गुजरात विधानसभा चुनाव 2017: इस बार किसकी होगी जीत-हार, इन पांच नई चीजों पर दारोमदार
चुनाव आयोग गुरुवार (12 अक्टूबर) को हिमाचल प्रदेश विधान सभा चुनाव की तारीख की घोषणा कर दी। राज्य में नौ नवंबर को मतदान होगा। मतगणना 18 दिसंबर को होगी। आयोग ने अभी गुजरात चुनाव की घोषणा नहीं कि लेकिन माना जा रहा है कि अगले कुछ दिनों में इसकी घोषणा हो सकती है। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है। गुजरात में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की सरकार है। गुजरात में विधान सभा की 182 सीटें हैं और हिमाचल में 68 सीटें। दोनों ही राज्यों में मुख्य मुकाबला देश की दो सबसे बड़ी पार्टियों बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला होने की संभावना है। लेकिन न केवल सीटों की ज्यादा संख्या बल्कि अपना राजनीतिक महत्व के कारण गुजरात चुनाव पर चुनावी पर्यवेक्षकों की निगाहें लगी हुई हैं। गुजरात में पिछली बार दिसंबर 2012 में चुनाव हुए थे। बीते पांच सालों में देश और प्रदेश की राजनीतिक फिजां काफी बदल चुकी है। आइए एक नजर डालते हैं बीते पाँच सालों में आए उन पाँच बदलावों पर जो चुनाव पर असर डाल सकते हैं।
1- नरेंद्र मोदी की गैर-मौजूदगी- साल 1995 में पहली बार बीजेपी ने अकेले अपने दम पर गुजरात में दो-तिहाई बहुमत वाली सरकार बनायी थी। उस समय नरेंद्र मोदी की उम्र करीब 45 साल थी। माना जाता है कि बीजेपी की जीत में युवा नेता मोदी की चुनावी रणनीति की अहम भूमिका रही थी। पार्टी की अंदरूनी राजनीति की वजह से मोदी को उसी साल गुजरात से केंद्र भेज दिया गया था। लेकिन गुजरात पर उनका दबदबा बना रहा। साल 2001 में बीजेपी ने केशुभाई पटेल को हटाकर नरेंद्र मोदी को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया। सीएम बनने से पहले मोदी ने कभी भी विधायक या सांसद का चुनाव नहीं लड़ा था। मोदी के सीएम बनने के बाद साल 2002 में हुए विधान सभा चुनाव में बीजेपी ने पूर्ण बहुमत हासिल किया। उसके बाद साल 2007 और 2012 के विधान सभा चुनाव में भी बीजेपी ने मोदी के नेतृत्व में जीत हासिल की।
इस समय बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पहली बार 1997 में गुजरात से विधायक बने थे। माना जाता है कि उस समय बीजेपी के दिल्ली स्थित मुख्यालय में पदाधिकारी मोदी ने उन्हें टिकट दिलाने में बड़ी भूमिका निभायी थी। इस साल राज्य सभा सांसद बनने से पहले तक शाह 1997 से 2012 के बीच हुए चुनावों में विधायक बनते आ रहे थे। मोदी और शाह दोनों के राष्ट्रीय राजनीति में आने के बाद गुजरात में पहली बार विधान सभा चुनाव हो रहे हैं। अमित शाह ने इस चुनाव में 150 सीटें जीतने का लक्ष्य रखा है लेकिन तथ्य ये है कि पिछले तीन विधान सभा चुनाव से बीजेपी की सीटें घटती ही आ रही हैं। साल 2002 में बीजेपी ने 127 सीटें, साल 2007 में 117 सीटें और साल 2012 में 116 सीटें जीती थीं। नरेंद्र मोदी के पीएम बनने के बाद उनकी जगह आनंदीबेन पटेल को पार्टी ने राज्य का सीएम बनाया लेकिन कार्यकाल पूरा होने से पहले ही उनकी जगह विजय रूपानी को देनी पड़ी। ऐसे में बीजेपी ऊपर से चाहे जो कहे मोदी-शाह की गैर-मौजूदगी का गुजरात की राजनीति पर असर पड़ना तय है।
2- उना दलित कांड और पाटीदार आंदोलन- साल 2001 से 2012 के बीच नरेंद्र मोदी के मुख्यमंत्री काल में गुजरात मुख्यतः गोधरा ट्रेन कांड और उसके बाद हुए दंगों को लेकर ही विवादों में रहा था। लेकिन मोदी के पीएम बनने के बाद साल 2014 से अब तक गुजरात मुस्लिम मुद्दों ज्यादा दलितों और पाटीदारों के आंदोलन की वजह से चर्चा में रहा। उना में दलितों की पिटायी का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद राज्य भर में दलितों ने बीजेपी सरकार के खिलाफ उग्र प्रदर्शन किये। उना दलित कांड की गूँज दूसरे राज्यों में भी सुनायी दी। गुजरात के दलित पिछले दो दशकों से बड़े पैमाने पर बीजेपी को वोट देते आ रहे थे। लेकिन इस बार बीजेपी को दलित वोटों की चिंता सता रही है। शायद यही वजह है कि अमित शाह ने गुजरात के दलित बीजेपी कार्यकर्ता के घर खाना खाकर अपनी अखिल भारतीय यात्रा की शुरुआत की थी।
