विरोध के स्वर

राजनीति का सबसे विकृत रूप मौकापरस्ती है। यही वजह है कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने या वोटबैंक बढ़ाने के लिए पार्टी की अस्मिता को दांव पर लगाने में भी प्राय: संकोच नहीं किया जाता। गुजरात विधानसभा चुनाव के प्रचार-अभियान में राहुल गांधी का मंदिरों में पूजा-अर्चना करना और खुद को जनेऊधारी हिंदू घोषित करना बहुत लोगों को एक सही कदम लगा। पर कांग्रेस पार्टी की धर्मनिरपेक्ष छवि पर इसे एक प्रहार ही कहा जाना चाहिए। अब राजस्थान के चुनावों को लेकर फिर ऐसे ही संकेत मिलने लगे हैं। बेहतर होगा यदि राहुल गांधी अब अपनी पार्टी की उन कमियों को दूर करने की बात करें, जिन्हें वे बर्कले विश्वविद्यालय में या उसके बाद भी अपने कुछ भाषणों में खुलेआम स्वीकार कर चुके हैं।
सस्ती लोकप्रियता के प्रति अनासक्त शिवसेना का रवैया मुझे इस दृष्टि से सही लगता है। हालांकि हिंदुत्व वाले एजेंडे के कारण वैचारिक तालमेल कभी नहीं रहा, पर इनकी बेबाकी की मैं कायल रही हूं।

भाजपा के सत्ता में आने के बाद से, उसकी एक सहयोगी पार्टी हो जाने के बावजूद शिवसेना जब-तब भाजपा की नीतियों के प्रति अपने विरोध के स्वर को मुखर करती रही है। काफी पहले भाजपा ने दावा किया था कि मोदीजी अब तक के सर्वाधिक लोकप्रिय प्रधानमंत्री हुए हैं। तब कांग्रेस की विरोधी पार्टी होने के बावजूद शिवसेना ने यह कह कर भाजपा के दावे को खारिज किया था कि लोकप्रियता में नेहरूजी, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी भी अपने-अपने समय में मोदीजी से कम नहीं थे। शिवसेना की साफगोई के ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ जज साहिबान द्वारा प्रेस कॉन्फ्रेंस किए जाने पर, मुख्य न्यायाधीश के विरुद्ध प्रतिक्रिया देकर भी शिवसेना ने अपनी बेबाकी का परिचय दिया है।
’शोभना विज, पटियाला

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