पीएम मोदी का यह एक वादा ही 2019 में बन सकता है सबसे बड़ा चुनावी जोखिम
करियों के लगातार घटते मौके 2019 के आम चुनाव में पीएम मोदी के लिए सबसे बड़ा चुनावी जोखिम साबित हो सकता है। लोकसभा चुनाव से पहले अब ये चर्चाएं आम हो रही हैं कि क्या पीएम मोदी पिछले चुनाव में हर साल एक करोड़ नौकरियों के अपने वादे को पूरा कर पाएंगे। ये एक ऐसा मोर्चा है जहां मोदी का रिकॉर्ड आकर्षक नहीं है। अब चुनाव से लगभग 20 महीने पहले पीएम मोदी अपने इस टारगेट को पूरा करने के लिए लगातार प्रयत्नशील हैं। ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के मुताबिक साल 2027 तक भारत के पास दुनिया का सबसे बड़ी श्रम शक्ति होगी, और श्रम की ये ताकत देश की इकोनॉमी को रफ्तार देते रहने के लिए बेहद जरूरी है। लेकिन देश की अर्थव्यवस्था में इस वर्क फोर्स को जगह देने की यानी की नौकरियां देने की क्षमता पैदा नहीं हो रही है। पीएम मोदी ने रोजगार सृजन से जुड़े दोनों मंत्रालयों के मंत्रियों को बदल लिया है। हाल के मंत्रिमंडल फेरबदल में पीएम मोदी ने युवाओं को तकनीक से लैस करने से जुड़े विभाग, कौशल विकास मंत्रालय का जिम्मा राजीव प्रताप रुडी से लेकर धर्मेन्द्र प्रधान को दे दिया है। धर्मेन्द्र प्रधान पीएम मोदी की महात्वाकांक्षी योजना उज्ज्वला स्कीम को सफलता पूर्वक लागू कर चुके हैं। इसलिए पीएम को उनसे उम्मीदें भी हैं। इसी तरह पीएम मोदी ने श्रम मंत्रालय का जिम्मा बंडारू दत्तात्रेय से लेकर संतोष कुमार गैंगवार को दे दिया है। गैंगवार पहले वित्त राज्य मंत्री थे।
राजनीतिक विश्लेषक निलंजन मुखोपाध्याय कहते हैं कि, ‘जब बात रोजगार के मौके की आती है तो सरकार पूरी तरह से फेल साबित हुई है।’ निलंजन मुखोपाध्याय बताते हैं कि कैबिनेट में बदलाव इस बात का सूचक है कि पीएम मोदी रोजगार को लेकर 2019 के चुनाव में पैदा होने वाले सियासी जोखिम से आगाह हैं। भारत में स्किल्ड लेबर की जरूरत तो है, लेकिन इस लेबर फोर्स की सप्लाई बड़ा मुद्दा है। भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक 2022 तक अर्थव्यवस्था के 24 सेक्टरों में 110 मिलियन यानी कि 11 करोड़ कामगारों की जरूरत होगी। जबकि इस वक्त तक देश में 10.5 करोड़ वर्कर ही इन सेक्टरों में आ पाएंगे।
समस्या तब पैदा होती है जब आंकड़े ये बताते हैं कि वर्तमान वर्कफोर्स का सिर्फ 5 प्रतिशत ही इन पैदा होने वाली नौकरियों में काम करने के काबिल हैं। इसलिए बाकियों को इस इंडस्ट्री में काम करने के काबिल तैयार करना, उन्हें ट्रेनिंग देना और दक्ष बनाना बेहद ही चुनौती भरा और खर्चीला काम है। संसाधनों और कुशल प्रशिक्षकों की कमी इस दिशा में सबसे बड़े बाधक हैं। भारत की कामकाजी आबादी (15-59 साल) कुल जनसंख्या का 62 फीसदी है लेकिन इनमें औपचारिक रुप से कार्यकारी कुशलता सिर्फ 5 फीसदी लोगों के पास है। जबकि ब्रिटेन की 68 फीसदी, जर्मनी की 75 फीसदी अमेरिका की 52 फीसदी और जापान की 80 फीसदी वर्कफोर्स स्किलड है।