गिरजाघर के भीतर इतिहास
सुधीर विद्यार्थी
आसमान में कहीं-कहीं बादल हैं लेकिन धूप का सिलसिला अभी थोड़ा बाकी है। शाहजहांपुर के कैंट इलाके में गांधी फैजाम महाविद्यालय के सामने वाले खेल मैदान पर क्रिकेटिया नई पीढ़ी की चहल-पहल है। हम बरसों बाद इस ओर आए हैं। अब सेंट मेरी गिरजाघर के चारों तरफ चहारदीवारी का निर्माण हो गया है। इससे गिरजाघर की मुख्य इमारत का सौंदर्य बाधित हो रहा है। मुख्य सड़क से जो मार्ग गिरजाघर तक जाता है उसका बाहरी लोहे का दरवाजा भीतर से बंद है। इस रास्ते पर ज्यादा आमदरफ्त नहीं है। गिरजाघर के निकट बने रिहायशी हिस्से में फादर वॉल्टर को हमारे आगमन की सूचना मिल चुकी है। बावन वर्षीय सफेद चोगाधारी फादर अब हमारे सम्मुुख हैं, जिनका रंग गहरा सांवला है और चेहरे पर फ्रेंच कट दाढ़ी खूब फब रही है। वे बंगलुरु के रहने वाले हैं। मैंने उन्हें बताया कि यह गिरजाघर 1857 की यादों से जुड़ा हुआ है। मैंने यह भी कहा कि श्याम बेनेगल की ‘जुनून’ फिल्म में इस गिरजाघर की ऐतिहासिकता का चित्रण है। वह रस्किन बांड के हिंदी में अनूदित उपन्यास ‘परवाज’ पर आधारित है। रस्किन बांड का वह उपन्यास 1857 में शाहजहांपुर में घटी उस क्रांति पर आधारित है। रस्किन 1960 में शाहजहांपुर आए थे। तब उन्होंने इस गिरजाघर को भी देखा। गदर में यहां जो कुछ हुआ उसकी कथा उनके पिता ने उन्हें सुनाई थी। उसी को बुनने का प्रयास उन्होंने ‘परवाज’ में किया था। यह इंडिया बुक हाउस से 1980 में पहली बार छपा। फिर पेंगुइन से 2002 में। हिंदी का पहला संस्करण पेंगुइन से ही 2006 में आया जिसका अनुवाद तारा जोशी ने किया है।
एकाएक फादर ने कहा- हम गिरजाघर देखने चलते हैं, लौटकर आएंगे तब चाय पिएंगे।गिरजाघर के इर्द-गिर्द गहरा सन्नाटा है, भीतर तक खामोश कर देने वाला। पुरानी पड़ चुकी ऐतिहासिक इमारतों के साथ अक्सर ऐसा ही होता है एक समय। पर गिरजाघर की इमारत तो अभी बुलंद और बहुत मजबूत दिखाई पड़ती है- आसपास के भवनों को चुनौती देती हुई। अब हम उस इतिहास से साक्षात्कार कर रहे हैं जिसे गिरजाघर की दीवारों ने सत्तावनी क्रांति के समय घटित होते देखा था। मैंने दीवारों और दरवाजों को छुआ। भीतर अस्त-व्यस्त काली-धूसर बेंचें हैं। फर्श और मंच पर पक्षियों ने कूड़े के ढेर जमा कर दिए थे। छत बता रही है कि वह अब पुनर्निर्माण के लिए बहुत दिनों तक प्रतीक्षा करती नहीं रह सकती।फादर के साथ हम गिरजाघर की दीवारों पर लगी सफेद संगमरमर की स्मृति-पट्टिकाओं को देख-पढ़ रहे हैं। एक पत्थर पर अनेक अंग्रेज अधिकारियों के नाम अंकित थे, जो सत्तावनी क्रांति के दौरान गदर करने वालों के हाथों मारे गए। इनमें शाहजहांपुर में 31 मई 1857 को हुए घटनाक्रम में कैप्टन आईएन जेम्स और सर्जन एचएच बोलिंग थे। साथ ही बनारस में 4 जून 1857 को एक और नौरंगाबाद में 10 जून 1857 को मारे गए सोलह अधिकारियों के नाम भी इसमें शामिल किए गए हैं। एक अन्य पट्टिका पर विद्रोहियों द्वारा शाहजहांपुर में ही 31 मई 1857 को मारे गए बंगाल सिविल सर्विस के आर्थर चेस्टर स्मिथ तथा उनकी पत्नी का जिक्र है। 10 जून, 1857 को मोहम्मदी के निकट मारे गए कैप्टन मारडंट मनी सेलमोन के नाम का भी एक पत्थर हमें देखने को मिला। कुछ और स्मृति शिलाओं में से एक पर निकट के रोजा में रहे राबर्ट रसेल कैरू का नाम अंकित था, जिनका निधन 19 मार्च, 1893 में हुआ था।
हम गिरजाघर की आकाश चूमती इमारत को बार-बार निहार रहे थे और सत्तावनी क्रांति के उस समय की कल्पना भी कर रहे थे जो डेढ़ सौ साल से ज्यादा पहले इस धरती पर अद्भुत तरीके से घट चुकी थी। इस गिरजाघर की इमारत की दृढ़ता और अनूठा शिल्प आज भी हमसे अपनी कथा कहने को बेचैन है। बस, उसे सुनने वाले कान और देखने के लिए आंखें चाहिए। फादर वॉल्टर ने गिरजाघर के एक किनारे आकर हमसे कहा- बाहर लगे इस छोटे दरवाजे को खोल कर हम ऊपर का हिस्सा भी आपको चढ़ कर दिखा सकते हैं, पर यह बहुत दिनों से बंद पड़ा है इसलिए ठीक नहीं होगा इस रास्ते अभी देखने जाना। सांप आदि कुछ भी रहते हो सकते हैं।
एकाएक फादर फिर बोले- आओ, अब वह स्मारक भी दिखाएं जो तब विद्रोहियों द्वारा मारे गए अनेक लोगों की याद में गिरजाघर के एक किनारे कुछ गज की दूरी पर खेत में बनाया गया था, पर अब ध्वस्त हो चुका है पूरी तरह। इन पत्थरों पर बरसात में जम गई काई ने कोशिश करने पर भी कुछ पढ़ने की अनुमति नहीं दी। फादर बताते हैं कि उन्हें नहीं पता कि इस गिरजाघर का निर्माण कब हुआ लेकिन इसे पहले सेंट मेरी गिरजाघर कहा जाता था, पर अब यह सेंट राफेल के नाम से जाना जाता है। गिरजाघर की लाल इमारत हरियाली के बीच अलग सौंदर्य की सृष्टि करती है। गिरजाघर का यह इलाका सत्तावनी क्रांति के दौर में कितना बियावान रहा होगा, इसका सिर्फ अनुमान लगाया जा सकता है। फादर वॉल्टर से विदा लेते हुए मैं यही सोच रहा हूं।