एक से बढ़कर एक अफसर दिए भारतीय सैन्य अकादमी ने
सुनील दत्त पांडेय
देहरादून स्थित भारतीय सैन्य अकादमी (आईएमए) का 85 साल का गौरवमय इतिहास हर फौजी के सीने को अधिक चौड़ा देता है। अकादमी ने भारतीय थल सेना को एक से बढ़कर एक नायाब अफसर दिए हैं। इस साल 10 दिसंबर को अकादमी ने अपने 85 साल पूरे कर लिए हैं। 1971 की भारत-पाकिस्तान के ऐतिहासिक जंग के नायक रहे भारत सेना के पहले फील्ड मार्शल जनरल मानेकशा भी इसी अकादमी के जेंटलमेन कैडेट्स रहे हैं। वहीं पाकिस्तानी सेना के प्रमुख रहे मूसा खान और बर्मा की सेना के प्रमुख रहे जीसी स्मिथ डून भारतीय सैन्य अकादमी की ही देन है। भारतीय सैन्य अकादमी की स्थापना 1 अक्तूबर 1932 को ब्रिटिश हुकूमत ने देहरादून में की थी। तब भारत में स्थित ब्रिटिश सरकार के कमांडर-इन-चीफ फील्ड मार्शल सर फिलिप शेत्वुड की अध्यक्षता मे बनी एक समिति की सिफारिश पर इंडियन मिलिट्री एकेडमी (आईएमए)की स्थापना हुई थी। इस समिति ने जुलाई 1931 में भारतीय सैन्य अकादमी खोलने की सिफारिश की थी।
40 जैंटलमैन कैडेट्स के साथ अकादमी का पहला सत्र शुरु हुआ था। अकादमी के पहले सत्र का औपचारिक उद्घाटन 1932 की 10 दिसंबर को तबके कमांडर इन चीफ फील्ड मार्शल सर फिलिप शेत्वुड ने किया। अकादमी के प्रमुख भवन ओर सभागार का नाम शेत्वुड के नाम पर ही रखा गया क्योंकि भारत में मिलेट्री अकादमी खोलने की परिकल्पना उन्होंने ही की थी। फील्ड मार्शल शेत्वुड ने अकादमी के उद्घाटन अवसर पर जो ऐतिहासिक भाषण नवोदित भारतीय सैन्य अफसरों के सम्मुख दिया था, उस भाषण की कुछ पंक्तियां अकादमी में प्रशिक्षण लेने वाले नवोदित सैन्य अफसरों के लिए आज भी आदर्श वाक्य है। कमांडर शेत्वुड ने कहा था – हर बार और हमेशा, अपने देश की सुरक्षा, सम्मान और कल्याण के हित में काम करना आपका सबसे पहला कर्तव्य है।
1934 में भारतीय सैन्य अकादमी का पहला बैच पास आउट हुआ। शानदार पासिंग आउट परेड के दौरान भारत के वॉयसराय लार्ड विलिंग्डन ने अकादमी को ध्वज प्रदान किया। ऐतिहासिक पहली परेड की कमान बर्मा के रहने वाले अंडर आफिसर जीसी स्मिथ डून ने संभाली। जो आगे चलकर बर्मा की सेना के प्रमुख बने।
विश्व युद्ध का प्रभाव भी अकादमी पर पड़ा और इसमें शामिल होने वाले भारतीय नौजवानों की तादाद में तेजी से बढ़ोतरी हुई। 1934 से मई 1941 तक 16 बैच अकादमी के पास आउट हो चुके थे। 1941 से जनवरी 1946 के दौरान 3,887 कैडेट्स ने पास आउट किया। आजादी के बाद-15 अगस्त 1947 को भारतीय सैन्य अकादमी के पहले कमांडेंट ब्रिगेडियर ठाकुर महादेव सिंह बने। देश के बंटवारे से करीबन तीन महीने पहले पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल ने अकादमी का दौरा किया। भारत के बंटवारे के साथ ही अकादमी की सम्पत्ति और कैडेट्स को भारत-पाकिस्तान के बीच बांटा गया। अकादमी में प्रािक्षण ले रहे जो जेंटलमैन कैडेट्स पाकिस्तान जाना चाहते थे। उन्हें 14 अक्तूूबर 1947 को अकादमी छोड़ने के लिए कहा गया और कई कैडैट्स प्रषिक्षण प्राप्त करके पाकिस्तान चले गए। पाकिस्तानी सेना के अफसरों की पहली दो पीढ़ियां भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून की देन है।
भारतीय सैन्य अकादमी देहरादून भारतीय फौज में अफसर के रूप में शामिल होने वाले युवाओं के लिए आकर्षण का मुख्य केन्द्र बनी हुई हैं। अपने स्थापना के 85 सालों में अकादमी भारतीय थल सेना, पाकिस्तानी थल सेना और मित्र देशों अफगानिस्तान, तजाकिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका, नेपाल की सेना को साठ हजार से ज्यादा सैन्य अफसर दे चुकी है। इनमें 3000 के करीब विदेशी सैन्य अफसर हैं।
