गुजरात विजेता और अर्थव्यवस्था की लड़खड़ाहट
पी. चिदंबरम
पिछले सप्ताह मैंने लिखा था कि भाजपा अभी भी चुनाव जीत सकती है। पर जैसा कि नतीजा आया है, भाजपा की सचमुच में जीत नहीं हुई है। एक ऊर्जावान और तेज युवा धावक के साथ मुकाबले में भाजपा खेल खत्म होने तक सांसत में रही। भाजपा और कांग्रेस, दोनों की जीत हुई: भाजपा को चुनावी जीत मिली, जबकि कांग्रेस ने राजनैतिक जीत हासिल की। भाजपा नेतृत्व के मायूस होने की वजह है, क्योंकि उन्होंने 16 सीटें गंवाई हैं (उनके पास 115 सीटें थीं), और वे 150 सीटों के अपने घोषित लक्ष्य के करीब भी नहीं पहुंच सके, उसे पाना तो दूर की बात है। कांग्रेस नेतृत्व को भी निराश होना पड़ा, क्योंकि पार्टी बहुमत की रेखा के करीब (अस्सी सीटें) तो पहुंची, पर उस रेखा (92 सीटें) को पार नहीं कर सकी।
सत्तापक्ष और उसे चुनौती
गुजरात चुनाव के निष्कर्ष कई हैं। इनमें से मैं कुछ का जिक्र करूंगा:
1. नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा अपराजेय नहीं है। दिल्ली और बिहार इसे साबित कर चुके हैं। एक प्रभावी एजेंडे और सावधानी से बनाई गई रणनीति से भाजपा को हराया जा सकता है।
2. एक चुनाव से दूसरे चुनाव के बीच मतदाताओं के रुझान में बड़े पैमाने पर फर्क आ सकता है, भले यह अंतराल दो या तीन साल का ही हो।
3. गुजरात में ‘जाति’ नहीं, बल्कि सामाजिक ‘लामबंदी’ महत्त्वपूर्ण कारक थी। ऐसी लामबंदी अन्य कारकों से भी जुड़ जाती है- बेरोजगारी या किसानों की मुसीबतें या बढ़ती गैर-बराबरी या धर्म। राजनीतिक दलों की तुलना में लोगों तक सामाजिक आंदोलनों की पहुंच कहीं अधिक होती है और वे चुनाव को दिशा निर्धारित कर सकते हैं।
4. राहुल गांधी ने उम्मीदों के अनुरूप काम किया। उन्होंने कांग्रेस के कार्यकर्ताओं का हौसला बढ़ाया, पर इनकी तादाद बढ़नी चाहिए और इन्हें सांगठनिक इकाइयों से जोड़ा जाना चाहिए। सांगठिक इकाइयों की ‘अनुपस्थिति’ ही 80 और 92 के बीच फर्क की वजह बनी।
5. नरेंद्र मोदी को अपने वादे पूरे करने हैं- आर्थिक वृद्धि, रोजगार, किसानों की आय में दोगुनी बढ़ोतरी, और ‘सबका साथ सबका विकास’। उनके पहले तीन साल के कार्यकाल में औसतन आर्थिक वृद्धि साढ़े सात फीसद रही (नई गणना पद्धति के मुताबिक)। यह आंकड़ा दो अंकों की आर्थिक वृद्धि के दावे से बहुत दूर है। रोजगार ओझल हैं। जहां तक किसानों की आय दुगुनी करने की बात है- मैं समझता हूं कि उनका आशय वास्तविक आय से होगा- यह एक काल्पनिक योजना मालूम पड़ती है। ‘सबका साथ’ को भाजपा/आरएसएस के प्यादों और यहां तक कि कई नेताओं की विभाजनकारी गतिविधियों और उनके द्वारा फैलाई जा रही नफरत ने झुठला दिया है।
अर्थव्यवस्था और रोजगार
आखिरकार, 2018-19 में अर्थव्यवस्था की दशा ही, लोकसभा चुनाव समेत अगले सोलह महीनों में होने वाले चुनावों में निर्णायक कारक साबित होगी। ‘अर्थव्यवस्था’ में सबसे अहम कारक होगा ‘रोजगार’। लिहाजा, समझदारी इसी में है कि अर्थव्यवस्था के प्रति नजरिए और रोजगार के बारे में बात की जाए।
