गणेश चतुर्थी विशेष: विनायक कहीं बाहर नहीं, बल्कि हमारे अंतर्मन में ही विराजते हैं

प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्र विनायकम् ।
भक्तावासं स्मरेन्नित्यायुष्कामार्थसिद्धये ॥

समस्त गणों यानी इंद्रियों के अधिपति हैं महागणाधिपति. आदि देव गणेश जल तत्व के प्रतीक हैं। विनायक कहीं बाहर नहीं हमारे भीतर, सिर्फ हमारे अंतर्मन में ही विराजते हैं। हमारे मूलाधार चक्र पर ही उनका स्थाई आवास है। मूलाधार चक्र हमारे स्थूल शरीर का प्रथम चक्र माना जाता है। यही वो चक्र है, जिस पर यदि कोई जुम्बिश ना हो, जो यदि ना सक्रिय हुआ तो आज्ञान चक्र पर अपनी जीवात्मा का बोध मुमकिन नही है। ज्ञानी ध्यानी गणपति चक्र यानि मूलाधार चक्र के जागरण को ही कुण्डलिनी जागरण के नाम से पहचानते हैं। गणपति उपासना दरअसल स्व जागरण की एक तकनीकी प्रक्रिया है। ढोल नगाडो से जुदा और बाहरी क्रियाकलाप से इतर अपनी समस्त इंद्रियों पर नियंत्रण करके ध्यान के माध्यम से अपने अंदर ईश्वरीय तत्व का परिचय प्राप्त करना और मोक्ष प्राप्ति की अग्रसर होना ही वास्तविक गणेश पूजन है।

कालांतर में जब हमसे हमारा बोध खो गया, हम कर्मों के फल को विस्मृत करके भौतिकता में अंधे होकर उलटे कर्मों के ऋण जाल में फंस कर छटपटाने लगे,हमारे पूर्व कर्मों के फलों ने जब हमारे जीवन को अभाव ग्रस्त कर दिया, तब हमारे ऋषि मुनियों ने हमें उसका समाधान दिया और हमें गणपति के कर्मकांडीय पूजन से परिचित कराया। पूर्व के नकारात्मक कर्म जनित दुःख, दारिद्रय, अभाव व कष्टों से मुक्ति या इनसे संघर्ष हेतु शक्ति प्राप्त करने के लिए, शारदातिलकम, मंत्र महोदधि, महामंत्र महार्णव सहित तंत्र शास्त्र के कई प्राचीन ग्रंथों के गणेश तंत्र में भाद्रपाद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी से चतुर्दशी तक यानि दस दिनों तक गणपति का विग्रह स्थापित करके उस पर ध्यान केंद्रित कर उपासना का विशेष उल्लेख प्राप्त होता है।

गणेश तंत्र के अनुसार भाद्रपद की चतुर्थी को अपने अंगुष्ठ आकार के गणपति की प्रतिमा का निर्माण करके उन्हे अर्पित विधि विधान स्थापित करके, उनका पंचोपचार पूजन करके उनके समक्ष ध्यानस्थ होकर ‘मंत्र जाप’ करना आत्मशक्ति के बोध की अनेकानेक तकनीक में से एक है। यूं तो मंत्र सार्वजनिक रूप से प्रकाशित करने का विषय नहीं है। इसे व्यक्तिगत रूप से किसी सक्षम और समर्थ गुरु से ही लेना चाहिए। इससे उस मंत्र को क्रियाशील होने के लिए शून्य से आरम्भ नहीं करना पड़ता। पर सिर्फ संदर्भ के लिए , गकार यानि पंचांतक पर शशिधर अर्थात् अनुस्वर अथवा शशि यानि विसर्ग लगने से निर्मित “गं” या “ग:” गणपति का बीज मंत्र कहलाता है। इसके ऋषि गणक, छंद निवृत्त और देवता विघ्नराज हैं। अलग-अलग ऋषियों ने गणपति के पृथक-पृथक मंत्रों को प्रतिपादित किया है। भार्गव ऋषि नें अनुष्टुप छंद, वं बीज और यं शक्ति से “वक्रतुण्डाय हुम” और विराट छंद से “ॐ ह्रीं ग्रीं ह्रीं” को प्रकट किया। वहीं गणक ऋषि नें “गं गणपतये नमः” और कंकोल ऋषि ने “हस्तिपिशाचिलिखै स्वाहा” को जगत के समक्ष रखा।

इन मंत्रों का सवा लाख जाप (कलयुग में चार गुना ज़्यादा, यानि ५ लाख) किया जाय और चतुर्दशी को जापित संख्या का जीरे, काली मिर्च, गन्ने, दूर्वा, घृत, मधु इत्यादि हविष्य से दशांश आहुति दी जाय तो हमारे नित्य कर्म और आचरण में ऐसे कर्मों का शुमार होने लगता है जो हमें कालांतर में समृद्ध बनाते हैं, ऐश्वर्य प्रदान करते हैं, ऐसा पवित्र ग्रंथ कहते हैं।

गणपति तंत्र कहता है कि अगर हमने दूसरों की आलोचना और निंदा करके यदि अपने यश, कीर्ति, मान और प्रतिष्ठा का नाश करके स्वयं को शत्रुओं से घेर लिया हो, और बाह्य तथा आंतरिक दुश्मनों ने जीवन का बेड़ा गर्क कर दिया हो, तो भाद्र पद की चतुर्थी को अंगुष्ठ आकार के हल्दी के गणपति की स्थापना उसके समक्ष चतुर्दशी तक “गलौं” बीज का कम से कम सवा लाख (कलयुग में चार गुना ज्यादा यानि कम से कम पांच लाख) जाप किया जाए तो हमें अपनें आंतरिक व बाह्य शत्रुओं पर विजय प्राप्ति में सहायता मिलती है.

