चुनाव ही चुनाव
मुकेश भारद्वाज
भारत जैसे बहुसांस्कृतिक और बहुलतावादी देश में ‘सुधार’ एक ऐसा शब्द है जिसे सबसे ज्यादा मार पड़ती है। चुनाव सुधार भी एक ऐसा ही शब्द है जिसके इस्तेमाल के अपने खतरे हैं। लेकिन इसके विरोध के पहले उस खतरे को भी देखा जा सकता है कि जो पार्टी बढ़-चढ़ कर लोकसभा-विधानसभा से लेकर स्थानीय निकायों तक के चुनाव साथ करवाने की बात करती रही है उसके केंद्रीय शासन में हिमाचल और गुजरात के चुनाव एक साथ करवाने पर चुप्पी सध जाती है। जो चुनाव आयोग कहता है कि वह अगले साल लोकसभा और विधानसभा चुनाव साथ करवाने को सक्षम है वह इन दो राज्यों के चुनाव एक साथ करवाने में अक्षम हो जाता है। पिछले कई सालों से पूरा देश किसी न किसी तरह के चुनावों में ही उलझा रहता है और हमारे देश के अगुआ तक बिना कोई छुट्टी लिए अपनी पार्टी के लिए ही वोट मांगने में व्यस्त रहते हैं। चुनाव ही चुनाव वाले इस माहौल पर बेबाक बोल।
बारह अक्तूबर को एलान हो गया कि हिमाचल प्रदेश विधानसभा के लिए नौ नवंबर को मतदान होंगे। 16 अक्तूबर को अधिसूचना जारी होने के बाद एक पखवाड़े से ज्यादा समय के लिए फैसले लेने वाले सारे काम-काज ठप होंगे। इसके बाद मतगणना के लिए 18 दिसंबर का इंतजार कीजिए और तब तक गुजरात से नगाड़ा बज जाएगा। कौन बनेगा मुख्यमंत्री वाले प्रचार में केंद्रीय मंत्री से लेकर स्थानीय नेता डूब जाएंगे। मीडिया से लेकर गली के नुक्कड़ तक चुनावों का कानफोड़ू शोर होगा। हिमाचल को आचार संहिता में झोंक कर गुजरात में चुनावी वादों की दिवाली सेल लग गई। दो राज्यों के चुनावी नतीजों पर मीडिया का कारोबार शुरू हो जाएगा जो पूरे देश को समझाने में जुट जाएगा कि इन चुनावों का मोदी की साख या विपक्ष की नाक पर क्या असर होगा।
क्या हिमाचल प्रदेश और गुजरात के चुनाव साथ नहीं हो जाने चाहिए? इससे आगे की बात कि क्या लोकसभा, विधानसभा संग अन्य स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ नहीं हो जाने चाहिए? राममनोहर लोहिया ने कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करतीं। लेकिन पूरे पांच साल तक कहीं न कहीं चुनाव झेलने वाली कौमें जिंदा होने के सपनों में झोंके डाली जा रही हैं और सपना टूटते ही उनके हाथ में आता है एक और चुनाव। पिछले कुछ सालों से पूरा देश चुनाव प्रचार का ही झंडा उठाए रहता है। चुनाव ही चुनाव। आयोग प्रचार करता है कि हमारे यहां पांच सालों तक लगातार हर तरह के चुनाव कराए जाते हैं और हारने वाला खेमा कहता है कि ये तसल्लीबख्श नहीं हुए।
इसके पहले जरा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों को याद करें। डेढ़ महीने तक चली चुनाव प्रक्रिया ने पूरे सूबे के साथ दिल्ली से सटे इलाकों को भी हलकान कर दिया था। कभी छुट्टी न लेनेवाले प्रधानमंत्री से लेकर स्थानीय अफसर तक डेढ़ महीने तक चुनावी ड्यूटी बजाते रहे। इतनी लंबी प्रक्रिया के कारण पूरे चुनाव का अभूतपूर्व ध्रुवीकरण और संप्रदायीकरण हुआ। पहले चरण से शुरू होकर सातवें चरण तक पहुंचा चुनाव लोकतंत्र की धज्जियां उड़ा चुका था। पहले चरण में एक खास पक्ष को नुकसान होता दिखा तो उसने तुरंत अगले चरण के लिए रणनीति बदली और दूसरा खेमा उससे भी ज्यादा उग्र हुआ। गर्दभ गान से लेकर श्मशान-कब्रिस्तान तक चले मुद्दों ने गोरखपुर और उत्तर प्रदेश के अन्य इलाकों में कहर मचाने वाले दिमागी बुखार को मंगल ग्रह पर भेज दिया। सड़क, बिजली, पानी तो शायद अमेरिका और ब्रिटेन के चुनावों में मुद्दे बनते होंगे। उत्तर प्रदेश में तो डेढ़ महीने तक हिंदू-मुसलमान और यादव-जाटव चला।
