कहानी- इश्तहार
स-मालिक ने पोस्टकार्ड से खबर भेजी थी कि जो पैसे उसे एडवांस में दिए गए थे, वे लग चुके हैं। कागज बीस-बाइस प्रतिशत बढ़े हुए मूल्य पर मिला है। पत्रिका छप कर तैयार है। पिछले अंक की लागत रकम में बीस प्रतिशत ज्यादा पैसे जोड़ कर दो हफ्तों के भीतर आएं और पत्रिका ले जाएं। उसूल के मुताबिक छपी हुई सामग्री दो हफ्ते से ज्यादा समय तक नहीं रखी जाएगी। उसके बाद प्रतियां रद्दी वाले को बेच दी जाएंगी। प्रेस वाले शहर से महज सौ किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस छोटे कस्बे से निकल रही अनियतकालिक लघुपत्रिका के सीधे-सादे, बेरोजगार, लाग-लपेट और तिकड़मों से नावाकिफ दोनों संपादकों के लिए ये जिंदगी और मौत के लम्हे थे। उन्होंने अपने कस्बे और इस जैसी दूसरी छोटी जगहों के नए लेखकों द्वारा समाज और जीवन से जुड़ कर किए जा रहे लेखन को सामने लाने के लिए ‘समय’ नाम की यह पत्रिका शुरू की थी। वे अभी एक हजार प्रतियां छपवा रहे थे। पहला अंक उन्होंने लोगों से मिले सहयोग, चंदे या चारअंकीय सदस्यता राशि से निकाल लिया था।
थे। वे पत्रिका की प्रतियां अपने नौजवान मित्रों के साथ कचहरी-एरिया, बैंकों, पोस्ट आॅफिस, बस-अड्डा, रेलवे प्लेटफार्म, गांधी स्मारक, रौजा या दूसरे सार्वजनिक स्थानों के आस-पास घूम-घूम कर बेचते थे। वे पत्रिका दिखाते थे, पत्रिका निकालने का उद्देश्य बताते थे और पत्रिका खरीदने का अनुरोध करते थे। छुट्टी के दिन वे शिक्षकों, प्राध्यापकों, अधिवक्ताओं, दफ्तरों में काम करनेवाले कर्मचारियों के घर-घर तक जाते थे और पत्रिका बेचते थे। ऐसा वे तब तक करते थे जब तक पत्रिका की पांच सौ प्रतियां बिक नहीं जाती थीं। बीच-बीच में उन्होंने किसी-किसी व्यावसायिक प्रतिष्ठान से इश्तहार के लिए भी अनुरोध किया था, लेकिन इसमें उन्हें कामयाबी नहीं मिली थी। कुल मिला जुलाकर पाठकों की ही एक धुरी थी जिसके सहारे वे आगे बढ़ रहे थे।
अब तक वे तीन अंक निकाल चुके थे और चौथा अंक निकलने वाला था। पत्रिका वे निष्ठा, लगन और मेहनत से निकाल रहे थे। उनके मन को यह कबूल नहीं हो रहा था कि पत्रिका का कोई प्रतिकूल हश्र हो। उन्हें लग रहा था कि पत्रिका का इस तरह रूक जाना किसी शिशु के मर जाने जैसा होगा। अभी वे पोस्ट-आॅफिस गेट के पास टेलीफोन के खंभे के नीचे खड़े थे और चिंता में डूबे थे। क्या किया जाए। दोनों दोस्तों के दिमाग में हलचल थी। सहयोग और चंदे के लिए कुछ नए शुंभचिंतकों के घर दस्तक दी जाए, कुछ लोगों से चारअंकीय सदस्यता राशि ली जाए। जितनी भी प्रतियां बची हैं, उन्हें घूम-घूम कर बेच दिया जाए