गोवर्धन पूजा आज, जानें पूजा विधि और क्या है अन्नकूट का महत्व
दिवाली के अगले दिन गोवर्धन पूजा की जाती है. गोवर्धन पूजा प्रकृति और मानव के बीच के संबंध को दर्शाता है. इस त्योहार पर गोधन यानी गायों की पूजा होती है. आपको बता दें, गाय को देवी लक्ष्मी का भी स्वरूप माना जाता है और इस पूजा से भगवान श्री कृष्ण का भी संबंध है. हालांकि, श्री कृष्ण की कथा से पहले आपको बताते हैं कि गोवर्धन पूजा की विधि क्या है.
कैसे करें गोवर्धन पूजा
- सुबह उठ कर शरीर पर तेल मलकर स्नान करें.
- इसके बाद घर के मुख्य द्वार पर गाय के गोबर से गोवर्धन की आकृति बनाएं.
- अब गोबर से गोवर्धन पर्वत बनाएं और आस पास ग्वाल बाव, पेड़ पौधों की आकृति बनाएं.
- इसके बीच में भगवान श्री कृष्म की मूर्ति को रख दें.
- इसके बाद भगवन कृष्ण, ग्वाल-बाल और गोवर्धन पर्वत का पूजन करें.
- पूजा के बाद पकवान और पंचामृत का भोग लगाएं.
- गोवर्धन की कथा सुनें. प्रसाद वितरण करें और फिर सपरिवार भोजन करें.
लोकगाथा के अनुसार, देवराज इंद्र को अपने ऊपर अभिमान हो गया था. इस घमंड को चूर करने के लिए भगवान कृष्ण ने एक लीला रची. एक दिन उन्होंने देखा कि गांव के सभी लोग ढेर सारे पकवान बनाते हुए किसी की पूजा की तैयारी कर रहे हैं. बाल कृष्ण ने अपनी मैया से इस बारे में प्रश्न किया तो उन्हें पता चला कि ये सब देवता इंद्र को प्रसन्न करने के लिए किया जा रहा है. ताकि वो आशिर्वाद स्वरूप बारिश करें और अन्न की पैदावार हो सके. अन्न की पैदावार के कारण ही गायों को चारा मिलता है. इस पर श्री कृष्ण ने कहा कि गाय गोवर्धन पर्वत पर चरने जाती हैं, ऐसे में पूजा भी पर्वत की होनी चाहिए. उन्होंने अपनी माता यशोदा और ग्रामीणों से कहा कि इंद्र तो कभी दर्शन भी नहीं देते और पूजा न करने पर क्रोधित भी होते हैं. ऐसे अहंकारी की पूजा नहीं करनी चाहिए. उनकी इस बात को सुन सभी ग्रामीणों ने गोवर्धन पर्वत की पूजा की.
इस बात से देवराज इंद्र नाराज हो गए, उन्होंने इस अपना अपमान समझा और मूसलाधार वर्षा शुरू कर दी. प्रलय के समान वर्षा देखकर सभी बृजवासी भगवान कृष्ण को कोसने लगे कि सब इनका कहा मानने से हुआ है. तब भगवान कृष्ण सभी को गोवर्धन पर्वत की ओर ले गए. पर्वत को प्रणाम कर उन्होंने उसे अपनी छोटी उंगली पर उठा लिया, जिसके नीचे सभी ग्रामीणों ने शरण ली. ये देख इंद्र और क्रोधित हुए और वर्षा और तेज हो गई. तब श्री कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से कहा कि आप पर्वत के ऊपर रहकर वर्षा की गति को नियत्रित करें और शेषनाग से कहा आप मेड़ बनाकर पानी को पर्वत की ओर आने से रोकें.
लगातार सात दिन तक मूसलाधार वर्षा होती रही, लेकिन ग्रामीणों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा. तब इंद्र को एहसास हुआ कि उनका मुकाबला किसी सामान्य मानव से नहीं है. वे घबराकर ब्रह्मा जी के पास पहुंचे और उन्हें पूरी बात बताई. इस पर ब्रह्मा जी ने बताया कि वह जिस मानव की बात कर रहे हैं वो भगवान विष्णु के रूप श्री कृष्ण हैं. ये सुन देवता इंद्र श्री कृष्ण के पास पहुंचे और उन्होंने उन्हें न पहचान पाने के लिए क्षमा मांगी. इस पर भगवान ने कहा कि देवता आपको अपनी शक्ति का घमंड हो गया था, इसे तोड़ने के लिए ही मैंने ये लीला रची थी. ये सुन इंद्र लज्जित हुए और उन्होंने श्री कृष्ण से अपनी भूल के लिए क्षमा याचना की. इसके पश्चात देवराज ने मुरलीधर की पूजा कर उन्हें भोग लगाया. इस पौराणिक घटना के बाद से ही गोवर्धन पर्वत की पूजा की जाने लगी. साथ ही गाय और बैल को स्नान करवाकर उन्हें गुड़ और चावल मिलाकर खिलाया जाता है. तभी से ये रीत चली आ रही है.
ऐसी मान्यता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्र का अभिमान चूर करने के लिए गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी अंगुली पर उठाकर संपूर्ण गोकुल वासियों की इंद्र के कोप से रक्षा की थी. इन्द्र के अभिमान को चूर करने के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने कहा था कि कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन 56 भोग बनाकर गोवर्धन पर्वत की पूजा करें.
अन्नकूट शब्द का अर्थ होता है अन्न का समूह. विभिन्न प्रकार के अन्न को समर्पित और वितरित करने के कारण ही इस पर्व का नाम अन्नकूट पड़ा है. इस दिन बहुत प्रकार के पकवान, मिठाई आदि का भगवान को भोग लगाया जाता है. कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को गोवर्धन उत्सव मनाया जाता है. इस दिन अन्नकूट जैसा त्योहार भी सम्पन्न होते है. अन्नकूट या गोवर्धन पूजा की शुरूआत भगवान कृष्ण के अवतार के बाद द्वापर युग से हुई.
मान्यता है कि अन्नकूट पर्व मनाने से मनुष्य को लंबी उम्र और आरोग्य की प्राप्ति होती है. यही नहीं ऐसा भी कहा जाता है कि इस पर्व के प्रभाव से दरिद्रता का नाश होता है और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है. ऐसा माना जाता है कि अगर इस दिन कोई मनुष्य दुखी रहता है तो साल भर दुख उसे घेरे रहते हैं. इसलिए सभी को चाहिए कि वे भगवान श्रीकृष्ण के प्रिय अन्नकूट उत्सव को प्रसन्न मन से मनाएं. इस दिन भगवान कृष्ण को नाना प्रकार के पकवान और पके हुए चावल पर्वताकार में अर्पित किए जाते हैं. इसे छप्पन भोग की संज्ञा भी दी गई है. इसी दिन शाम को दैत्यराज बलि के पूजन का भी विधान है.