सदन का समय

जनता की आकांक्षाओं और उम्मीदों का सर्वोच्च मंच यानी संसद गंभीर विषयों पर सार्थक बहस के बजाय अब हंगामे और हो-हल्ले के लिए ही अधिक सुर्खियों में रहने लगी है। इस शीतकालीन सत्र में भी राजनीतिक दल गरीबी, भुखमरी, कृषि संकट और बेरोजगारी जैसे गंभीर मसलों पर सार्थक बहस करने के बजाय आपस में तनातनी करने में तुले हैं। संसद में शोर-शराबा, वेल में जाकर नारेबाजी, एक-दूसरे पर निजी कटाक्ष जैसे आचरण अब सामान्य होते जा रहे हैं। यह आम जनभावना के खिलाफ है, क्योंकि लोग संसद में सार्थक बहस और विधायी कार्यों को सुचारु रूप से निपटाए जाने की अपेक्षा रखते हैं। लेकिन संसद में व्यवधान की राजनीति ज्यादा होने लगी है।

किसी भी संसद के लिए बहस उसका दिल होता है, लेकिन हालिया अध्ययन के मुताबिक पिछले दस वर्षों में सैंतालीस फीसद विधेयक बिना बहस के ही पारित कर दिए गए। इकतीस फीसद विधेयक तो ऐसे पारित हुए, जिसकी संसदीय समिति में भी समीक्षा नहीं हुई। संसदीय कार्यवाही किसी भी लोकतंत्र की साख का प्रतीक मानी जाती है। लेकिन संसदीय कार्यवाही के दिनों की संख्या में कमी के साथ गुणवत्ता में भारी गिरावट आई है। संसद का सत्र पिछले एक दशक में हर साल औसतन 64 से 67 दिन ही चला। जबकि 1952 से 1972 तक हर साल संसद की 128 से 130 बैठकें होती थीं। कई राज्यों की विधानसभाएं तो अब साल में 10-15 दिन चलने लगी है। आज स्थिति यह है कि शायद ही किसी विधानसभा में कभी कोई गंभीर चर्चा होती हो।

विधायिका के गिरते स्तर, बैठकों की घटती संख्या, कम होता अनुशासन और घटती गरिमा के चलते जनता का विश्वास संसद के प्रति दिनोंदिन कम होता जा रहा है। वक्त की मांग है कि संसद के नए सदस्यों को गंभीर प्रशिक्षण दिया जाए, ताकि वे संसद की जटिल प्रक्रिया, नियमों और संसदीय परंपराओं से अवगत हो सकें। साथ ही हंगामा करने और लगातार गैरहाजिर रहने वाले सांसदों का वेतन काटा जाना चाहिए, क्योंकि संसद की एक मिनट की कार्यवाही पर ढाई लाख रुपए और एक दिन की सामान्य कार्यवाही पर औसतन छह करोड़ रुपए का खर्च आता है, जो आम जनता की गाढ़ी कमाई का होता है। राज्यसभा के ढांचे में भी बदलाव की जरूरत है। चुनाव में हारे नेताओं, सत्ता पक्ष के पिछलग्गुओं और बड़े कारोबारियों की राज्यसभा शरणस्थली बन कर न रह जाए, इसके लिए राज्यसभा का सदस्य होने के लिए किसी क्षेत्र विशेष का विशेषज्ञ, अनुभव और ज्ञान को योग्यता का आधार बनाना होगा।
’कैलाश मांजू बिश्नोई, मुखर्जीनगर, नई दिल्ली

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