या फिर क्या किया जाए, ये सब सवाल चल रहे थे मन में। दूसरे दोस्त को जो सूझा, उसने झट से कह दिया, ‘भाई, इश्तहार के लिए हमें एक बार फिर कोशिश करनी चाहिए। रास्ता वहीं से निकलेगा। इश्तहार पाने के अभियान की शुरुआत हमने हमेशा मुख्य सड़क या गांधी स्मारक से की। कस्बे का दूसरा हिस्सा हमेशा छूट गया। आज हम शुरुआत कस्बे के दूसरे छोर से करें। क्या पता, कोई नतीजा निकल आए।’
पहले दोस्त की आंखें चमकीं। उम्मीद की किरणें अंधेरे की परतें तोड़ कर बाहर निकल रही थीं।सुबह के साढ़े नौ बज रहे थे। घूप इतनी तेज थी कि दोपहर का अहसास हो रहा था। दोनों दोस्तों की देह में फुर्ती थी। पहले दोस्त ने पिछले अंक की कुछ प्रतियां तौलिए में लपेट रखी थीं। दूसरे ने कुछ प्रतियां कंधे से लटकते झोले में डाल रखी थीं। उनके मन में एक हौसला था। आज वे कस्बे का कोना-कोना छान मारेंगे, लू की क्या मजाल जो उनका रास्ता रोके। दोनों रौजा रोज होते हुए कस्बे के दूसरे छोर की तरफ निकल आए। कस्बे का पुराना बाजार इधर ही था। छोटी-बड़ी दुकानें थीं। हर दुकान में न सही, किसी-किसी दुकान में जो बड़ा दिखाई पड़े, इश्तहार जुटाने के लिए तो जाया ही जा सकता था। सबसे पहले उनकी नजर में बर्तनों की एक बड़ी दुकान आयी। उत्साह में वे उसमें घुस गए। दुकानवाले ने उठ कर उनका अभिवादन किया। फिर सामने नए-नए डिजाइनदार बर्तन उतार कर रखने शुरूकर दिए। ‘सुनिए, हम इसी कस्बे से एक पत्रिका निकालते हैं। यह है इसका पिछला अंक। यदि आप इसमें अपनी दुकान का इश्तहार छपवाएं तो सभी आपकी दुकान को जानने लगेंगे। आपको नए ग्राहक भी मिलेंगे।’ पहले दोस्त ने अभियान की शुरुआत की।
दुकान वाले ने चुप रह कर कुछ सोचा। फिर विनती के स्वर में कहा, ‘आज सुबह-सुबह आप लोग ही मेरे पहले ग्राहक हैं। आप बिना कुछ खरीदे जाएं तो मेरा सारा दिन मारा जाएगा। आप किसी दूसरे ग्राहक के आने तक ठहरिए या फिर एक रुपए की यह डिबिया ही सही, इसे खरीद लीजिए।’पहले दोस्त ने भौंचक होकर दूसरे दोस्त की ओर देखा। फिर दोनों दुकान से उतरने लग गए। तभी दुकान वाले ने उन्हें रोका, ‘ऐसा मत कीजिए, मेरे देवता… आज मैं लुट जाऊंगा।’
दोनों दोस्तों ने फिर एक दूसरे को देखा जैसे समझना चाह रहे हों, क्या किया जाए। दूसरे दोस्त ने पॉकेट में हाथ डाला और एक रुपया निकाल कर दे दिया। दुकान वाले ने डिबिया थमा दी। दोनों धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहे और अगल-बगल की दुकानों को देखते रहे। कुछ ही कदमों पर वे सोना-चांदी के गहनों की एक बड़ी-सी दुकान में घुसे। इस बार दूसरे दोस्त ने बात शुरू की। ‘देखिए, हमारी