गुजरात चुनाव से ही गायब है ”गुजरात मॉडल”, लोकसभा चुनाव में था इसका भारी शोर
गुजरात विधानसभा चुनाव प्रचार अभियान से जुड़ी चर्चा अब जनेऊ (क्या आप हिंदू हैं?) और ऐसे मुद्दों पर केंद्रित हो गई है जो दूर ही रहते थे। जैसे कमश्मरी व रोहिंग्या, सोमनाथ मंदिर और जवाहरलाल नेहरू की भूमिका। इस शोर के बीच चुनाव प्रचार अभियान से जो एक चीज अचानक से गायब हुई वह है ‘गुजरात मॉडल’। एक ऐसा विचार जिसके दम पर लोकसभा चुनाव का पूरा प्रचार अभियान चलाया गया और 30 वर्षों के बाद भारत को पहली पूर्ण बहुमत की सरकार मिली। इसकी अनुपस्थिति गंभीर चिंता का विषय है।
ऐसे में जब भारत जीता और गुजरात की लोकप्रिय नीतियों के जरिये ‘अच्छे दिन’ को देशभर में दोहराया जाना था, तब गुजरात में उसी सपने को क्यों नहीं बेचा जा रहा है? क्यों प्रचार का विषय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के साथ ‘गोरखपुर गवर्नेंस’ हो गया है? वह वैसे क्षेत्रों में जा रहे हैं जिसे भाजपा के लिए पहले से ही आसान माना जा रहा है। ऐसा इसलिए तो नहीं है (जैसा कि क्रिस्टॉफ जैफरलॉट ने जाहिर किया है) कि शिक्षित बेरोजगारों की तादाद (वर्ष 2016 में 6.12 लाख) में बढ़ोतरी हुई है और किसानों की दैनिक आय (वर्ष 2016 में 264 रुपये) कम होकर राष्ट्रीय औसत से भी कम 77 रुपये तक पहुंच गई है। या शायद इस कारण तो नहीं कि विशेष आर्थिक क्षेत्र, जमीन अधिग्रहण को आसान बनाना और श्रम कानूनों को ‘ज्यदा सख्त’ करने का वादा करने वाला गुजरात मॉडल अनेक वजहों से नष्ट हो गया है। भाजपा नेता अपने भाषणों में ‘दुष्ट’ कांग्रेस के अतीत का हवाला दे रहे हैं जो चीजों को होने नहीं दे रही है। जबकि पिछले 22 वर्षों से स्थिति इसके ठीक उलट है। गुजरात की छवि राजनीतिक संगठनों के लंबे इतिहास से जुड़ा है। भारत के कुछ बड़े नेता जैसे गांधी, पटेल आदि इसी राज्य से आते हैं। इसी तरह देश को बांटने वाले मोहम्मद अली जिन्ना जैसे कुछ बड़ा नेता भी गुजरात में ही हुए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अब भी यहां बोलबाला है।
इसके बावजूद किसी भी नेता ने गुजरात को दुनिया भर में एक मॉडल के तौर पर पेश नहीं कर पाए जैसा कि वर्ष 2002 से गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने 2014 में कर दिखाया। व्यापक जनसंपर्क अभियान और चुनिंदा आंकड़ों के साथ ऐसा होलोग्राम तैयार किया गया, जिससे गुजरात दूर से ही झिलमिलाने लगा। गुजरात मॉडल की अनेकों व्याख्याएं हो चुकी हैं कि आखिरकार यह क्या है? क्या यह सांप्रदायिक संघर्ष की एक चमकीली रेखा थी? या आधारभूत संरचनाओं, सड़क आदि के लिए पूर्ण समर्पण था, जिसने गुजरात मॉडल के तौर पर परिभाषित एक राज्य की ओर नौकरियों की चाहत रखने वाले भारतीयों को खींचा ? या फिर गुजरात मॉडल ईज ऑफ डूइंग बिजनेस और सिंगल विंडो क्लियरेंस के लिए है, जिसके तहत नैनो प्लांट को सिंगुर से साणंद लाया गया। खासकर लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान इसके कई मायने थे।
भाजपा आरोप लगा रही है कि कांग्रेस जाति की राजनीति करने में जुटी है। सत्तारूढ़ पार्टी विपक्षी दल पर 1980 के दशक के दौरान की क्षत्रिय-हरिजन-आदिवासी-मुस्लिम फॉर्मूले को बढ़ावा देने का आरोप लगा रही है। यह अवधि अराजकता के लिए जानी जाती है। यह तथ्य है कि पिछले ढाई वर्षों में आर्थिक रफ्तार में सुस्ती और अशांति के कई मामले सामने आए हैं। आर्थिक विद्रोह अक्सर सामाजिक विभाजन के तौर पर सामने आया है। जैसे ऊना में दलितों और पाटीदारों का विरोध सामने आया। कुछ महीने पहले भाजपा ने आसानी से लक्ष्य हासिल करने के बारे में सोचा था जो अब बदल चुका है।
विधानसभा चुनाव का परिणाम 18 दिसंबर को आएगा। लेकिन, प्रचार अभियान बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि इससे लोगों की मनोदशा का पता चलेगा जो आने वाले कुछ महीनों में भी दिखेगा जब हम 2019 की दिशा में आगे बढ़ेंगे। इन सबके बीच गुजरात मॉडल गले नहीं उतरा है। खासकर तब जब इसके दम पर अच्छे दिन लाने के किए गए वादों को भी पीछे धकेल दिया गया है।