बारहमासा चुनाव का असर यह भी होता है कि बाढ़ बिहार में आई है लेकिन पैकेज उस राज्य को दिया जा रहा है जहां चुनाव है। आप कश्मीर में बाढ़ के समय भी दिवाली मनाने इसलिए गए थे क्योंकि वहां चुनाव थे और चुनाव जीतते ही आप उसे पत्थरबाजी में उलझा कर दूसरे राज्य में चुनाव जीतने के लिए कूच कर गए। चुनाव जीतने के इस दौर में जनता कितनी हार रही है अब इस पर बात कर ही ली जाए।
चुनाव सुधार पर चली बात के लिए उत्तर प्रदेश पर इतना समर्पण इसलिए किया कि 2014 में इसी ने भाजपा की अगुआई वाले राजग को केंद्रीय सत्ता दिलाई थी। अगर 2014 में ही उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव भी हो गए होते तो सूबे की जनता डेढ़ महीने के लिए बंधक नहीं बना दी गई होती। सड़क-बिजली से लेकर नाली-खड़ंजे तक का काम नहीं रुका पड़ा होता। सड़क पर निकले लोगों को आचार संहिता के नाम पर इंस्पेक्टर राज का सामना नहीं करना पड़ता। और, सबसे ज्यादा खास बात यह है कि कभी छुट्टी न लेने वाले देश के प्रधानमंत्री को सूबे के गली-कूचे में अपने काम के अहम घंटे बर्बाद करने नहीं पड़ते। और न ही चुनाव प्रचार ‘गधे’ के स्तर पर उतरा होता।सोशल मीडिया से लैस कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैला हमारा देश राजनीतिक रूप से काफी जागरूक हो गया है। दिल्ली के राजौरी गार्डन में अरिवंद केजरीवाल की हार देश को एक संदेश देती है तो देश की राजधानी के बवाना से ही निकली चुनावी बात दूसरा संदेश और हमारे चुनावी विद्वान और मीडिया इससे वह भी संदेश निकाल देंगे जो जनता ने देना सोचा भी नहीं था। संदेश देने वाली जनता की हालत उस कवि की तरह हो जाती है जो वरिष्ठ आलोचकों की आलोचना पढ़ सोचने लगता है कि बाप रे, मैंने तो यह सोचा भी नहीं था। जो अपनी ही कविता से डरने लगेगा।
1967 में देश के आठ राज्यों में गैरकांग्रेसी सरकार बनने के बाद विधानसभा और लोकसभा चुनाव साथ नहीं हुए। इसके पहले 1951, 52, 57 और 62 में दोनों चुनाव साथ हुए थे। 1962 के बाद से राज्य सरकारों के गिरने और मध्यावधि चुनाव शुरू होने का जो सिलसिला शुरू हुआ आज तक बना हुआ है। चुनावों की लंबी प्रक्रिया, हिंसा और खर्च को देख कर एक बड़ा तबका चुनाव सुधारों की बात कर रहा है जिसमें बहुत से दलों की ‘हां’ तो कुछ दलों की ‘ना’ भी शामिल है। नीति आयोग से लेकर चुनाव आयोग तक दोनों चुनाव साथ कराने का प्रस्ताव दे चुके हैं।भारत जैसे दुनिया के बड़े लोकतांत्रिक देश में चुनाव कराना कितना खर्चीला और पेचीदा है इसके आंकड़े बारंबार हमारे सामने से गुजर चुके हैं। बीते लोकसभा चुनाव की ही बात करें तो 2014 के आम चुनाव में 3426 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। वहीं राजनीतिक दलों ने 2014 में अपने प्रचार अभियान में कुल 26,000 करोड़ रुपए खर्च किए। साल 2009 के लोकसभा चुनाव में सरकारी खजाने से 1483 करोड़ रुपए खर्च हुए थे।
