दिल ढूंड़ता है…

करीब एक दशक पहले तक लगभग सभी बड़े शहरों में साहित्यकारों, संस्कृतिकर्मियों के बैठने के अड्डे हुआ करते थे, जहां वे शाम को या फुरसत के क्षणों में बैठ कर देश-दुनिया के तमाम मसलों पर बहसते-बतियाते, कुछ नया रचने की ऊर्जा पाते रहते थे। इन अड्डों में टी हाउस और कॉफी हाउस प्रमुख थे। मगर अब वे अड्डे उजड़ते गए हैं। अब नए रचनाकार, संस्कृतिकर्मी इन अड्डों का रुख नहीं करते। इनकी जगह अब जो नए अड्डे बन रहे हैं या बन गए हैं, उनकी आबो-हवा अलग है। वहां कॉफी हाउस या टी हाउस जैसी साहित्यिक-सांस्कृतिक आपसदारी नहीं दिखती। बैठकी के पुराने अड्डों के उजड़ने की वजहों और वर्तमान परिदृश्य के बारे में चर्चा कर रहे हैं सुधांशु गुप्त। 

इंसान अपने लिए मकान तो बना लेता है और उसे घर में भी तब्दील कर देता है। मगर एक ऐसा घर भी दिल्ली शहर में रहा है, जहां कहानियां, कविताएं और विचार रहा करते थे। हर उम्र और सोच के रचनाकारों का मुख्य घर यही था। वहां अजनबियत का नामो-निशान नहीं था। लगभग सभी एक-दूसरे से वाकिफ होते थे। अगर कुछ नए मेहमान आते भी तो वे भी जल्द ही इस घर में घुल-मिल जाया करते थे। यह ऐसा घर था, जहां कहानियां जन्म लेतीं, कविताएं परिपक्व होतीं और विचार बहस-मुबाहिसों पर अपनी धार तेज करते। यहां हंसी थी, ठहाके थे, शरारतें थीं, बदमाशियां थीं, एक-दूसरे को आगे बढ़ाने और गिराने के मित्रवत षड्यंत्र थे। राजनीति थी, समाज था, दर्शन था, पेंटिंग्स थी, प्रेम था, उदासी थी, गरीबी थी, शोषण से मुक्ति के रास्ते थे, कहानी और कविता की दुनिया में बदलाव की जिद और जुनून था। यही ऐसा घर था जहां से उठ कर साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक जागरूकता की लौ पूरे समाज में फैलती थी। यह देश की राजधानी दिल्ली के टी हाउस और कॉफी हाउस की दुनिया थी।

टी हाउस कनॉट प्लेस में रीगल बिल्डिंग के पार्लियामेंट स्ट्रीट वाले नुक्कड़ पर आबाद था, तो कॉफी हाउस मोहन सिंह प्लेस के ऊपर स्थित था। पहले टी हाउस में न जाने कितनी ही साहित्यिक अनौपचारिक बैठकें होती रहीं। उस दौर में दिल्ली का शायद ही कोई ऐसा साहित्यकार रहा होगा, जिसने खुद को टी हाउस जाने से वंचित रखा हो। यशपाल, अज्ञेय, राजेंद्र सिंह बेदी, रमेश बक्षी, राजकमल चौधरी, भारत भूषण अग्रवाल, सपत्नीक भीष्म साहनी, नामवर सिंह, दूधनाथ सिंह, विष्णु प्रभाकर, राजीव सक्सेना, मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, गंगाप्रसाद विमल, भीमसेन त्यागी, हरिप्रकाश त्यागी, बलराज मेनरा और रविंद्र कालिया। नाम और भी हैं। कहानी और कविता पढ़ना, सुनना और फिर उस पर विचार करना एजंडा होता था।

