पटाखों की विदाई

सुप्रीम कोर्ट के दिल्ली में पटाखों की बिक्री पर रोक के फैसले से जैसा कोहराम मचा, वह अफसोसनाक है। चेतन भगत और गायक अभिजीत जैसे सितारे तो इसे हिंदू संस्कृति के साथ मजाक की संज्ञा दे बैठे। अनेक हिंदू संगठन आरोप लगा रहे हैं कि यह हिंदुओं पर हमला और हिंदू संस्कृति को बर्बाद करने की सजिश है। इनकी बातें ध्यान से सुनी जाएं तो लगेगा कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों के पास एक ही काम बचा है कि कैसे हिंदू या मुसलमानों की संस्कृति पर हमला कर के उसे बर्बाद किया जाए! जब भी कोई ऐसा निर्णय अदालत सुनाती है तो लोग अपने चिर-परिचित अंदाज में हाय मेरी संस्कृति, हाय मेरी संस्कृति का राग अलापने लगते हैं।

चाहे बात तीन तलाक की हो या पटाखों की बिक्री पर रोक लगाने की, जब भी ऐसा कोई मामला सामने आता है तो तथाकथित धर्म रक्षक अपनी संकुचित मानसिकता लेकर प्रकट हो जाते हैं। इनके के लिए संस्कृति का मतलब केवल एक खींची हुई लकीर पर चलना है। उस लकीर में तनिक भी बदलाव इन्हें मंजूर नहीं। इसलिए किसी प्रकार का सकारात्मक बदलाव भी इन्हें कभी रास नहीं आता। ये सोचने की जहमत नहीं उठाके कि क्या पटाखे वास्तव में दीपावली और हमारी संस्कृति का हिस्सा हैं? अगर हैं, तो आखिर कब से? क्या किसी हिंदू शास्त्र में पटाखे या अतिशबाजी जैसे शब्द का उल्लेख मिलता है?  पटाखों का इतिहास कहता है कि इनका आविष्कार एक दुर्घटना के कारण चीन में हुआ। मसालेदार खाना बनाते समय एक रसोइए ने गलती से साल्टपीटर (पोटैशियम नाइट्रेट) आग पर डाल दिया था। इससे उठने वाली लपटें रंगीन हो गर्इं, जिससे लोगों की उत्सुकता बढ़ी। फिर रसोइए के प्रधान ने साल्टपीटर के साथ कोयले व सल्फर का मिश्रण आग के हवाले कर दिया, जिससे काफी तेज आवाज के साथ रंगीन लपटें उठीं। बस, यहीं से आतिशबाजी यानी पटाखों की शुरुआत हुई।

भारत में पटाखे प्रचलन में कब आए उसके खास प्रमाण तो नहीं हैं पर औरंगजेब के शासनकाल व मुगलकालीन साहित्य में आतिशबाजी के कुछ साक्ष्य अवश्य मिलते हैं। वहीं पटाखों का वृहद पैमाने पर विस्तार हमारे देश में 1940 में शुरू हुआ जब तमिलनाडु के शिवकाशी में इसकी पहली फैक्टरी स्थापित की गई। इससे पहले यदि प्राचीन भारतीय सभ्यता की बात की जाए तो वहां ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता। हां, रामायण, महाभारत या वैदिक युग में ‘आग्नेय अस्त्र’ का उल्लेख अवश्य मिलता है पर उसका प्रयोग घरेलू आतिशबाजी के रूप में नहीं बल्कि युद्धों में विरोधी सेना को कुछ ही क्षण में भस्म कर देने के लिए किया जाता था।दीपावली असल में दीपों का त्योहार है, रोशनी का त्योहार है। इसका तात्पर्य उस ज्ञान के प्रकाश से भी है, जो हमारे अज्ञान के अंधियारे का नाश करता है। पटाखे तो बारूदी व हिंसक प्रवृति को जन्म देने का काम करते हैं। इनसे पर्यावरण के साथ-साथ न केवल मानव जीवन बल्कि अन्य प्राणी जगत पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। लिहाजा, पटाखे केवल दीपावली नहीं, अन्य पर्वों पर भी प्रतिबंधित होने चाहिए। पटाखे जब भी फोड़े जाएंगे तो प्रदूषण ही पैदा करेंगे, चाहे वह दीपावली, क्रिसमस या फिर नववर्ष ही क्यों न हो। हमें समझना चाहिए कि पटाखे क्षण भर का मनोरंजन तो प्रदान करते हैं लेकिन बदले में प्रदूषण फैला कर हमारे जीवन पर ही ग्रहण लगाने का काम करते हैं। हमें खुद जागरूक होकर दीपावली के साथ-साथ अन्य पर्व-त्योहारों से भी पटाखों के विदाई की तैयारी करनी चाहिए।
’विवेकानंद वी ‘विमर्या’, देवघर, झारखंड

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *