एससी/एसटी कानून के मूल प्रावधान को बहाल करने के पक्ष में कैबिनेट

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) कानून 1989 के मूल प्रावधानों को बहाल करने संबंधी विधेयक के प्रस्ताव को बुधवार को मंजूरी दी। अब इस विधेयक को संसद में पेश किया जाएगा। सरकार विधेयक को संसद के चालू सत्र में ही पास कराने की कोशिश करेगी। सरकार ने दलित संगठनों से अपील की है कि वो नौ अगस्त को बंद का वापस ले लें। कुछ दलित संगठनों और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) के दलित सांसद इस मुद्दे को लेकर सरकार पर लगातार दबाव बना रहे थे। विधेयक के पास हो जाने के बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले से पहले की स्थिति बहाल हो जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट ने मार्च में अपने फैसले में संरक्षण के उपाय जोड़े थे। इनके बारे में दलित नेताओं और संगठनों का कहना था कि इस फैसले ने कानून को कमजोर और शक्तिहीन बना दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए कहा था कि इस कानून के तहत उचित जांच के बाद ही आरोपी को गिरफ्तार किया जाए। इस फैसले के बाद दलित हितों की रक्षा को लेकर देशभर में बहस शुरू हो गई थी। भाजपा के सहयोगी और लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष राम विलास पासवान ने अदालत का आदेश पलटने के लिए नया कानून लाने की मांग की थी। वहीं भाजपा के कई दलित सांसदों और आदिवासी समुदाय ने भी पासवान की मांग का समर्थन किया था। अभी हाल में लोजपा सांसद चिराग पासवान ने इस मामले में फैसला देने वाले दो जजों के पीठ में से एक जस्टिस आदर्श कुमार गोयल को सेवानिवृत्त होने के बाद राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) का चेयरमैन बनाए जाने पर सवाल उठाया था। उनका कहना था कि इस तरह सरकार ने जस्टिस गोयल को पुरस्कृत किया है। चिराग पासवान ने जस्टिस गोयल को एनजीटी अध्यक्ष पद से हटाने और अध्यादेश लाकर या नया कानून बनाकर पुराने एससी-एसटी एक्ट के प्रावधानों को बहाल करने की मांग की थी।

सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने एससी-एसटी एक्ट के तहत शिकायत मिलने पर तत्काल गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी। कोर्ट ने कहा था कि गिरफ्तारी से पहले प्रारंभिक जांच होनी चाहिए। इसके अलावा अन्य निर्देश भी दिए गए थे। अदालत ने कहा था कि ऐसे कई फैसले हैं, जिनमें कहा गया कि अनुच्छेद-21 (जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार) को हर हाल में लागू किया जाना चाहिए। संसद भी इस कानून को खत्म नहीं कर सकती है। हमारा संविधान भी किसी व्यक्ति की बिना कारण गिरफ्तारी की इजाजत नहीं देता है। यदि किसी शिकायत के आधार पर किसी व्यक्ति को जेल भेज दिया जाता है तो उसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन होता है।

केंद्र सरकार की ओर से तर्क रखते हुए महान्यायवादी केके वेणुगोपाल ने भी सुप्रीम कोर्ट के कई पुराने फैसलों का हवाला देते हुए कहा था कि संसद की ओर से बनाए गए कानून को अदालत नहीं बदल सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने 16 मई, 2018 को अनुसूचित जाति और जनजाति कानून (एससी-एसटी एक्ट) पर अपने फैसले में संशोधन से इनकार कर दिया था। केंद्र सरकार की पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई के दौरान अदालत ने कहा था कि संसद भी निर्धारित प्रक्रिया के बिना किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने की इजाजत नहीं दे सकती है। अदालत ने सिर्फ निर्दोष लोगों के जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की रक्षा की है। जस्टिस आदर्श गोयल और उदय यू ललित के खंडपीठ ने टिप्पणी की थी कि अगर एकतरफा बयानों के आधार पर किसी नागरिक के सिर पर गिरफ्तारी की तलवार लटकी रहे तो समझिए कि हम सभ्य समाज में नहीं रह रहे हैं। अदालत का निर्देश आने के बाद दलित हितों की रक्षा को लेकर बहस शुरू हो गई थी। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में दो अप्रैल को दलित संगठनों ने भारत बंद का आयोजन किया था। इस दौरान हुई हिंसा में 12 लोगों की मौत हो गई थी।

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