टी हाउस का राजनीति से कोई मतभेद नहीं था। यही वजह रही कि संसद के अधिवेशन के समय राममनोहर लोहिया भी टी हाउस आना नहीं भूलते थे। आपसी संवाद और सार्थक विवाद के लिए टी हाउस एक मुफीद जगह थी। टी हाउस को लेकर अलग धारणाएं थीं। रविंद्र कालिया ने ‘गालिब छुटी शराब’ में लिखा है, ‘मेरा एक दोस्त हमदम टी-हाउस पर एक पेंटिंग बनाना चाहता था। उसका विचार था कि टी हाउस के चरित्र का सबसे प्रमुख तत्त्व शोर है और शोर को रेखाओं में बांधना मुश्किल काम है, खासकर उस शोर को, जिसकी ध्वनियां अलग-अलग न की जा सकें, जो मछली बाजार या सट्टा बाजार के शोर से साम्य रखते हुए भी भिन्न हो। टी हाउस के एक पुराने पापी ने सुझाया कि टी हाउस का सही चित्रण पेश करना हो तो उसकी छत पर गिद्धों, चीलों और छिपकलियों, कौओं आदि को लटकते हुए दिखाया जा सकता है। एक अन्य अनुभवी व्यक्ति ने सुझाया कि टी हाउस के शोर को कहानी-बम के विस्फोट में पकड़ा जा सकता है। मुद्राराक्षस का कहना था कि कौन कहता है कि टी हाउस में शोर होता है, टी हाउस में तो मौत का-सा सन्नाटा रहता है। लेकिन टी हाउस में नियमित रूप से आने वाले बलराज मेनरा ने पेरिस के कुछ कॉफी हाउसों का हवाला देते हुए सवाल किया, यह शोर बड़ा मानीखेज है। सार्त्र इसी शोर की पैदावार हैं और अगर किसी ने कामू को कॉफी हाउस में बोलते नहीं सुना तो कुछ नहीं सुना।’

भीमसेन त्यागी ने एक बार टी हाउस के बारे में लिखा था, यहां भांति-भांति के देवपुरुष आते। इनमें आदिदेव शंकर नहीं, विष्णु जी यानी विष्णु प्रभाकर अवश्य आते। वे जन्म से टी हाउस में बैठे दिखाई पड़ते। शाम होते ही विष्णु जी अपने निवास अजमेरी गेट से टी हाउस का रुख करते और खरामा-खरामा मंजिल की ओर पहुंच जाते। आंधी या तूफान भी विष्णु जी को नहीं रोक पाते। अगर किसी शाम विष्णु जी टी हाउस में दिखाई न दें तो यह मान लिया जाता कि गंगा यमुना के नैहर में या आवारा मसीहा की शोध के सिलसिले में बंगाल या बर्मा की यात्रा पर हैं। खादी के कुरते-पायजामे, बंडी और कलफ लगी नुकील टोपी में विष्णु जी अलग से पहचाने जा सकते थे। वे कभी किसी को यह अहसास नहीं होने देते कि वह उनसे छोटा है। गंभीरता उनका प्रिय आवरण था। वह न ठहाकों में शामिल होते और न टी हाउस के शोर में।

मगर यह शोर केवल दिल्ली के साहित्यकारों और रचनाकारों का शोर नहीं था। यह ऐसा शोर था, जिसकी सहमतियां और असहमतियां देश के हर हिस्से तक पहुंचती थीं। लेकिन असहमतियों के बावजूद टी हाउस की ध्वनियां देश को एक सूत्र में पिरोती जान पड़ती थीं। टी हाउस अगर इस शोर का मुख्यालय था, तो इसकी शाखाएं अलग-अलग ठिकानों, कॉफी हाउसों और रेस्तरांओं के रूप में फैली हुई थीं। हर जगह बस किरदार बदल रहे थे।
लखनऊ के हजरतगंज में इलाहबाद बैंक के सामने बने कॉफी हाउस में अमृतलाल नागर से लेकर श्रीलाल शुक्ल तक वर्तमान और भविष्य के साहित्य पर चर्चा कर रहे थे, तो इलाहबाद में लोकभारती प्रकाशन के पास महात्मा गांधी रोड पर अन्य साहित्यकार अपने विचारों और साहित्यिक रचनाओं से इस शोर में हस्तक्षेप कर रहे थे। जबलपुर, देहरादून का डिलाइट रेस्तरां, पटना का कॉफी हाउस और अन्य ठिकाने, हिमाचल प्रदेश में शिमला और हमीरपुर और खुमचुटी के कॉफी हाउसों की अपनी-अपनी बैठकों में रचनाकार साहित्य जगत की यात्राओं के गवाह बन रहे थे। आश्चर्य की बात है कि इन ठिकानों पर केवल साहित्यकार और पत्रकार, समाजसेवी, चित्रकार शिरकत नहीं करते थे, बल्कि यही वे जगहें हैं जहां कभी जयप्रकाश नारायण, मधु लिमये, पूर्व प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल और चंद्रशेखर, हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह जैसे नेतागण भी शिरकत करते रहे हैं। पुराने लोगों की जेहन में आज भी इनकी स्मृतियां दर्ज हैं और वे इन ठिकानों को शिद्दत से याद करते हैं।

