दुनिया मेरे आगेः विज्ञान का लोकतंत्र
आलोक रंजन
अपने यहां के विद्यालयों में एक अघोषित और सर्वमान्य-सा नियम है कि दसवीं में अच्छे अंक प्राप्त करने वाले विद्यार्थी विज्ञान विषय लेकर आगे की पढ़ाई करेंगे और उनसे कम अंक वाले वाणिज्य और कला के विषयों में जाएंगे। यह इतना स्वीकृत हो चुका है कि विद्यालय और मां-पिता खुल कर बच्चों को ‘ब्लैकमेल’ करते नजर आ जाते हैं। वे नहीं पढ़ेंगे तो उनके अच्छे अंक नहीं आएंगे और वे विज्ञान के विषय पढ़ने से वंचित रह जाएंगे। इन सबके बावजूद लाखों विद्यार्थी विज्ञान के विषय नहीं पढ़ते या यों कहें कि विज्ञान के विषयों को पढ़ने की योग्यता अर्जित नहीं कर पाते। यानी विषय को पढ़ना भी उनकी योग्यता से जोड़ दिया जाता है। अपने विद्यालय में अध्यापकों के माध्यम से आए दिन ऐसा सुनने को मिलता है कि अमुक छात्र या छात्रा में विज्ञान पढ़ने की योग्यता नहीं है, उसे वाणिज्य या कला के विषय पढ़ने चाहिए। इसके बाद भी कम से कम अपने विद्यालय में साल-दर-साल दसियों ऐसे विद्यार्थियों से मुलाकात होती है जो विज्ञान के विषय पढ़ना चाहते थे, मगर कम अंकों ने उनका साथ नहीं दिया।
पिछले दिनों पास के एक इंजीनियरिंग कॉलेज का वार्षिकोत्सव था। उस अवसर पर भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संस्थान के अध्यक्ष भी आने वाले थे। हमारे विद्यालय से भी विद्यार्थियों को आमंत्रित किया गया था। इस तरह के बड़े आयोजनों में विद्यालय के विद्यार्थियों को बुलाना और उन्हें भागीदारी देना एक अनूठी और स्वागतयोग्य पहल थी। इससे निश्चय ही विद्यार्थियों में विज्ञान को लेकर रुचि बढ़ने वाली थी और वे अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में भी कुछ कर सकने के लिए प्रेरित होते। लेकिन विद्यालय से सभी विद्यार्थियों को नहीं भेजा गया। जाने वाले बच्चे बड़ी कक्षाओं के थे और उनमें भी विज्ञान विषय पढ़ने वाले। अपने खास विद्यार्थियों को भेज कर विद्यालय ने कोई अनूठा काम किया हो, ऐसा नहीं है। भारत के लगभग सभी विद्यालय ऐसा ही सोचते हैं। सब यही मान कर चलते हैं कि विज्ञान की समझ छोटी कक्षाओं में नहीं आएगी और इससे भी बढ़ कर बात यह कि विज्ञान के बारे में जानना और समझना केवल विज्ञान विषयों को पढ़ने वाले विद्यार्थियों के वश की ही बात है। इन्हें लाख समझाया जाए कि विज्ञान को जानना-समझना और वैज्ञानिक चेतना रखना किसी के लिए भी उतना ही जरूरी है, जितना कि विज्ञान के विषय पढ़ने वालों के लिए। फिर भी ये नहीं मानते!
अंधविश्वास फिर से अपनी संभावनाएं तलाश रहा हो और वैज्ञानिक चेतना और विज्ञान को लेकर हमारा दृष्टिकोण अभिजात्यवादी ही रहे तो इस चेतना का प्रसार कैसे संभव है? विज्ञान को लेकर हमारा यह रवैया आज का नहीं, बल्कि लंबे समय से चला आ रहा है। टीवी पर बैठा कोई इंसान कह देता है कि गाय आॅक्सीजन छोड़ती है और दूर बैठे हजारों लोग यह बात मान लेते हैं। वही लोग यह भी मान लेने को खाली बैठे हैं कि गाय के गोबर में हीरा होता है। ऐसा मानने का जाल रचने वाले लोग भी विज्ञान का ही सहारा लेते हैं। वे बड़े-बड़े देशों में हुए वैज्ञानिक अनुसंधान का हवाला देकर अपनी बात कहते हैं। चाहे वह अनुसंधान हुआ ही न हो। लेकिन वैज्ञानिक अनुसंधान का जिक्र आते ही विज्ञान से लगभग अपरिचित एक बड़ी आबादी नतमस्तक हो जाती है। उनके लिए फिर किसी बात को समझने की जरूरत ही नहीं रह जाती। अगर विज्ञान सर्व सुलभ रहता तो लोग हर अंधविश्वास पर सवाल उठाते और अनुसंधान की अफवाह की जांच भी करते। आज के समय में वाट्सऐप पर रोज कितने ही ऐसे संदेश प्राप्त होते हैं जो हमारी वैज्ञानिक चेतना तो दूर, सामान्य समझ तक पर सवाल खड़े करते हैं, बावजूद इसके वे संदेश लगातार यहां से वहां की यात्रा करते रहते हैं।
कुछ विषयों को पढ़ने से रोजगार की संभावनाएं ज्यादा होती हैं। विज्ञान के विषय ऐसे ही हैं। विषयों का रोजगार से जुड़ा हुआ होना तो एक हद तक समझ में आता है, लेकिन उनका सामाजिक प्रतिष्ठा से जुड़ जाना अन्य विषयों के साथ-साथ उन विषयों के लिए भी खतरा है। विज्ञान पढ़ने के लिए दसवीं के अंकों को आधार माना जाता है। हम जानते हैं कि ज्यादा अंक प्राप्त करने के लिए उचित परिवेश और उचित पारिवारिक वातावरण और समर्थन की जरूरत रहती है। जो बच्चा दिन में मजदूरी करता हो या जिसके कमरे में पढ़ने के लिए रोशनी न हो, बल्कि जिसके पास पढ़ने का कमरा ही न हो, उसके ज्यादा अंक प्राप्त करने की संभावना ही नहीं है। उसे इच्छा रहते हुए भी विज्ञान के विषय में दाखिला नहीं मिलेगा। ऐसे विद्यार्थियों के न होने से विज्ञान का लोकतांत्रिक होना प्रभावित होगा और वह अपने आभिजात्य में ही लिपटा रहेगा। विज्ञान को जितना सीमित किया जाएगा, वह समाज से उतना ही दूर होता जाएगा।