परमाणु निरस्त्रीकरण का सपना
एक समय परमाणु निरस्त्रीकरण की बातें होती थीं और उसे एक वैश्विक लक्ष्य के रूप में पेश किया जाता था। मगर एटमी ताकत कहे जाने वाले देशों के अड़ियल रुख के चलते परमाणु निरस्त्रीकरण को छोड़ परमाणु अप्रसार संधि की राह पकड़ ली गई। मगर विषमतामूलक होने के कारण यह संधि नाकाम रही है। इस संधि के बजाय परमाणु निरस्त्रीकरण दुनिया का लक्ष्य होना चाहिए।
परमाणु हथियारों के खात्मे के लिए अभियान चलाने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन ‘आइकैन’ को पिछले दिनों शांति का नोबेल पुरस्कार दिए जाने की घोषणा हुई। इस पुरस्कार ने परमाणु हथियारों के खिलाफ एक वैश्विक संदेश दिया है। इसकी प्रासंगिकता जाहिर है। आइकैन को यह पुरस्कार ऐसे वक्त मिला है, जब उत्तर कोरिया के परमाणु परीक्षणों को लेकर दुनिया चिंतित है। चिंता अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के रवैए ने भी बढ़ाई है। वे उत्तर कोरिया को बातचीत की मेज पर लाने के लिए कोई गंभीर कूटनीतिक पहल करने में तो नाकाम रहे ही हैं, उनकी पलटवार वाली धमकियों ने एक ऐसे युद्ध की आशंका पैदा की है जो जाने कितने विनाश के बाद खत्म होगा।
ट्रंप ईरान से हुए परमाणु समझौते की भी आलोचना कर रहे हैं, जबकि इस समझौते को अमेरिका की एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखा गया था। यह ट्रंप के रवैए का ही असर होगा कि आइकैन को नोबेल मिलने की खबर ताजा ही थी कि अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने बयान जारी कर कहा कि अमेरिका ‘परमाणु हथियार निषेध संधि’ पर हस्ताक्षर नहीं करेगा। गौरतलब है कि यह संधि आइकैन द्वारा एटमी हथियारों के खिलाफ चलाए गए अभियान का ही फल है। अलबत्ता अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने यह सफाई जरूर पेश की कि अमेरिका इस संधि के लिए वैश्विक वातावरण बनाने की दिशा में प्रयास करेगा।
स्पष्ट है कि अमेरिका जिसके पास परमाणु हथियारों का सबसे बड़ा जखीरा है, खुद तो परमाणु हथियारों के खात्मे की दिशा में एक कदम भी नहीं बढ़ना चाहता, लेकिन दुनिया के अन्य देशों को इस दिशा में बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करने की बात कर रहा है। जब तक अमेरिका इस दिशा में कदम नहीं बढ़ाएगा, तब तक लगभग उसके जितने ही परमाणु हथियारों से संपन्न उसके विकट प्रतिस्पर्धी रूस से इस दिशा में कोई उम्मीद करना बेमानी ही होगा। फिर फ्रांस, ब्रिटेन, चीन, भारत आदि देश ऐसी कोई पहल करें भी, तो वह अमेरिका और रूस के सहयोग के बिना आगे नहीं बढ़ सकती।
इस मसले को थोड़ा बेहतर ढंग से समझने के लिए यह देखना जरूरी होगा कि किस देश के पास कितने परमाणु हथियार हैं। हालांकि इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा उपलब्ध नहीं है, मगर सूत्रों के आधार पर कुछ आंकड़े जरूर सार्वजनिक रूप से मौजूद हैं। विकिपीडिया पर मौजूद आंकड़ों के मुताबिक इस वक्त सात हजार परमाणु हथियारों के साथ रूस परमाणु शक्ति के मामले में पहले स्थान पर है। इनमें से उन्नीस सौ पचास परमाणु हथियार प्रयोग के लिए एकदम तैयार अवस्था में हैं। रूस के बाद छह हजार आठ सौ परमाणु हथियारों के साथ अमेरिका इस सूची में दूसरे स्थान पर है, उसके भी अठारह सौ परमाणु हथियार प्रयोग के लिए तैयार हैं।
इसके बाद फ्रांस, चीन, ब्रिटेन, पाकिस्तान और भारत की बारी आती है, जिनके पास क्रमश: तीन सौ, दो सौ सत्तर, दो सौ पंद्रह, एक सौ पच्चीस और एक सौ बीस परमाणु हथियार हैं। इनमें फ्रांस के दो सौ अस्सी और ब्रिटेन के एक सौ बीस परमाणु हथियार प्रयोग के लिए तैयार हैं। शेष किसी देश के परमाणु हथियारों के प्रयोग के लिए तैनात अवस्था में होने की जानकारी नहीं है। इसी से मिलते-जुलते आंकड़े अन्य स्रोतों पर भी उपलब्ध हैं। संदिग्ध रूप से अब उत्तर कोरिया परमाणु हथियार रखने वाले देशों की श्रेणी में आ चुका है, बल्कि उसका दावा तो यहां तक है कि उसके पास परमाणु बम से अधिक शक्तिशाली हाइड्रोजन बम भी है।
