दलित की दुनिया

संविधान से मिले समानता के अधिकारों, विशेष अवसर के प्रावधानों और राजनीतिक जागरूकता ने दलितों के अपने हितों के लिए एकजुट होने और लड़ने में अहम भूमिका निभाई है। प्रशासन तथा शैक्षिक संस्थानों से लेकर जीवन के अनेक क्षेत्रों में आज दलितों की उपस्थिति किसी हद तक हर तरफ दिखाई देती है। पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि आज भी दलितों की अधिकांश या बहुत बड़ी आबादी उस अपमान और उत्पीड़न को झेल रही है जिसे वह सदियों से झेलती आई है। यह सच्चाई रोज अनगिनत रूपों में व्यक्त होती होगी, पर काफी लोगों का ध्यान तभी जाता है जब कोई सुर्खी बनती है। जैसे गुजरात के उना कांड ने देश भर का ध्यान खींचा था। एक बार फिर गुजरात से दलितों के उत्पीड़न की शर्मसार कर देने वाली खबर आई है। राज्य के आणंद जिले में गरबा के एक आयोजन में शामिल होने पर एक सवर्ण जाति के कुछ लोगों ने इक्कीस वर्षीय दलित युवक को पीट-पीट कर मार डाला। रविवार तड़के हुई इस हत्या के सिलसिले में पुलिस ने आठ लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया है। पुलिस में दर्ज शिकायत के मुताबिक मारा गया युवक, उसका एक रिश्तेदार और दो अन्य दलित युवक भद्रानिया गांव में एक मंदिर के बगल में स्थित घर के पास बैठे थे। तभी एक शख्स ने उनकी जाति के बारे में अपमानजनक टिप्पणी की। साथ ही आरोपी ने कहा कि दलितों को गरबा देखने का हक नहीं है।

यही नहीं, उसने अपने समुदाय के कुछ लोगों को साथ आने के लिए ललकारा, और अंत में इस घटनाक्रम की परिणति हत्या में हुई। बेशक, अपमान और उत्पीड़न की सारी घटनाएं इस हद तक नहीं जातीं, पर वे इतनी गंभीर जरूर होती हैं कि समानता और भाईचारे में यकीन रखने वाले हर व्यक्ति को झकझोर कर रख दें। आणंद के भद्रानिया गांव में हुई घटना के साथ गुजरात की ही एक और घटना को लें। गांधीनगर के पास एक गांव में दो अलग-अलग घटनाओं में ‘मूंछ रखने को लेकर’ एक सवर्ण समुदाय के लोगों ने दो दलित व्यक्तियों की पिटाई कर दी। यह कैसा भारत बन रहा है? फिर, यह कैसा गुजरात है, जिसके विकास मॉडल पर कुछ बरसों से जब-तब बहस चलती रही है? क्या विकास का मतलब बस यही कुछ होता है- फ्लाइओवर, बड़े बांध, विदेशी निवेश आदि,या सौहार्द तथा सामाजिक समता भी इसकी कसौटी है? और इस कसौटी पर गुजरात कहां ठहरता है?

गुजरात विकास के मॉडल के अलावा लंबे समय से हिंदुत्व की प्रयोगशाला के लिए भी चर्चा में रहा है। क्या यही हिंदुत्व का प्रयोग है, या यही उसका हासिल है कि दलित अपने को सुरक्षित महसूस नहीं कर पा रहे हैं? यों किसी दलित के घोड़े पर चढ़ कर विवाह के लिए जाने पर सवर्णों का कोपभाजन बनने या किसी दलित सरपंच को स्वाधीनता दिवस या गणतंत्र दिवस पर झंडा न फहराने देने जैसे वाकये तमाम राज्यों में हुए हैं। पर सवाल है कि ऐसे कथित विकास को हम विकास क्यों कहें, जिसमें समाज के कमजोर तबके संविधान से मिले अपने नागरिक अधिकारों और न्यूनतम मानवीय गरिमा का भी अहसास न कर पाएं!

 

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