खर्च के अलावा हम सब बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश और केरल के शिक्षकों के दर्द से वाकिफ हैं ही। पांच साल में न जाने कितनी बार इनके स्कूल और शिक्षा संस्थान मतदान केंद्रों में बदल जाते हैं और वे मतदान कर्मचारी। चुनावी प्रक्रिया का सबसे ज्यादा बोझ स्कूली शिक्षकों पर ही पड़ता है। अपनी जिस ऊर्जा को उन्हें बच्चों को बेहतर नागरिक बनाने पर खर्च करना था उस ऊर्जा को नागरिकों को समय-समय पर मतदान करवाने में झोंक दिया जाता है। बेचारे शिक्षक कम चुनाव कर्मचारी ज्यादा हो जाते हैं। वहीं, एक साथ चुनाव करवाने का सबसे बड़ा फायदा एक मदताता सूची के रूप में सामने आएगा। मतदाता सूची चुनावी प्रक्रिया का सबसे अहम हिस्सा है जो सबसे ज्यादा गड़बड़ियों की शिकार होती है। हर बार ऐसे कई उदाहरण सामने आते हैं जिसमें एक मतदाता ने लोकसभा चुनाव में तो वोट दिया लेकिन विधानसभा चुनाव में मतदाता सूची में नाम नहीं होने के कारण वोट देने से वंचित रह गया। कितने ही मतदाता मतदान केंद्रों से निराश होकर, बिना अंगुली में स्याही लगवाए, बिना वोट डाले लौटते हैं। इस तरह की कवायद पर बार-बार खर्च होने से पैसे सहित मानव संसाधन को बचाया जा सकता है।
भारत में चुनावों का संबंध हिंसा से भी रहा है। कई इलाके हिंसा की चपेट में होते हैं जिन्हें चुनाव के दौरान पूरी तरह सुरक्षाकर्मियों के हवाले करना पड़ता है। मतदाताओं से लेकर चुनावकर्मियों तक की सुरक्षा बड़ी चुनौती होती है। बार-बार चुनावों के कारण सुरक्षाकर्मियों पर भी ज्यादा बोझ पड़ता है और हिंसा की घटनाएं भी बढ़ती हैं। एक साथ चुनाव में इस समस्या पर भी बहुत हद तक काबू पाया जा सकता है।यह सही है कि लोकसभा, विधानसभा और अन्य स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ करवाने में चुनौतियां भी बड़ी हैं। कई विधानसभाओं का कार्यकाल पहले खत्म करने के लिए संविधान संशोधन से लेकर उपचुनाव और सरकार बदलने तक के सवाल हैं। ये चुनौतियां तभी कम होंगी जब हम एक-एक करके इनसे निपटना और इन्हें कम करना शुरू कर देंगे। चुनौतियों का पहाड़ खड़ा कर उसके पीछे छुप जाने की प्रवृत्ति से हम अपने लोकतंत्र का ही नुकसान कर रहे हैं।
भारत जैसे बहुलतावादी देश में सबसे ज्यादा मार सुधार शब्द पर ही पड़ती है। इस सुधार के इतने पाठ तैयार हो जाते हैं कि यह शब्द ही पाठ्यक्रम से उछल कर बाहर आ जाता है। इसकी परीक्षा में बैठने के पहले हर विद्यार्थी यही रोना रोता है कि हमारी तैयारी पूरी नहीं है। तैयारी और जिम्मेदारी के बीच सबसे बड़ा खलनायक यह सुधार ही करार दिया जाता है और वह खुद बहुत बीमार हो जाता है। जनता में राजनीतिक चेतना होनी चाहिए लेकिन सालों भर चुनाव होते रहने से पूरे देश की जनता किसी न किसी कैडर में बंट जाती है। उसका व्यवहार एक नागरिक की तरह नहीं रह जाता है। जब पूरी कौम ही सालों भर राजनीतिक कार्यकर्ता बनी रहेगी तो वह जिएगी कब। ऐसी बात कहने के अपने खतरे हैं लेकिन कहना जरूरी है। चुनाव सुधार पर बात करें और कौम को कम से कम पांच साल तक काम-काज करने दें।