अर्थव्यवस्था की हालत पर किसी आधिकारिक स्रोत से सबसे हालिया ब्योरा रिजर्व बैंक की तरफ से मौद्रिक नीति की समीक्षा के रूप में 6 दिसंबर 2017 को आया। मैन्युफैक्चरिंग, खनन और बिजली, गैस, जलापूर्ति आदि में दूसरी तिमाही में बढ़ोतरी दर्ज करने के बाद, रिजर्व बैंक ने ध्यान दिलाया कि-
‘‘विरोधाभासी रूप से, कृषि और उससे संबंधित गतिविधियां सुस्त हुई हैं, जो कि खरीफ की अपेक्षा से कम उपज में प्रतिबिंबित होती है।
सेवा क्षेत्र की गतिविधियां भी कम हुई हैं, यह मुख्य रूप से वित्त, बीमा, रीयल एस्टेट, पेशेवर सेवाओं, लोक प्रशासन, रक्षा और अन्य सेवाओं में दिखता है, पहली तिमाही में सरकार की तरफ से किए गए भारी-भरकम खर्च के बावजूद। कुछ सुधार के बावजूद, ‘रेरा’ और जीएसटी के क्रियान्वयन के चलते संक्रमणकालीन प्रभाव की वजह से निर्माण क्षेत्र की वृद्धि फीकी बनी हुई है। कारोबार, होटल, परिवहन और संचार, अब भी पहले वाली रौ में लौटने की जद्दोजहद कर रहे हैं, दूसरी तिमाही में पिछली तिमाही के मुकाबले गिरावट के बावजूद। व्यय की तरफ आएं, कुल नियत पूंजी निर्माण की वृद्धि दर लगातार दो तिमाही में सुधरी है। लेकिन निजी अंतिम उपभोग व्यय की वृद्धि- जो कि कुल मांग का मुख्य आधार है- दूसरी तिमाही में आठ तिमाहियों के सबसे निचले बिंदु पर दर्ज की गई।’’
अगर कृषि की वृद्धि सुस्त हो, सेवा क्षेत्र में कमी का रुख हो, निर्माण क्षेत्र फीका हो और कारोबार, होटल आदि में गिरावट हो, और निजी अंतिम उपभोग व्यय लुढ़क कर आठ तिमाहियों के सबसे निचले स्तर पर आ गया हो, तो कोई भी समझते-बूझते यह कैसे कह सकता है कि अर्थव्यवस्था की सेहत ठीक है?
‘मुद्रा’ और मिथ
सरकार की सिर्फ एक शेखी पर नजर डालें- कि पिछले तीन साल में करोड़ों रोजगार सृजित किए गए। 28 मार्च, 2016 को प्रधानमंत्री ने ‘मुद्रा’ योजना का जिक्र करते हुए कहा था कि ‘3.1 करोड़ कर्ज उद्यमियों को मंजूर किए गए हैं… अगर हम इतना ही मान लें कि एक उद्यम औसतन सिर्फ एक टिकाऊ रोजगार पैदा करता है, तो इस पहल से अपने आप नए रोजगार सृजित होने का आंकड़ा 3.1 करोड़ तक पहुंच जाता है।’ ‘मुद्रा’ ऋण सामान्यतया सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा दिए गए कर्जों का योग है- जो कि वे कई साल करते रहे हैं। 28 जुलाई 2017 तक के हिसाब के मुताबिक, 8.56 करोड़ कर्जे स्वीकृत थे। इनकी कुल राशि थी 3.69 लाख करोड़ रु.।
औसत कर्ज का आकार था 43,000 रु.! हमसे यह मान लेने को कहा जा रहा है कि 43,000 करोड़ रु. का कर्ज एक नया रोजगार पैदा करेगा! अगर एक कामगार को पांच हजार रु. प्रतिमाह की न्यूनतम मजदूरी से भी कम दिया जाए, तो भी उपर्युक्त ऋण आठ महीनों में ही हवा हो जाएगा! क्या 43,000 रु. का निवेश पांच हजार रु. प्रतिमाह की अतिरिक्त आय पैदा कर सकता है? यह दावा, कि हरेक ऋण ने ‘एक टिकाऊ रोजगार’ पैदा किया, झूठा है। यह उसी तरह की शेखी है कि देश से बाहर छुपा कर जमा किए गए काले धन को लाकर हरेक भारतीय के खाते में पंद्रह लाख रुपए जमा किए जाएंगे। अगर आप एक बेरोजगार युवक हैं, तो पंद्रह लाख की जमाराशि का मजा लें, ‘मुद्रा’ रोजगार हासिल करें, आंकड़ों का भोजन करें और सदा आनंद से जीएं!