यह पत्रिका सिर्फ इसी कस्बे में नहीं, आसपास के दूसरे कस्बे और गांवों में पढ़ी जा रही है। आप इसमें अपनी दुकान का इश्तहार छपवाएं तो बहुत सारे लोग आपकी दुकान को जानने लगेंगे और आपका कारोबार बढ़ेगा। मैं दरें बताऊं .. पिछले कवर के चार सौ रुपए, भीतर के कवर के तीन सौ रुपए, सामान्य पृष्ठों के लिए दो सौ रुपए और आधे पृष्ठ के लिए सवा सौ रुपए…।’
दूसरा दोस्त दरें बताता रहा और पहले दोस्त की आंखें चमकती रहीं।‘देखिए जी, मैं आपके लिए बक्से के एक किनारे रख दे रहा हूं सौ का यह नोट। आप गांव-गांव, मुहल्ले-मुहल्ले जाएं, मेरे लिए ग्राहक लाएं और ले जाएं सौ का यह नोट। आप जब-जब ग्राहक लाइएगा, तब-तब सौ का नोट। जितने ग्राहक, सौ के उतने ही नोट। फिक्र कैसी जी, ठाठ से निकालिए अपनी पत्रिका।’ दुकानवाला चहक रहा था। लेकिन उनकी आंखें बुझी हुई थीं। वे धीरे से उठ गए। गर्मी के कारण बाजार में ज्यादा भीड़-भाड़ नहीं थी। पतली सी सड़क की दोनों तरफ दुकानें ही दुकानें थीं। सोना-चांदी की दुकानों के बाद कपड़ों की दुकानें मिलने लग गईं। जो दुकान सबसे बड़ी-लंबी दिखी, वे उसमें दाखिल हो गए। पहले दोस्त ने अपनी बात शुरू ही की थी कि दुकान वाले ने हाथ जोड़कर इनकार कर दिया।
वे एक बार फिर बीच सड़क पर आकर ठिठके हुए थे। पहले दोस्त ने अपने सूखे होठों पर जीभ फेरते हुए सुझाया-‘हम ऐसी ही दुकान में चलें, इश्तहार देना जिसकी जरूरत हो।’
‘लेकिन बिना दुकान में गए और बिना पूछे, हम जानेंगे कैसे कि किसको देना है, किसको नहीं देना है।’ दूसरे दोस्त ने अभियान को शिथिल पड़ने से बचाया।
दूसरी तरफ एक बड़ी दुकान खाली पड़ी थी। वे इस बार नए हौसले के साथ आगे बढ़े। इस बार दूसरे दोस्त ने पहल की तो दुकानवाले ने झट जवाब जड़ा, ‘पहले यह बताइए, अभी-अभी आप जिस दुकान में गए थे, वहां आपको कितने का इश्तहार मिला। वहां से आपको जितने का मिला है, उससे दुगने का मुझसे ले लीजिए…।’वे फिर वापस गली में थे। धीरे-धीरे चलते हुए अब चौक पर आ गए। एक छोटी सी दुकान के ऊपर तने तिरपाल के नीचे बेंच पर बैठते हुए दूसरे दोस्त ने आवाज दी, ‘भाई, एक गिलास लस्सी बनाइए।’ दुकानवाले ने लस्सी बनाकर दी तो दोस्त ने कहा, ‘इसे दो गिलासों में आधा-आधा बांटिए।’ दुकानवाले ने वैसा ही किया। तो दोस्त ने फिर कहा, ‘दोनों गिलासों में पानी डालिये और इन्हें पूरा पूरा गिलास बना दीजिर, भाई।’ दूसरे दोस्त ने ठहाका लगाया तो उसमें पहला दोस्त भी शामिल हो गया। फिर दुकान वाला भी।
