निजता की जीत

सर्वोच्च न्यायालय के नौ सदस्यीय संविधान पीठ ने एक ऐतिहासिक फैसले में निजता के अधिकार को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार घोषित कर दिया। इसी के साथ इस बारे में जुड़े ढेरों अगर-मगर भी खत्म हो गए हैं। इसका असर भी दूरगामी होगा। मुख्य न्यायाधीश जगदीश सिंह खेहर की अध्यक्षता में गठित संविधान पीठ ने एक स्वर से कहा है कि निजता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीने के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अंतर्भूत हिस्सा है। यह भी गौरतलब है कि गुरुवार को दिए अपने फैसले में पीठ ने शीर्ष न्यायालय के उन दो पुराने फैसलों को खारिज कर दिया, जिनमें निजता को मौलिक अधिकार नहीं माना गया था। यही फैसले निजता के अधिकार की राह में दीवार बन कर खड़े हो जाते थे। एमपी शर्मा मामले में छह जजों ने 1954 में और खड्गसिंह मामले में आठ जजों ने 1962 में फैसला सुनाया था। ताजा फैसले में आधार कार्ड को वित्तीय लेन-देन संबंधी मामलों में अनिवार्य किए जाने के सवाल पर कोई टिप्पणी नहीं की गई है। इस सिलसिले में यह मसला इसलिए बेहद अहम है कि निजता के अधिकार को लेकर बहस ही तब उठी, जब सरकार ने आधार कार्ड को कल्याणकारी सामाजिक योजनाओं के लिए जरूरी कर दिया। यहां तक कि आय कर रिटर्न भरने, बैंकों में खाता खोलने, ऋण लेने, पेंशन पाने और वित्तीय लेन-देन में आधार कार्ड को अनिवार्य बना दिया।
याचिकाकर्ताओं ने आधार योजना को निजता के अधिकार में दखलंदाजी बताते हुए इसकी अनिवार्यता खत्म करने की मांग की थी। तभी यह सवाल भी उठा कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है भी या नहीं। मामला पहले तीन जजों के खंडपीठ के पास गया। फिर इसकी सुनवाई के लिए पांच जजों के खंडपीठ का और अंत में 18 जुलाई को नौ सदस्यीय संविधान पीठ का गठन हुआ। इस पीठ ने नियमित सुनवाई करके पिछले 2 अगस्त को निर्णय सुरक्षित रख लिया था। सुनवाई के दौरान कई रोचक दलील भी दी गर्इं। जैसे कि पूर्व अटॉर्नी जनरल (महान्यायवादी) मुकुल रोहतगी ने यह तक कह दिया था कि नागरिक के शरीर पर स्वयं उसका नहीं, राज्य का अधिकार है। इस दलील को लेकर अदालत के बाहर भी काफी चर्चा हुई। संविधान पीठ में भी, अंतिम फैसला सुनाने से पहले, कई बार दुविधा देखी गई। निर्णय सुरक्षित करते समय पीठ ने खुद यह माना कि सूचना प्रौद्योगिकी के दौर में निजता की सुरक्षा का सिद्धांत एक हारी हुई लड़ाई है।
अब जबकि फैसला सुना दिया गया है, तब भी कई सवाल हैं जो हवा में तैर रहे हैं और विधि विशेषज्ञ इनकी व्याख्या में लगे हैं। कुछ विशेषज्ञों और कई विपक्षी राजनीतिकों ने कहा कि इस फैसले से सरकार की ‘निगरानी रणनीति’ को झटका लगा है। अब कोई भी नागरिक अपना आधार कार्ड बनवाने से इनकार भी कर सकता है, क्योंकि सबसिडी का लाभ पाने के लिए आधार जरूरी नहीं है। जबकि विधिमंत्री रविशंकर प्रसाद ने फैसले को अपने पक्ष में बताया है। उन्होेंने कहा कि न्यायालय ने साफ कहा है कि ‘निजता वाजिब प्रतिबंधों के साथ ही मौलिक अधिकार है।’ समझा जाता है कि इस फैसले के बावजूद अभी सरकार और आधार कार्ड को अनिवार्य करने के विरोधियों के बीच रस्साकशी जारी रह सकती है। क्योंकि, सरकार के अपने तर्क हैं और उसका कहना है कि जनकल्याण और जन सुरक्षा के लिए आधार जरूरी है। यानी एक मसला तो हल हो गया, लेकिन इससे जुड़ा पहला मसला अब भी कई ‘किंतुओं-परंतुओं’ के घेरे में है।