानून की गिरफ्त में आने पर इनके समर्थकों ने खूब हो-हल्ला और उत्पात मचाया है। समझ नहीं आ रहा कि लोग क्या इतने अंधे हो गए हैं उन्हें सही-गलत का भी फर्क समझ नहीं आ रहा? यहां गलती हमारी है, जो हम ऐसे बाबाओं को अपने ऊपर हावी होने देते हैं। जब भी कोई परेशानी होती है, पहुंच जाते हैं इनके पास। पढ़े-लिखे लोग भी विवेकशून्य हो गए हैं। आश्चर्य होता है कि क्यों वे अपने दिमाग का इस्तेमाल नहीं करते? अगर अब भी लोगों ने सबक नहीं सीखा तो उनका कोई भी भला नहीं कर सकता।

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