आगे बढ़ने पर सराय रोड के बाद एक बड़ी दुकान ‘मार्डन ग्लास हाउस’ पड़ती थी। दुकान में शीशे के सामान, क्रॉकरी आदि सजे हुए थे। दुकान के बाहर कुछ पेटियां पड़ी थीं जिन्हें शायद ट्रांसर्पोट वाला उतार गया था। दुकान वाला आसपास देख रहा था और झुंझला रहा था, ‘हम हर पेटी पर दो रुपए दें, फिर मजदूर कहकर भी नहीं आएं। मैं उनके इंतजार में खड़ा हूं…।’दुकान में दाखिल होकर इस बार पहल पहले दोस्त ने की। ‘देखिये, आप शीशे जैसी चीज का कारोबार करते हैं। आप जरूर जहीन तबीयत के आदमी होंगे। एक बार सोचिए, कस्बे से निकल रही इस पत्रिका को एक इश्तहार देकर आप अपने कारोबार को बढ़ाने का काम भी करेंगे और इस पत्रिका को मदद भी करेंगे।’ दुकानवाला सचमुच जहीन जुबान का आदमी निकला। बोला-‘मैं शीशे का कारोबार करता तो हूं, लेकिन फिलहाल तो आपने इश्तहार मांगकर शीशे के दिल पर पत्थर चला दिया है।’ दोनों दोस्तों को आपस में धीमी आवाज में बातें करते देख दुकानवाला उनकी ओर फिर मुखातिब हुआ, ‘भाइयों, मैं समझ गया हूं। लेकिन मैं इतना पत्थरदिल भी नहीं हूं कि आप जैसे लोगों से पेटियां उठवाऊं और अपने सिर पर पाप लूं। सोचिए, मैं आपको इश्तहार दूं और इश्तहार देखकर राजनीतिक चंदेवाले, पूजा-कमेटियों वाले और शहर के रंगदार अपना-अपना रेट बढ़ा दें तो मेरा क्या होगा। आप ऐसा मत कीजिए भाइयेम…।’
दुकानवाले ने दोनों दोस्तों के हाथ छुए और माफी मांग ली।यहां से कुछ ही दूर आगे चौखंडी मोड़ था। उसके बाद वही सड़क शुरु होती थी जिस पर वे इश्तहार जुटाने के लिए पहले भी घूमे थे। इस सड़क से गुजरते हुए उन्हें वह क्लीनिक भी दिखा जिसमें बैठने वाले चार डॉक्टरों में से एक डॉक्टर ने कहा था- ‘हमारे पास लोग इश्तहार देख कर नहीं, दुख की मार से आते हैं। वे हमेशा आएंगे।’ थोड़ी दूरी पर प्लास्टिक के सामान की दुकान आई जिसके मालिक ने उन्हें बार-बार बुलाया और बार-बार इनकार किया था। कुछ कदम और आगे बढ़ने पर उन्हें सीमेंट के सबसे बड़े स्टॉकिस्ट की दुकान दिख गई। दूसरे दोस्त ने पहले दोस्त की तरफ देखा, ‘यहां तो हम कभी नहीं आए।’ उन्हें जैसे कोई खजाना मिल गया था। दोनों गद्दी में उत्साह से घुसे। सामने खड़े एक आदमी ने जैसे आंखों से ही उनसे पूछा। दूसरे दोस्त ने झट बात रखी, ‘देखिये, यह है हमारी पत्रिका। इसी कस्बे से निकलती है। आप इसमें इश्तहार देकर अपनी गुडविल फैलाइए।’
तभी उन्हें एक आसामान्य दृश्य दिख गया। पीछे गद्दी पर स्टॉकिस्ट अग्रवाल जी सीधे चित पड़े बेहोश लेटे हुए थे। एक आदमी पंखा झल रहा था, एक आदमी भींगे हुए तौलिये से उनका चेहरा पोंछ रहा था। एक जना दोनों दोस्तों की ओर लपका। बोला- सेठ जी आधे घंटे से बेहोश पड़े हैं। कार घर से