भारतीय सैन्य अकादमी की पासिंग आउट परेड साल में दो बार होती है। जून और दिसम्बर महीने में दूसरे शनिवार को अकादमी में छह-छह महीने के अंतराल में पासिंग आउटडोर होती है। जिस परेड में अंतिम पग पार करने वाले जवान सेना के अफसर बनते है। अकादमी का कठोर प्रशिक्षण प्राप्त करके सैन्य अफसर बनने वालों के परिजन भी परेड का प्रमुख हिस्सा होते हैं। जो अपने वीर लालों की शानदार परेड के साक्षी होते हैं। और परेड खत्म होने के बाद एक भव्य आयोजन से उनकी वर्दी पर लगे बैच के ऊपर लगी पट्टी को उतारकर उन्हें सम्मान प्रदान करते हैं।
भारतीय सैन्य अकादमी का समय के साथ स्वरूप बदलता रहा है। आजादी के पहले भारतीय राजा-रजवाड़ों के युवा ही सेना में अफसर बनने के सपने देखते थे। आजादी के बाद भारतीय सेना से जुड़े अफसरों व सैनिकों के परिजनों के साथ आम आदमी के लिए भी भारतीय सेना में अफसर बनने की ललक तेजी से बढ़ी। 90 के दशक से पहले भारतीय युवा आईएमए अफसर बनने से पहले भारतीय सैन्य अकादमी में शामिल होकर थल सेना में अफसर बनना चाहते थे। भू-मंडलीयकरण का प्रभाव भारतीय सेना में पड़ा। 90 के दशक के बाद भारतीय युवा सेना में अफसर के रूप में शामिल होने की बजाय मोटे मोटे पैकेज देने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में शामिल होने लगे। इसके कारण अकादमी की तरफ युवाओं का रुझान घटा और भारतीय सेना में अफसरों की कमी होने लगी।
भारतीय फौज के प्रति युवाओं में शामिल करने के लिए अकादमी ने भी अपनी कार्यप्रणाली को और अधिक अत्याधुनिक बनाया। समय के साथ आकदमी में भारतीय सेना के अत्याधुनिक तरीकों में प्रशिक्षण देने के साथ-साथ आतंकवाद से निपटने का भी प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। पहले भारतीय सैन्य अकादमी से प्रशिक्षण प्राप्त करने वाले युवा अफसर के सैकिण्ड लेफ्टिनेंट का दर्जा मिलता था। बाद में अकादमी को कमीशन प्राप्त करने वाले सैन्य अफसरों को सीधे लेफ्टिनेंट का दर्जा दिया जाने लगा।
भारतीय सैन्य अकादमी में लघु भारत के दर्शन होते है। भारत के हर राज्य से जेंटलमेन कैडैट्स अपनी कठोर मेहनत और लगन के बूते पर भारतीय थल सेना के अफसर बनते हैं। अकादमी का अनुशासन देखते ही बनता है। अकादमी में प्रशिक्षण लेने वाले सर्वश्रेष्ठ कैडेट्स को स्वॉर्ड आॅफ आॅनर प्रदान किया जाता है। साथ ही उम्दा प्रदर्शन के लिए स्वर्ण पदक, रजत पदक, कांस्य पदक प्रदान किया जाता है। इस बार पासिंग आउटडोर में स्वॉर्ड आॅफ आॅनर और स्वर्ण पदक दोनों ही एक साथ हासिल करने का श्रेय ओडीशा के चंद्रकांत आचार्य को हुआ।
भारतीय सैन्य अकादमी का विशाल परिसर भी आकर्षण का प्रमुख केन्द्र है। अकादमी को पटियाला के राजा भूपेन्द्र सिंह ने चार घोड़ों की बग्गी प्रदान की थी। जिस बग्गी में बैठकर पासिंग आउट परेड के मुख्य अतिथि ऐतिहासिक चेटवुड मैदान में पहुंचते हैं, जहां वे परेड की सलामी लेते हैं। अकादमी का गीत है-कदम कदम बढ़ाए जा खुशी के गीत गाए जा ….. ये जिंदगी है कौम की, तू कौम पर लुटाए जा। पासिंग आउट परेड के बाद जोश से लबालब भरे जेंटलमेन कैडेट्स इस गीत पर जमकर थिरकते हैं। भारतीय सैन्य अकादमी के मेहमान तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद, एपीजे अब्दुल कलाम आजाद, प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, पूर्व रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीज भारत की तीनों सेनाओं के कई प्रमुख तथा मित्र देशों के कई सेना प्रमुख बन चुके हैं जो पासिंग आउट परेड के साक्षी बने हैं।