गुजरात का पाटीदार (पटेल) समुदाय पिछले दो दशकों से बीजेपी का वोटर माना जाता रहा है। लेकिन हार्दिक पटेल के नेतृत्व में साल 2015 में पाटीदारों ने आरक्षण के लिए आंदोलन शुरू कर दिया। हार्दिक पटेल की रैली में लाखों लोग शामिल होने लगे। इस आंदोलन ने हिंसक रूप ले लिया था। आंदोलन इतना उग्र हो गया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को गुजराती में गुजरातवासियों से शांति-व्यवस्था बनाए रखने की अपील करनी पड़ी। राज्य में पटेल सीएम और मंत्रिमंडल कई अहम पदों पर पटेलों के होने के बावजूद बीजेपी सरकार के खिलाफ हुए आंदोलन से इस चर्चा को बल मिला की बीजेपी के वफादार वोटर माने जाने वाले पटेल उससे दूर भी जा सकते हैं। हार्दिक पटेल अभी भी बीजेपी के खिलाफ काफी सक्रिय हैं। मुसलमान, दलित और पटेल वोटर अगर सचमुत बीजेपी के खिलाफ एकजुट हो गये तो पार्टी को आगामी चुनाव में बड़ी मुश्किल हो सकती है।
3- कठघरे में विकास – पिछले एक दशक से गुजरात मॉडल का बीजेपी पूरे देश में उदाहरण के तौर पर पेश करती रही है। साल 2014 के लोक सभा चुनाव से पहले भी बीजेपी और तब उसके प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी गुजरात को मॉडल स्टेट बताकर पूरे देश को वैसा ही बनाने का वादा करते रहे। लेकिन इस बार विधान सभा चुनाव से ठीक पहले सोशल मीडिया पर “विकास बौरा हो गया है” वायरल हो गया। बीजेपी का आरोप है कि ये कांग्रेस का काम है लेकिन इसके प्रभाव का अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि अमित शाह तक को बीजेपी समर्थकों से अपील करनी पड़ी कि वो सोशल मीडिया पर चल रहे ऐसी चीजों से बचें। चुनाव से ठीक पहले अमित शाह के बेटे जय शाह की कंपनी पर पिता के पद का लाभ लेने का आरोप लगा है। दलित आंदोलन और पाटीदार आंदोलन से पार्टी पहले ही परेशान थी। पार्टी पर गुजराती मूल के कारोबारियों को “विशेष लाभ” पहुंचाने के आरोप इन तीन सालों में लगते रहे हैं। माना जा रहा है कि जीएसटी से भी गुजरात का व्यापारी वर्ग नाराज है इसलिए पिछले हफ्ते बीजेपी ने इसमें संशोधन भी किए। जाहिर है विकास के “गुजरात मॉडल” पर उठ रहे सवाल का असर गुजरात विधान सभा चुनाव पड़ सकता है।
4- आम आदमी पार्टी की भूमिका- भले ही गुजरात चुनाव में मुख्य मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के बीच माना जा रहा हो इस बात को नजरंदाज करना शायद मुश्किल है कि आम आदमी पार्टी भी राज्य में पहली बार चुनाव लड़ेगी। पार्टी ने गोपाल राय को प्रदेश प्रभारी बनाया है। आम आदमी पार्टी ने जिस तरह दिल्ली में साल 2015 में बीजेपी और कांग्रेस को अकेले चित कर दिया उसके बाद से ही अप्रत्याशित नतीजे देने की उसकी क्षमता को लेकर सभी सशंकित रहते हैं। इस साल हुए पंजाब विधान सभा चुनाव में भी आम आदमी पार्टी ने 20 सीटों पर जीत हासिल की। आप पंजाब में सत्ता से बेदखल हुई अकाली दल से भी ज्यादा सीटें हासिल कीं। आप को गोवा चुनाव में अपेक्षित नतीजे नहीं मिले लेकिन बीजेपी और कांग्रेस इस बात को लेकर शायद ही आश्वस्त हों कि आप गुजरात में दिल्ली या पंजाब वाली कहानी दोहरा न दे। ऐसे में गुजरात के आगामी चुनाव में आम आदमी पार्टी एक बड़ा फैक्टर होगी।
5- शंकर सिंह वाघेला की करवट – गुजरात से बाहर के लोगों के लिए शंकर सिंह वाघेला का आज कोई खास मतलब नहीं है लेकिन हाल ही में उन्होंने कांग्रेस से नाता तोड़ा तो राष्ट्रीय मीडिया में वो सुर्खियों में रहे। गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री वाघेला को कुछ लोग नरेंद्र मोदी का राजनीतिक गुरु भी मानते हैं। 1996 में वाघेला ने बीजेपी छोड़कर अपनी राष्ट्रीय जनता पार्टी बना ली थी। कहा जाता है कि वो 1995 में पार्टी को मिली जीत के बाद सीएम न बनाए जाने से नाराज थे। बाद में वाघेला ने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया और गुजरात कांग्रेस के प्रमुख नेता बन गये। वाघेला कांग्रेस के टिकट पर दो बार सांसद रहे। यूपीए-1 सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे। कांग्रेस छोड़ने से पहले तक वो गुजरात विधान सभा में विपक्षी दल के नेता थे। वाघेला ने जिस तरह चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस छोड़ा है और राज्य सभा चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार अहमद पटेल को हराने के लिए अपने समर्थकों से बीजेपी को वोट दिलवाया है उससे उनका रुख साफ हो गया। गुजरात में राजपूत की अच्छी खासी संख्या है। माना जाता है कि वाघेला का राजपूतों पर अच्छा प्रभाव है, साथ ही वो अपने इलाके में भी अब भी दबदबा रखते हैं। ऐसे में आगामी चुनाव में पिछले एक दशक में कांग्रेस पहली बार वाघेला के समर्थन के खिलाफ अगर चुनाव लड़ती है तो इसका असर नतीजों पर पड़ना तय है।