चौपालः संकट की खेती
पिछले सात दशक से किसानों को इंतजार है ऐसी सरकार का जो उनके मर्ज का इलाज करे, लक्षणों का नहीं। देशभर में जो लोग किसानों के विरोध की लहर को खारिज करते हैं उन्हें सबसे पहले भारतीय किसानों के जटिल अर्थशास्त्र को समझना चाहिए। भारत में अधिकतर किसान आपदा के एक ऐसे अशांत समुद्र में तैरते हैं, जहां उन्हें कोई सुरक्षा उपलब्ध नहीं है। भारत में आये दिन किसानों की आत्महत्याओं पर चर्चा होती है। किसान हताशा में नया नेता खोज रहे हैं जिस पर भरोसा कर सकें। उनकी कर्ज माफी की मांग भी उचित है। उनकी फसल केवल सूखे या बाढ़ से ही प्रभावित नहीं होती है बल्कि बेमौसम वर्षा भी खड़ी फसल को नष्ट कर देती है। इसमें सिंचाई कुछ राहत प्रदान कर सकती है। यह भी कृषि पैदावार से जुड़े जोखिमों से पूरी तरह निजात नहीं दिला सकती है। दूसरा संकट उपज की कीमतों को लेकर है। यदि पैदावार अधिक होती है तो थोक बाजारों में अनाज की कीमतें गिर जाती हैं। किसान इस संकट के जाल में फंस जाता है और आत्महत्या का रास्ता अपनाता है।
सरकार किसानों के लिए कई योजनाएं चला रही है लेकिन वे उनका लाभ प्राप्त नहीं कर पाते हैं। किसान अशिक्षित होने के कारण बैंक के नियमों को नहीं समझ पाता और बैंक से ऋण लेने में असमर्थता महसूस करता है। वह साहूकार से ऋण लेता है और उसका भुगतान अधिक ब्याज दर पर करता है। इस तरह उस पर ऋण का बोझ बढ़ता जाता है। सरकार और विशेषज्ञ कहते हैं कि कम उत्पादकता के कारण किसानों की आत्महत्याएं बढ़ रही हैं। लेकिन किसान अच्छी तरह जानता है कि दिक्कत क्या है। न्यूनतम समर्थन मूल्य को मूल रूप से गारंटीकृत कीमतों के जरिए जोखिम को कम करने का एक तरीका माना गया था। अब यह किसानों का राजनीतिक समर्थन प्राप्त करने का जरिया बन गया है और किसानों की आत्महत्या एक राजनीतिक मुद्दा हो गई है। संसद में कई बार नेता किसानों की कर्ज माफी का मुद्दा उठाते हैं, उस पर चर्चा भी होती है लेकिन समाधान कुछ नहीं होता है।