इलाहाबाद के कॉफी हाउस में फिराक गोरखपुरी से लेकर जगदीश गुप्त, रामकुमार वर्मा और उसके बाद की पीढ़ियां अमरकांत, शेखर जोशी, भौरव गुप्त, दूधनाथ सिंह आदि तक बैठकी करते और साहित्य-संस्कृति के बहसों को आगे बढ़ाया करते थे। वहीं से साहित्य और कलाओं की दुनिया में अनेक वैचारिक आंदोलनों ने जन्म लिया। फिराक गोरखपुरी के कॉफी हाउस में बैठने और बतियाने के अनेक किस्से लोग बड़े चाव से सुनाते-सुनते हैं। पर अब उस कॉफी हाउस की वह रौनक नहीं रही।

साहित्यकार सुरेश उनियाल बताते हैं कि आपातकाल से पहले देहरादून में डिलाइट नाम से एक रेस्तरां हुआ करता था। वहां साहित्यकारों और पत्रकारों की महफिल जमती थी। लंबे अरसे तक वही हम लोगों के बैठने का ठिकाना हुआ करता था, लेकिन जब आपातकाल के बाद वह बंद हुआ तो डिलाइट की रसोई में ही काम करने वाले एक व्यक्ति को रसोई का सारा सामान दिलवा कर उसे एक दुकान दिलवा दी गई। इस तरह एक नया ठिकाना बना।
दरअसल विभिन्न शहरों में कॉफी हाउसों की रौनक इसलिए भी जाती रही कि पहले इन कॉफी हाउसों का संचालन कॉफी बोर्ड किया करता था, जिसमें लाल अचकन और सिर पर कलगीदार पगड़ी पहने बेयरे उसकी पहचान हुआ करते थे। कॉफी बोर्ड बंद हुआ तो इन कॉफी हाउसों का संचालन भी प्रभावित हुआ। उसके समांतर पर्यटन विकास मंत्रालय ने नए ढंग के कॉफी हाउस चलाने श्खाुरू कर दिए. मगर पुराने कॉफी हाउसों की संस्कृति उनमें नहीं दिखती। इसलिए साहित्यकारों-संस्कृतिकर्मियों ने ठिकाने बदल लिए।

ठिकाना बदला, लोग बदले और लोगों का मिजाज भी बदलता गया। दिल्ली ने करवट ली तो ठिकाने भी करवट लेने लगे। टी हाउस की जगह मोहन सिंह प्लेस के ऊपर कॉफी हाउस ने ले ली। लेकिन जिस तरह घर बदलने से थोड़ा-बहुत सामान इधर-उधर हो जाता है, ठीक उसी तरह मोहन सिंह प्लेस के ऊपर बने कॉफी हाउस में भी हुआ। बहुत से लोग टी हाउस के साथ छूट गए, बहुत-सा शोर अपनी पहचान तलाशने के लिए दूसरी जगह जाकर खो गया। लेकिन थोड़ी-बहुत कशिश जिनके भीतर बची रही, उन्होंने अपना रुख कॉफी हाउस की ओर कर लिया। मोहन सिंह प्लेस का कॉफी हाउस भी लंबे समय तक गुलजार रहा। साहित्यकार, पत्रकार, चित्रकार और नेता लोग भी यहां आकर बैठते रहे। लेकिन चीजें बदलने लगी थीं-धीरे-धीरे। कॉफी हाउस का शोर रफ्ता-रफ्ता साहित्यिक शोर नहीं रह गया था। अब इस शोर में व्यापार, नफा-नुकसान और गणित शामिल हो गया था।
दिल्ली शहर पसर रहा था और इंसान सिकुड़ता जा रहा था। लेकिन इस सबके बावजूद मोहन सिंह प्लेस ने अपनी साहित्यिक छवि बनाए रखी। मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेंद्र यादव समेत, शेरजंग गर्ग, बालस्वरूप राही और हां, विष्णु प्रभाकर यहां आते रहे। बैठकें होती रहीं, वाद-विवाद होते रहे। मोहन सिंह प्लेस के भी अनेक किस्से साहित्यकारों के जेहन में दर्ज हैं।