बुलाई गई है, लेकिन अभी तक आई नहीं है। आप दोनों देवदूत की तरह हाजिर हुए हैं। चलिए, हम सभी टांग-टूंग कर इन्हें अस्पताल पहुंचाएं। जल्दी भाइयो, जल्दी।
अगले क्षण दुकान के आदमियों ने सेठ जी की कमर में हाथ लगा कर उन्हें उठाया। एक ने उनके कंधे को सहारा दिया। देह थोड़ी उफपर उठी तो उन्होंनेझटका दिया और इससे पहले कि दोनों दोस्त कुछ समझें-बूझें, वह लस्त-पस्त देह दोनों दोस्तों के कंधों पर लदी थी।पहले दोस्त ने झुके-झुके दूसरे को देखा और दूसरे दोस्त ने पहले को देखा। लेकिन वे कुछ कहें, अभी इसकी कोई गुंजाइश नहीं थी। वे ठेल-ठालकर सड़क पर ला दिए गए थे। गर्मी की दोपहर थी। सामने सूनी पड़ी सड़क थी। कहीं कहीं कोई इक्का-दुक्का दिखता था। अभी परिदृश्य में धीरे-धीरे आड़े-तिरछे होकर चलते हुए दो नौजवान थे और उनके ऊपर पसरी हुई एक देह थी। पानी टंकी के सामने आकर पहला दोस्त लड़खड़ाकर रुक गया और बोला- मुझसे अब चला नहीं जा रहा है। इस इश्तहार का बोझ बहुत ज्यादा है, भाई। मेरी तो सांसें उखड़ रही हैं, दूसरे दोस्त ने हांफते हुए बताया। हम यहीं रुकें। कोई रिक्शा आ तो उस पर सेठ जी को लिटा दें और रिक्शे के साथ-साथ पैदल चलते रहें।’ पहले ने सांस ली तो दूसरे ने भी अपनी गर्दन झटकाई। फिर दोनों सड़क पर इधर-उधर देखने लग गए कि कोई रिक्शा वाला दिख जाए। तभी पीछे से सर्र से आकर एक कार रुकी। कार से दो जने उतरे और सेठ जी को खींचकर कार में बिठा लिया।
कार चले, इससे पहले एक जन उनसे मुखातिब हुआ, ‘भाइयों, इश्तहार पूरे पेज पर छाप दीजिए। आपका अपना सीमेंट, त्रिशूल सीमेंट। बस और क्या। पैसे की फिक्र मत कीजिए। वह कभी न कभी मिल जाएंंगे। पैसा कौन बड़ी चीज है, जी?’दरवाजा बंद हुआ और कार अपनी बेफिक्री और लाचारगी का इजहार करते हुए फुर्र हो गई।धीरे-धीरे चलते हुए अब दोनों दोस्त पोस्टआॅफिस के पास थे। वे टेलीफोन के खंभे के नीचेखड़े थे। यह वह जगह थी जहां खड़े होकर वे बड़ी सी बड़ी मुश्किल का हल सोचते थे, यहींसे वे अपने अभियान की शुरुआत करते थे। ‘भाई, हम उधर ही बढ़ें जिधर हमारे रास्ते हों। शाम को हम कुछ और दोस्तों के साथ दो-तीन लोगों के घर दस्तक देंगे और सहयोग मांगेंगे।’ पहले दोस्त ने सुझाया ‘हां, शाम को हम वह करेंगे। अभी हम कचहरी की तरफ चलें, फिर बैंक की तरफ, फिर पोस्ट आॅफिस लौटेंगे, फिर बस अड्डा। हम प्रतियां बेचेंगे, चारअंकीय सदस्यता जुटाएंगे, जितना भी, जो हो सके।’ धूप तेज थी। दोनों पसीने से तर-ब-तर थे। लेकिन उन्हें कचहरी की तरफ जाना था। वे कचहरी एरिया की तरफ बढ़ने लगे। वे बढ़ रहे थे और सड़क पर उनकी परछाईयां भी पीछे-पीछे उनके साथ थीं। ०