बहरहाल, इन आंकड़ों से यह साफ है कि विश्व के नब्बे प्रतिशत से अधिक परमाणु हथियार अमेरिका और रूस के पास हैं। हालांकि सच यह है कि परमाणु हथियारों की संख्या का कोई महत्त्व नहीं होता, क्योंकि बड़े से बड़े देश के संपूर्ण विनाश के लिए आधा दर्जन परमाणु बम काफी हैं। ऐसे में किस देश के पास कितने परमाणु हथियार हैं, इससे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ता। कम हों या ज्यादा, हर हाल में एटमी हथियार विश्व के लिए बेहद चिंताजनक हैं।
आज के वैश्विक परिदृश्य में राष्ट्रों के बीच परस्पर संदेह और प्रतिस्पर्धा का भाव हावी है। ऐसी स्थिति में भी यदि ये देश अक्सर एक दूसरे से मित्रता और सौहार्दपूर्ण संबंधों की बात करते हैं, तो उसका मुख्य कारण अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण हो जाना है। इस बात को भारत-चीन के उदाहरण से आसानी से समझा जा सकता है। चीन जैसा अड़ियल और आक्रामक देश यदि संघर्ष के बजाय डोकलाम में चुपचाप पीछे हट गया तो इसका मुख्य कारण यही था कि भारत से उसके गहरे आर्थिक हित जुड़े हुए हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अर्थव्यवस्था के वैश्वीकरण ने राष्ट्रों के बीच युद्ध की स्थिति को फिलहाल रोक रखा है, मगर इससे यह सुनिश्चित नहीं हो जाता कि भविष्य में कोई युद्ध नहीं छिड़ेगा, या छिड़ जाए तो महाविनाशकारी हथियारों का इस्तेमाल नहीं होगा।
विश्व में उत्तर कोरिया, पाकिस्तान जैसे राष्ट्र भी हैं, जहां सामरिक या रणनीतिक फैसले सेना करती है; इनके लिए आर्थिक हित जैसे कारक उतने महत्त्व के नहीं होते। अत: ये कभी भी युद्ध की स्थिति ला सकते हैं। अब यदि कोई व्यापक युद्ध छिड़ा तो दुनिया ने ये जो परमाणु हथियार जुटा रखे हैं उनके प्रयोग की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। इसलिए परमाणु हथियारों के खात्मे के अभियान की सार्थकता जाहिर है।
एक बड़ी आशंका यह भी है कि कहीं परमाणु हथियार आतंकियों के हाथ न लग जाएं। पाकिस्तान जैसे अपने ही पैदा किए हुए आतंक के चंगुल में बुरी तरह से फंसे देश के पास जब, एक मोटे अनुमान के मुताबिक, सवा सौ परमाणु हथियार हैं, तो उपर्युक्त खतरे की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। पाकिस्तान की सेना और सुरक्षा एजेंसियों के जिम्मे ही वहां के परमाणु ठिकानों की सुरक्षा का दायित्व होगा। पर आतंकवादी संगठनों से इनके तार जुड़े होने की बातें सामने आती रही हैं।
जाहिर है कि परमाणु हथियार समूची मानवता के लिए किस तरह से एक मौन मगर भीषण संकट के रूप में उपस्थित हैं। सभी विकसित व विकासशील राष्ट्र इस संकट से परिचित हैं, पर प्रश्न यही है कि एटमी हथियारों के खात्मे की पहल कौन करे। नैतिकता का तकाजा यही कहता है कि पहल अमेरिका और रूस को करनी चाहिए, क्योंकि उनके पास परमाणु हथियारों का सबसे बड़ा जखीरा है। ये देश अपने परमाणु हथियारों को नष्ट करने की दिशा में बढ़ें तो अन्य देश भी उत्साहित होंगे। विश्व के महाशक्ति देशों को यह समझ लेना चाहिए कि परमाणु हथियार किसी भी प्रकार से लाभप्रद या उपयोगी नहीं हैं। युद्ध की सूरत में भी इनसे कोई लाभ नहीं हो सकता, क्योंकि ये सिर्फ विनाश कर सकते हैं। ये विजित क्षेत्र की ऐसी दशा कर देंगे कि विजेता राष्ट्र के लिए उसका कोई उपयोग नहीं रह जाएगा।
ऐसे में मानवता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले और सभ्य हो जाने का दम भरने वाले अंतरराष्ट्रीय समुदाय को समझना होगा कि परमाणु हथियारों की विदाई विश्व की सुरक्षा और शांति के लिए अपरिहार्य है। एक समय परमाणु निरस्त्रीकरण की बड़ी-बड़ी बातें होती थीं और उसे एक वैश्विक लक्ष्य के रूप में पेश किया जाता था। मगर एटमी ताकत कहे जाने वाले देशों के अड़ियल रुख के चलते परमाणु निरस्त्रीकरण को छोड़ परमाणु अप्रसार संधि की राह पकड़ ली गई। मगर विषमतामूलक होने के कारण यह संधि नाकाम रही है। इस संधि के बजाय परमाणु निरस्त्रीकरण दुनिया का लक्ष्य होना चाहिए।