प्राचीन ग्रंथों के अनुसार भाद्रपद की चतुर्थी को रक्त चंदन या सितभानु ( सफेद आक) के गणपति की अंगुष्ठ आकार की प्रतिमा की स्थापना करके चतुर्दशी तक नित्य अष्ट मातृ काओं ( ब्राम्‍ही, माहेश्वरी, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, इंद्राणी, चामुंडा एवं रमा) तथा दस दिशाओं में वक्रतुंड, एक दंष्ट्र, लंबोदर, विकट, धूम्रवर्ण, विघ्न, गजानन, विनायक, गणपति, एवं हस्तिदन्त का पूजन करके मंत्र जाप और नित्य तिल और घृत की आहुति उत्तम जीवन प्रदान करती है। कुम्हार के चाक की मिट्टी से निर्मित प्रतिमा से संपत्ति, गुड निर्मित प्रतिमा से सौभाग्य और लवण की प्रतिमा की उपासना से शत्रुता का नाश होता है। ऐसी प्रतिमा का निर्माण यथासंभव स्वयं करें, या कराएं, जिसका आकार अंगुष्ठ यानि अंगूठे से लेकर हथेली अर्थात् मध्यमा अंगुली से मणिबंध तक के माप का हो। विशेष परिस्थितियों में भी इसका आकार एक हाथ जितना, यानि मध्यमा अंगुली से लेकर कोहनी तक, हो सकता है। इसके रंगों के कई विवरण मिलते हैं, पर कामना पूर्ति के लिए रक्त वर्ण यानि लाल रंग की प्रतिमा का उल्लेख ग्रंथों में मिलता है। गणपति साधना में मिट्टी, धातु, लवण, दही जैसे कई तत्वों की प्रतिमा का उल्लेख मिलता है, पर प्राचीन ग्रंथ चतुर्थी से चतुर्दशी तक की इस उपासना में विशेष रूप से कुम्हार के चाक की मिट्टी के नियम की संस्तुती करते हैं। सनद रहे कि शास्त्रों में कही भी विशालकाय प्रतिमा का उल्लेख हरगिज़ प्राप्त नही होता.

मोदकै: पृथुकेर्लाजै:सक्तुभिश्चेक्षुपर्वभि:।
नारिकेलैस्तिलै: शुद्धै: सुपक्वै: कदलीफलै:।
अष्ट द्रव्याणी विघ्नस्य कतिथानि मनिषिभि:।

शारदातिलकम के त्रयोदश पटल यानि गणपति प्रकरण के उपरोक्त उल्लेख के अनुसार अष्ट द्रव्य यानि मोदक, चिउड़ा, लावा, सत्तू, गन्ने का टुकड़ा, नारियल, शुद्ध तिल और पके हुए केले को विघ्नेश्वर का नैवेद्य माना गया है।

इतिहास के आगोश में यूं तो भिन्न भिन्न रूपों में गणेश पूजन के अलग अलग कई अक्श नजर आते हैं, पर आजादी के आंदोलन से बहुत पहले ही महाराष्ट्र में सात वाहन, राष्ट्रकूट, चालुक्य आदि राजाओं ने इस उपासना को उत्सव का स्वरूप दे दिया था, जिसे छत्रपति शिवाजी महाराज और उनके वंशजों तथा पेशवाओं ने आगे बढ़ाया। १८९३ में तब के गणित के अध्यापक और बाद के मराठा दर्पण और केसरी अख़बार के संस्थापक बाल गंगाधर तिलक ने इस पर्व को राष्ट्रीय स्वरूप प्रदान कर इसका उपयोग आजादी के लिए जूझने और छुआछूत जैसी कुरीतियों को दूर करने के वास्ते समाज को संगठित करने के लिए किया, जिसमें उन्हें नेताजी सुभाष चंद्र बोस, बैरिस्टर जयकर, रेंगलर परांजपे, पंडित मदन मोहन मालवीय, मौलिकचंद्र शर्मा, बैरिस्ट चक्रवर्ती,वीर सावकर, दादासाहेब खापर्डे और सरोजिनी नायडू का भी सहयोग मिला। प्राचीन मान्यतायें गणेश चतुर्थी के दिन चंद्रदर्शन को शुभ फल प्रदायक नहीं मानती। कहीं कहीं इस दिन चंद्रमा के दर्शन को कलंक कारक यानि मान-सम्मान की हानि करने वाला कहा गया है। हालाँकि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है।

 

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