खेती की जमीनों पर बनाई गर्इं अनधिकृत कॉलोनियां, अब बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे लोग

डीडीए का मास्टर प्लान लागू करने में कोताही और नगर निगम का रिहायशी व व्यावसायिक नक्शा पास करने में अड़ंगा लगाने को भी दिल्ली में सीलिंग के कारण के रूप में देखा जा रहा है। दिल्ली देहात की हालत तो और भी खराब है। राजनेताओं ने सरकारी अधिकारियों के साथ मिलकर खेती की जमीन पर इतनी अनधिकृत कॉलोनियां बना दी हैं कि राजधानी का नक्शा ही उलट-पुलट हो गया है। हालात तो यहां तक बदतर हो गए हैं कि पूर्वी दिल्ली में एक ही नाम से दो-दो कालोनियां और एक ही नंबर के चार-चार मकान बने हुए हैं। अब यहां किस आधार पर सीलिंग होगी और किस आधार पर टैक्स जमा कराया जाएगा इसे लेकर लोग पशोपेश में है। दिल्ली में रिहायशी संपत्तियों की 250 वर्गमीटर तक की संपत्ति पर 350 एफएआर मिलता है, लेकिन व्यावसायिक संपत्तियों पर यह 180 वर्गमीटर हो जाता है। इससे व्यापारी व्यावसायिक संपत्ति का नक्शा पास न करा के रिहायशी नक्शा पास करा लेते हैं। अब जब व्यावसायिक इलाकों के बाद रिहायशी इलाकों में एफएआर के हिसाब से सीलिंग शुरू कर दी गई है तो व्यापारियों की मांग है कि इन इलाकों में एफएआर 350 ही रहने दिया जाना चाहिए, लेकिन व्यावसायिक संपत्तियों में 280 तक होना चाहिए।

दिल्ली में अनधिकृत और अवैध निर्माणों ने पूरी सरकारी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा कर दिया है। आज अगर सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीलिंग हो रही है और व्यापारियों के साथ रिहायशी इलाकों के लोग भी हाय-तौबा मचा रहे हैं तो इसके लिए दिल्ली सरकार से लेकर डीडीए और नगर निगम भी कम जिम्मेवार नहीं है। सालों से दिल्ली को करीब से देखने वाले ग्रामीणों की मानें तो डीडीए अगर 1981-2001 के मास्टर प्लान को ठीक से लागू करता तो आज यह स्थिति नहीं होती। तब अनुमान था कि आबादी 1.28 करोड़ तक होगी और इसी हिसाब से सुविधाओं का बंदोबस्त होगा। बिजली, पानी, स्कूल, कॉलेज, घर, दुकान और अन्य जरूरत की चीजें इसी आबादी के हिसाब से होनी थीं, लेकिन आबादी अनुमान से ज्यादा हो गई और फिर सब कुछ गड़बड़ हो गया। इसी तरह 2001 के मास्टर प्लान को भी लागू करने और अधिग्रहण में डीडीए ने कोताही बरती। जमीन अधिग्रहण का नोटिस देने के बाद भी कब्जा होता रहा और डीडीए सोता रहा। ग्रामीणों का मानना है कि मास्टर प्लान में दिल्ली में सात किलोमीटर तक चारों तरफ हरित क्षेत्र बनाए जाने की व्यवस्था को ध्वस्त कर अवैध निर्माण ने सीलिंग का रास्ता बना दिया और इसके लिए अगर जिम्मेवारी तय हो तो एजंसियां पहले जिम्मेवार होंगी। वे कहते हैं कि दिल्ली सरकार, डीडीए और नगर निगम ने ही सीलिंग का रास्ता बनाया है। अगर समय पर वे सख्ती बरतते तो आज हालात ऐसे नहीं होते।

2021 के मास्टर प्लान में दिल्ली के विकास में अगर निजी और सहकारी क्षेत्रों को भी लगाया जाता तो आज कूड़े के ढेर पर बनी दिल्ली की स्थिति बद से बदतर नहीं होती। दिल्ली में जो जमीन खेती के लिए तय थी, उस पर 1600 से ज्यादा कॉलोनियां कैसे बन गर्इं, इसका जवाब किसी के पास नहीं है। साफ है कि राजनेताओं ने संबंधित अधिकारियों के साथ मिलकर ऐसे निर्माण को अंजाम देने में अहम भूमिका निभाई। वोट बैंक की राजनीति में खेतिहर जमीनों पर अनधिकृत कालोनियां बन गर्इं, जिन्हें मूलभूत सुविधाएं देना अब सरकार के गले की फांस बन गई है। यहां पानी, बिजली, स्कूल और व्यावसायिक परिसर बनाने की चुनौती भी बरकरार है। यही नहीं, स्थानीय निकायों ने नक्शे पास करने में इतनी लापरवाही नहीं दिखाई होती तो एफएआर के उल्लंघन को रोका जा सकता था। वे नक्शे पास करने में इतनी पेचीदगी खड़ी कर देते हैं कि लोग बिना नक्शे के ही मकान बना लेते हैं।

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