गोवा फिल्म फेस्टिवलः कार्ल मार्क्स के जवानी के दिन

भारत के 48वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह के विश्व सिनेमा खंड में दिखाई गई हैती के पूर्व संस्कृति मंत्री राउल पेक की फिल्म ‘दि यंग कार्ल मार्क्स’ उग्र राजनीतिक बहसों से भरी होने के बावजूद विलक्षण अभिनय और पटकथा के कारण अंत तक बांधे रखती है।  19 वीं सदी के मध्य में घटी कम्युनिज्म के जन्म की कहानी के केंद्र में कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगल्स की बेमिसाल दोस्ती है जिसने दुनिया का इतिहास बदल दिया। कहानी 1843 के मैनचेस्टर से शुरू होकर पेरिस और ब्रुसेल्स से होती हुई फरवरी 1848 के लंदन में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो के प्रकाशन तक जाती है। इस दिमागी पीरियड ड्रामा की गति इतनी तेज है कि एक क्षण के लिए भी हमारा ध्यान नहीं भटकता। हमारे अश्वेत निर्देशक राउल पेक ने किसी भी स्तर पर इतिहास से कोई समझौता नहीं किया है।

लेकिन यह देखना विस्मयकारी है कि अंतिम दृश्य में कास्ट एवं क्रेडिट के साथ उभरते मोंटाज में लेनिन और स्तालिन कहीं नही है जबकि चे ग्वेरा, नेल्सन मंडेला, बॉब डिलान, बर्लिन की दीवार का टूटना आदि को शामिल किया गया है। जर्मन अभिनेता अगस्त डायल ने युवा कार्ल मार्क्स की भूमिका में बेहतरीन स्वाभाविक अभिव्यक्तियों को संभव बनाया है जबकि फ्रेडरिक एंगल्स बने स्टीफन कोनार्स्क भी कोई कम नही हैं। इन दोनों की जोड़ी बार-बार फ्रांसुआ त्रूफो के ‘जुल्स एट जिम’ की याद दिलाती है । विक्की क्रिस्प ने मार्क्स की सुंदर पत्नी जेनी मार्क्स की भूमिका की है जबकि हन्ना स्टील वह मिल मजदूर मेरी बर्न्स बनी हैं जिससे फ्रेडरिक एंगल्स प्रेम करते हैं। यह फिल्म सचमुच उस जमाने की रैडिकल पॉलिटिक्स का अहसास कराती है।

किसी विचार को सिनेमा में बदलना बहुत मुश्किल होता है लेकिन राउल पेक ने बड़ी कुशलता से अमूर्त बहसों को सशक्त छवियों में बदला है । फिल्म की शुरुआत में हम देखते है कि एक जंगल मे कुछ मजलूम लोग रात के अंधेरे में जान बचाने के लिए भाग रहे होते हैं कि तभी हाथों में नंगी तलवारें लिए घोड़ों पर सवार सेना के जवान हमला कर देते हैं। वे लोगों की बर्बर हत्याएं करते हैं और एक मां किसी तरह अपने बच्चे को बचा लेती है। फिल्म में बार-बार कार्ल मार्क्स यह दृश्य सपनों में देख नींद से डरकर जग जाते हैं।

1843 के मैनचेस्टर मे फ्रेडरिक एंगल्स के पिता की कपड़ा मिल से एक मजदूर औरत विद्रोह करती है। उधर कई छोटे-बड़े काम करने के बाद कार्ल मार्क्स को पेरिस मे एक समाजवादी पत्रिका में संपादन का काम मिलता है । पेरिस के कैफे डे लॉ रीजेंस में 28 अगस्त 1844 को कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगल्स की हुई वह ऐतिहासिक मुलाकात अविस्मरणीय है। पेरिस के उस घर की कई आकर्षक छवियां फिल्म में है ( 38, रूई वन्यों ) जहां कार्ल मार्क्स अक्तूूबर 1843 से जनवरी 1845 तक रहे थे। जब उन्हे फ्रांस सरकार 24 घंटे के भीतर देश छोड़ने को कहती है तो वे ब्रुसेल्स में शरण लेते हैं जहां बाद में फ्रेडरिक एंगल्स भी पिता का घर छोड़कर आ जाते हैं। दोनों मिलकर जुलाई 1845 में लंदन आकर उस समय की ताकतवर साम्यवादी पार्टी ‘लीग आॅफ जस्ट’ (सोशलिस्ट फ्रैटरनीटी लीग) को कम्युनिस्ट लीग में बदलते हैं। अब जर्मन नागरिक कार्ल मार्क्स इंग्लैंड में शरणार्थी हैं क्योंकि उनके पास किसी देश की नागरिकता नहीं है। यहीं से दुनिया को बदलने के लिए ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ के जन्म की कहानी शुरू होती है।

युवा कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगल्स की इस कहानी में उनके जीवन के कई दिलचस्प और संघर्ष से जुड़े प्रसंग भी हैं। राउल पेक ने एक साधारण इंसान के रूप में भी उनकी दिनचर्या को दिखाया है जहां मार्क्स सस्ते सिगार के दीवाने हैं तो एंगल्स मजदूर बस्ती में छुपकर अपनी प्रेमिका से मिलने जाते हंै। राजनीति और अकादमिक जगत की छोटी – छोटी लड़ाइयां भी हैं। अंतिम दृश्य में हम देखते हैं कि प्रिंटिंग प्रेस में ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ छप रहा है और वायस ओवर में कार्ल मार्क्स उसे पढ़कर दुनिया को सुना रहे हैं। प्रतियोगिता खंड में ईरान के मोहम्मद रसूलौफ की ‘ए मैन आॅफ इन्टेग्रेटी’ दुनिया भर मे कारपोरेट कंपनियों के बढ़ते आतंक पर है जहां देशज लोगों की आजादी लगातार छीनी जा रही है। उत्तरी ईरान के एक गांव मे रजा अपनी पत्नी और बच्चे के साथ खुशहाल जीवन जी रहा है। वह मछली पालन करता है और उसकी पत्नी स्कूल टीचर है। एक बड़ी कंपनी अचानक वहां आती है और अपने मुनाफे के लिए सरकारी अफसरों से मिलकर किसानों की जमीन हड़पने लगती है। रजा के विरोध करने पर उसे चारों ओर से घेरकर मजबूर कर दिया जाता है। अब उसके सामने एक ही रास्ता बचता है कि स्थानीय माफिया से बदला लेकर आगे बढ़े।

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