माहौल बदलने के अपने कारण भी हैं। दिल्ली में लोगों की प्राथमिकताएं बदल रही थीं। दिल्ली के आसपास नई-नई बस्तियां और घर बन रहे थे। साहित्यकार और पत्रकार अपने घर के सपने को पूरा करने के लिए यहां-वहां जाने लगे थे। कोई इंदिरापुरम जा रहा था, कोई वसुंधरा तो कोई नोएडा या गुड़गांव। दिल्ली के विस्तार ने आपसी दूरियां बढ़ानी शुरू कर दी थीं। नब्बे के दशक में शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण, वैश्वीकरण, इंटरनेट और सेटेलाइट टेलीविजन ने जहां लोगों के सपनों और प्राथमिकताओं को बदला, वहीं समय बिताने के ठीए भी बदलते चले गए। दस, दरियागंज, राजेंद्र यादव का कार्यालय, मंडी हाउस, प्रेस क्लब, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, जैसी नई जगहें बैठने के लिए मुफीद मानी जाने लगीं। बाजार संस्कृति ने मध्यवर्गीय साहित्यकारों और पत्रकारों को दिल्ली की सीमाओं के बाहर उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सीमाओं पर ले जा फेंका। जहां से अब कॉफी हाउस नियमित रूप से आना संभव नहीं रह गया। यही हाल कमोबेश हर महानगर का हुआ। शहरों के विस्तार साथ ही अब लोगों की प्राथमिकताएं भी बदलने लगीं। अब लोग चाय या कॉफी की जगह बियर या शराब को ज्यादा तवज्जो देने लगे। प्रेस क्लब और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर जैसी जगहें बैठकी के नए अड्डों के रूप में विकसित होती गर्इं। लगभग हर शहर में ऐसी जगहें बन रही हैं। वहां बैठकें तो होती हैं, पर कॉफी हाउस और टी हाउस जैसी स्वस्थ बहसें कितनी होती हैं, पता नहीं।

इन गुजरे दो-ढाई दशकों में साहित्यिक गतिविधियों में भी कमी आई। लोगों का आना जाना अब उनके ‘काम’ के हिसाब से तय होने लगा। यानी अब कोई किसी से मिलने भी तभी जाता है जब उसे कोई काम हो। व्यस्तताओं का इतना शोर उठने लगा कि इंसान के पास समय बिताने की कोई समस्या ही नहीं रही।
ऐसा नहीं कि साहित्य लिखा या पढ़ा नहीं जा रहा। लेकिन अब बातचीत और वाद-विवाद की संभावनाएं बेहद कम हो गई हैं। यह प्रशंसा और सहमतियों का दौर है। इसमें असहमितयों के लिए गुंजाइश कम होती जा रही है। अब अधिकतर रचनाकार खुद को ही सार्त्र या कामू समझने लगे हैं। ये लोग फेसबुक पर अपनी पोस्ट डालते हैं। लोग इन्हें बड़ी संख्या में लाइक करते हैं। बड़े लेखक होने का ऐसा अहसास टी हाउस और कॉफी हाउस के जमाने में नहीं था।
अब कहानियां और कविताएं समाज के बीच रह कर जन्म नहीं लेतीं। वातानुकूलित कमरे में जन्म ले लेती हैं। पहले जहां टी हाउस और कॉफी हाउसों में सब एक-दूसरे को पहचानते थे, अब उसकी जगह अजनबियत ने ले ली है। अब वे पुराने घर टूट गए हैं, खत्म हो गए हैं, नए घरों में सब कुछ है, नहीं है तो बस वे ठहाके और विचार विनिमय।

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