कभी चौधरी चरण सिंह के बड़े दुलारे थे सत्यपाल मलिक

बिहार के नवनियुक्त राज्यपाल सत्यपाल मलिक एक दौर में देश के सबसे कद्दावर किसान नेता रहे चौधरी चरण सिंह के दुलारे थे। मलिक को उन्होंने अपनी पार्टी बीकेडी से 1974 में बागपत विधानसभा सीट से उम्मीदवार बनाया था। खुद चरण सिंह तब मेरठ जिले की ही अपनी परंपरागत सीट छपरौली से विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे। मलिक के गांव हिसावदा की एक चुनावी सभा में चौधरी चरण सिंह ने कहा था, ‘मैं इस गांव का सदैव ऋणी रहूंगा क्योंकि इस गांव ने मुझे उत्तराधिकारी दे दिया है।’ जाहिर है, उनका इशारा सत्यपाल मलिक की तरफ था। तब चौधरी अजित सिंह सियासत से हजारों मील दूर अमेरिका में इंजीनियर थे। लेकिन आपातकाल में मलिक ने चरण सिंह का भरोसा खो दिया था।

सत्यपाल मलिक छात्र राजनीति की देन हैं। वे 1968 में मेरठ कॉलेज छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए थे। कहने को उनका जन्म एक जमींदार परिवार में हुआ था पर पिता बुद्ध सिंह का निधन हो जाने के कारण सत्यपाल का पालन-पोषण उनकी मां ने तंगी से ही किया था। शुरू में वे राजनारायण की समाजवादी युवजन सभा में थे। पर बाद में वे चौधरी चरण सिंह के साथ हो गए थे। 1974 में विधायक बनने के बाद उनका भाग्योदय तेजी से हुआ।चरण सिंह ने उन्हें अपनी पार्टी का कोषाध्यक्ष बना दिया। पर आपातकाल में जब चरण सिंह जेल में थे तो सत्यपाल मलिक के विरोधियों ने चरण सिंह तक खबर पहुंचा दी कि मलिक ने केंद्रीय गृह राज्यमंत्री ओम मेहता से साठगांठ कर ली है। आपातकाल में संजय गांधी के करीबी होने के कारण मेहता बेहद ताकतवर थे। दरअसल चरण सिंह की तरह मलिक ने जेल जाना ठीक नहीं समझा था और चरण सिंह को समझाया था कि वे बाहर रह कर उनके समर्थन में जन जागरण कर रहे हैं। नाराज चरण सिंह ने 1977 में मलिक को टिकट नहीं दिया तो भी मलिक उनके साथ ही जुड़े रहे। इसका उन्हें लाभ भी हुआ और 1980 में प्रधानमंत्री पद से हटने के बाद भी चरण सिंह ने मलिक को राज्यसभा भेज दिया।

राजीव गांधी के प्रधानमंत्री बन जाने के बाद मलिक का चरण सिंह से मोह भंग हो गया। तब तक अजित सिंह भी अमेरिका से लौट आए थे। मलिक समझ गए कि अब बेटा ही होगा पिता की सियासी विरासत का उत्तराधिकारी। सो, उन्हें अपनी अलग राह बनानी पड़ेगी। आरिफ मोहम्मद खान के साथ उन्होंने भी चरण सिंह से नाता तोड़ लिया और कांग्रेस में शामिल हो गए। 1986 में राज्यसभा का कार्यकाल पूरा हुआ तो मलिक के लिए कांग्रेस से राज्यसभा में जगह पाना आसान नहीं था। अपने जनसंपर्क कौशल और वाकपटुता से उन्होंने पार्टी के तब के संयुक्त सचिव पणिक्कर पर जादू कर दिया। राजीव गांधी केरल के अपने पार्टी नेता पणिक्कर पर तब ज्यादा ही मेहरबान थे। सो मलिक को पणिक्कर की पैरवी से राजीव गांधी ने कांग्रेस से भी राज्यसभा जाने का एक मौका दे दिया।
कांग्रेस में मलिक का जुड़ाव अरुण नेहरू से था। नेहरू ने 1988 में राजीव को छोड़ा तो मलिक भी बाहर आ गए। नतीजतन 1989 में उनके सामने धर्म संकट था। वे बागपत से लोकसभा चुनाव लड़ना चाहते थे। पर तब तक अजित भी जनता दल में ही शामिल हो चुके थे। बागपत सीट उन्हें ही मिली। लिहाजा मलिक को अलीगढ़ से संतोष करना पड़ा। पर वे यहां जीते और विश्वनाथ प्रताप सिंह ने उन्हें पर्यटन मंत्री बना दिया।

सत्यपाल मलिक ने जवानी के दिनों में प्रखर वक्ता के नाते अपनी खासी धमक बनाई पर 1990 में जनता दल के पराभव के साथ ही उनके सितारे भी गर्दिश में ही फंस गए। पूरे 27 साल उन्हें एक तरह से सियासी वनवास झेलना पड़ा। इस दौरान वे पहले सपा में गए, फिर कुछ दिन अजित सिंह के साथ रहे और अंत में पिछले एक दशक से भाजपा को उन्होंने अपना ठिकाना बनाया। भाजपा में राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और अमित शाह तीनों ही अध्यक्षों का भरोसा तो जीता, पर लोकसभा टिकट की चाहत न 2009 में पूरी हो पाई और न 2014 में। हालांकि भाजपा में उन्होंने किसान मोर्चे के अलावा राजस्थान विधानसभा चुनाव में भी सक्रिय भूमिका निभाई थी। निष्ठा, परिश्रम और वफादारी का आखिरकार इनाम भी मिल ही गया। अब वे सियासी चेतना के मामले में देश के अहम सूबे बिहार के राज्यपाल बन गए हैं।

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