कसौटी पर शिक्षा

भारत में कभी नालंदा, विक्रमशिला, तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय दुनिया भर को आकर्षित करते थे। लेकिन आज दुनिया के बेहतरीन विश्वविद्यालयों की सूची में भारत की जगह नहीं है। यह हकीकत हमारी शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलने के लिए काफी है। शिक्षा केंद्रों में समन्वय और आत्मीयता का जो वातावरण आवश्यक है, वह अब केवल इतिहास बन कर रह गया है। गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर ने जब शांतिनिकेतन की संकल्पना की थी तो उनके मन में रचनात्मकता, विचारों और कल्पना-शक्ति को पंख प्रदान करने की अभिलाषा प्रमुख थी। इसके मद्देनजर स्कूलों और विश्वविद्यालयों में शिक्षा का माहौल बनाने की जरूरत है।

दिल्ली के एक स्कूल के शौचालय में सात साल के बच्चे की हत्या, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में छात्रा से छेड़छाड़ और वीर बहादुर पूर्वांचल विश्वविद्यालय में एमबीए की छात्रा से कक्षा में घुस कर छेड़खानी जैसी तमाम घटनाएं हमारी शिक्षा व्यवस्था की धज्जियां उड़ाती हैं। हमारे विश्वविद्यालय राजनीतिक उठापटक, भाई-भतीजावाद और शैक्षिक अव्यवस्था के लिए अधिक चर्चा में रहने लगे हैं। प्रोफेसर की भर्ती से लेकर पीएचडी के लिए नामांकन तक में धांधली की खबरें आती रहती हैं।

भारत में व्यावसायिक डिग्रीधारकों की संख्या लगातार बढ़ रही है। लेकिन पढ़े-लिखे बेरोजगार भी उसी अनुपात में बढ़ते जा रहे हैं। यों कहें कि अच्छी डिग्री वाले खराब पेशेवरों की संख्या बढ़ती जा रही है, जिन्हें कोई काम पर रखने को तैयार नहीं है। यह एक कड़वा सच है कि भारत के आधे से अधिक प्राथमिक विद्यालयों में कोई भी शैक्षणिक गतिविधि नहीं होती। लिहाजा, समय आ गया है कि चाक और ब्लैक बोर्ड के जमाने को भुला कर गांवों में भी प्राथमिक शिक्षा के लिए तकनीक का इस्तेमाल किया जाए।

एक सर्वे के मुताबिक पिछले कुछ सालों में स्नातक हुए युवाओं में सिर्फ तिरेपन फीसद ऐसे हैं, जो किसी तरह मुश्किल से रोजगार हासिल कर पा रहे हैं। वास्तविक आंकड़ा और भी चिंताजनक होगा। हाल ही में नैसकॉम और मैकिंसे के शोध के अनुसार मानविकी में दस में से एक और इंजीनियरिंग में डिग्री ले चुके चार में से महज एक भारतीय छात्र ही नौकरी पाने के योग्य हैं। जाहिर है, इस दावे की यहीं हवा निकल जाती है कि भारत के पास दुनिया की सबसे बड़ी तकनीकी और वैज्ञानिक मानव-शक्ति है!
’सुशील कुमार वर्मा, गोरखपुर विवि

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