तिरुपति बालाजी मंदिर: भगवान वेंकटेश्वर के माथे पर है चोट का निशान, आज भी ढका है सिर, हर शुक्रवार होती है मरहम

भारत के सबसे प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक तिरुपति बालाजी मंदिर की बहुत मान्यता है। इस मंदिर से जुड़ी आस्था, प्यार और रहस्य की वजह से लाखों लोगों की भीड़ यहां खिची चली आती है। आइए आज हम आपको तिरुपति बालाजी मंदिर से जुड़े कुछ रोचक बातों से रूबरू कराते हैं। वेंकटेश्वर, एक ऐसे भगवान जिन्होंने लोगों को बचाने और उनकी परेशानियों का निपटारा करने के लिए कलयुग में जन्म लिया था। वेंकटेश्वर को भगवान विष्णु का अवतार भी माना जाता है। कहा जाता है कि भगवान वेंकेटश्वर तब तक रहेंगे जब तक इस धरती यानी कलयुग का अंत नहीं हो जाता। लेकिन कलयुग का अंत करेगा कौन? कहते हैं जब जब कलयुग में पाप बढ़ता है उसका अंत होता है और दोबारा एक नए युग का निर्माण होता है, आप सभी ने ये कभी न कभी सुना ही होगा। आइए आज हम बताते हैं ऐसा क्यों कहा जाता है।

दरअसल जहां वेंकटेश्वर को कलयुग में दुख हरता के रूप में माना जाता है वही भगवान विष्णु के दूसरे अवतार कल्कि के बारे में मान्यता है कि उनका जन्म कलयुग को खत्म करने के लिए होगा। और धरती पर सब कुछ खत्म हो जाएगा, इसलिए तिरुपति बालाजी मंदिर को कलयुग के वैकुंठ और कलयुग प्रत्यक्ष दिव्यं के नाम से भी जाना जाता है। साथ ही भगवान वेंकटेश्वर को कलयुग प्रत्यक्ष दिव्यं, गोविंदा, बालाजी, और श्रीनीवासा नाम से भी जाना जाता है।

विश्व प्रसिद्ध तिरुपति बाला जी का मंदिर, भारत में आंध्रप्रदेश के चित्तूर जिले तिरूमाला पहाड़ियों की सातवीं चोटी पर स्थापित है। इस चोटी को वेंकटाद्री के नाम से भी जाना जाता है। यह शेषचलम पहाड़ियों की एक किस्म है, यह 7 पहाड़ियों की एक श्रृंखला है जो अडिशैया के 7 प्रमुखों (भगवान विष्णु के नाग प्रकट) को दर्शाती है। यह मंदिर कई शताब्दी पहले बनाया गया था। मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला एवं शिल्पकला का अद्भूत उदाहरण है। कहते हैं कि यह मंदिर पांचवी शताब्दी से भी पहले का है। आज भी तिरुपति बालाजी मंदिर से जुड़ी दो कहानी सबसे ज्यादा फेमस हैं, वेंकटचल महात्म्य और वरहा पुराण इन दो कहानियों से पता चलता है कि तिरुमला की भूमि भगवान विष्णु के अवतार द्वारा व्याप्त थी।

भगवान विष्णु का वराहा अवतार
धरती का उद्धार करने के लिए भगवान विष्णु ने वरहा रूप में अवतार लिया था। शास्त्रों के अनुसार भगवान के वैकुंठधाम में जय और विजय नामक दो द्वारपाल थे जो वहां भगवान लक्ष्मी नारायण जी की सेवा करते थे। एक बार सनकादि मुनिश्वर जब वैकुंठधाम में भगवान लक्ष्मी जी और विष्णु जी से मिलने के लिए गए तो जय और विजय के असुरी स्वभाव को देखते हुए उन्होंने उनके साथ उचित व्यवहार नहीं किया, जिस कारण चारों सनकादिक भाइयों ने उन्हें पृथ्वी पर जाकर असुर बनने का श्राप दे दिया।

उसी के प्रभाव से दिति के गर्भ से जय और विजय ने जन्म लिया उनका नाम प्रजापति कश्यप ने हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष रखा। दोनों भाइयों ने कठिन तपस्या करके ब्रह्म जी से अलग-अलग वरदान पाए। हिरण्यकश्यप ने अनेक शर्तें रखकर ब्रह्मा जी से न मरने का वरदान प्राप्त किया। उसे मारने के लिए भगवान ने नृसिंह अवतार लिया तथा उसे उसके दिए हुए वचन के अनुसार ही मारा। दूसरे भाई हिरण्याक्ष को मारने के लिए भगवान ने वराह अवतार लिया। हिरण्याक्ष ने जब दिग्विजय की तो उसने सारी पृथ्वी को जीत लिया, वह पृथ्वी को उठाकर समुद्र में ले गया था। पृथ्वी को दैत्य से मुक्ति दिलवाने के लिए भगवान ने वराह अवतार लिया। उन्होंने एक झटके से हिरण्याक्ष को अपनी दाढ़ पर उठा लिया और घुमाकर आकाश में दूर फेंक दिया। आकाश में चक्कर काटकर वह धड़ाम से पृथ्वी पर वाराह के पास ही गिर पड़ा। मरणासन्न हिरण्याक्ष ने देखा कि वह वाराह अब वाराह न होकर भगवान विष्णु है।

जब ऋषि भृगु ने विष्णु भगवान के सीने पर मार दी थी लात
कलयुग की शुरुआत में जब भगवान वरहा वैकुंठ चले गए थे। लेकिन ब्रह्मा धरती पर विष्णु भगवान को चाहते थे। जिसके लिए नारद मुनी को कोई युक्ति सोचने के लिए कहा गया। नारद मुनी ने गंगा के तट पर यज्ञ की तैयारी में जुटे जब बेहतर ब्रह्मांड की खातिर ऋषि मुनियों ने एक यज्ञ शुरु किया था। लेकिन सवाल ये था कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश में उस यज्ञ का पुरोहित किसे बनाया जाए। सभी ऋषि मुनियों ने ये जिम्मेदारी भृगु ऋषि को सौंपी क्योंकि वही देवताओं की परीक्षा देने का साहस कर सकते थे।

भृगु ऋषि भगवान ब्रह्मा के पास पहुंचे। लेकिन भगवान ब्रह्मा वीणा की धुन में लीन थे। उन्होंने भृगु ऋषि की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। भृगु ऋषि की अगली मंजिल थी महादेव का दरबार, लेकिन उस वक्त भगवान शंकर भी मां पार्वती से बातचीत में खोए हुए थे और उनकी नजर भी भृगु ऋषि पर नहीं पड़ी। ऋषि भृगु फिर नाराज होकर वहां से भी चले गए। अब बारी थी भगवान विष्णु की, जो उस वक्त आराम कर रहे थे। भृगु ऋषि ने वैकुंठ धाम में भगवान विष्णु को कई आवाजें दीं। लेकिन भगवान ने कोई जवाब नहीं दिया। गुस्से में आकर भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु के सीने पर लात मार दी। इसके बाद भगवान विष्णु ने भृगु ऋषि को गुस्से में आग बबुला देखा तो उनका पैर पकड़ लिया और मालिश करते हुए पूछा कि कही आपको चोट तो नहीं लगी। यह देखकर भृगु ऋषि को अपना उत्तर मिल गया और उन्होंने यज्ञ का पुरोहित भगवान विष्णु को बना दिया।

जब माता लक्ष्मी ने छोड़ दिया वैकुंठ
भृगु ऋषि के भगवान विष्णु के सीने पर लात मारने पर माता लक्ष्मी नाराज हो गई थीं। माता चाहती थीं कि भगवान विष्णु भृगु ऋषि को दंड दें लेकिन विष्णु भगवान ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया। जिसकी वजह से माता लक्ष्मी ने वैकुंठ छोड़ दिया और तपस्या करने के लिए धरती पर करवीपुर (जिसे अब महाराष्ट्र के कोलहापुर के नाम से जाना जाता है) आ गईं।

जब भगवान विष्णु ने छोड़ दिया था वैकुंठ
माता लक्ष्मी के वैकुंठ से चले जाने के बाद भगवान विष्णु भी उन्हें ढूंढने के लिए वैंकुठ छोड़कर धरती पर आ गए। उन्होंने माता को जंगलों और पहाड़ियों पर ढूंढा लेकिन माता लक्ष्मी कही नहीं मिलीं। बाद में भागवान विष्णु एक पहाड़ी पर रहने लगे जिसे आज वेंकटाद्री के नाम से जाना जाता है।

जब ब्रह्मा बने गाय और भगवान शिव बने बछड़ा
माता लक्ष्मी को ढूंढने के लिए भगवान विष्णु की मदद करने के लिए ब्रह्माजी और शिवजी ने गाय और बछड़े का रूप धारण कर धरती पर आ पहुंचे। यह गाय चोल वंश के राजा के पास थी। लेकिन एक रोज उस गाय ने दूध देना बंद कर दिया। पौराणिक कहानियों के मुताबिक वो गाय एक पहाड़ी पर जाकर अपना सारा दूध भगवान विष्णु को पिला देती थी।

कैसे आया भगवान वेंकटेश्वर के माथे पर चोट का निशान?
गाय के दूध न देने पर रानी का गुस्सा फूट पड़ा। उसने एक संतरी को गाय पर नजर रखने को कहा। संतरी ने सबकुछ देख लिया और गुस्से में आकर उसने गाय की तरफ कुल्हाडी फेंकी। लेकिन तभी भगवान विष्णु प्रकट हुए और वो कुल्हाडी उनकी माथे पर लगी। कुल्हाड़ी से लगी उस चोट का निशान आज भी भगवान वेंकटेश्वर की मूर्तियों में कायम हैं। कहते हैं इसीलिए तिरुपति बालाजी में मौजूद मूर्ति में भगवान का सिर ढका है। आज भी हर शुक्रवार को बाकायदा मरहम के जरिए भगवान का उपचार करने की परम्मरा कायम है।

भगवान विष्णु का श्राप
भगवान विष्णु को संतरी की कुल्हाडी लगने के बाद, इस करतूत पर भगवान विष्णु ने राजा को श्राप दिया। लेकिन माफी मांगने के बाद भगवान ने राजा को माफ भी कर दिया और एक वरदान दिया कि अगले जन्म में अकसा के राजा के रूप में पैदा होगा। उसकी एक पुत्री होगी, जिसका नाम होगा पद्मावती और राजा को पद्मावती की शादी, वेंकटेश्वर से करानी होगी।

 

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