प्रधानमंत्री के लिए यथार्थ के संकेत
ट्रेन के सफर में था। वहां केबिन की दीवाल पर एक नोटिस लगा था जिसमें बताया गया था कि आपातकालीन स्थिति में क्या करें। पहली हिदायत यह थी: ‘क्षण-भर स्थिति का आकलन करें। घबराएं नहीं।’ भारत की आर्थिक स्थिति पर यह कितना सटीक बैठता है! पिछले दस दिनों में बहुत कुछ घटित हुआ है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह हुई कि मैंने पहली बार देखा कि सरकार के मंत्री और प्रवक्ता घबराए हुए थे। इस घबराहट का मैं स्वागत करता हूं, क्योंकि यह सरकार को सदाशयी आलोचना के प्रति अधिक सकारात्मक रुख अख्तियार करने की तरफ ले जा सकती है। पर उसी समय, शेखी बघारने वाली बातें भी सुनाई दीं। यशवंत सिन्हा और अरुण शौरी को ऐसे शख्स मान कर खारिज कर दिया गया, जो सरकार की कमियां न ढूंढ़ पाएं तो रात को सो नहीं पाते। प्रधानमंत्री ने इन दो वरिष्ठ राजनीतिकों को कोसा (बगैर नाम लिये), उससे पहले इनके विचार भाजपा के कार्यकर्ताओं समेत करोड़ों भारतीयों तक पहुंच चुके थे, और संदेश ठीक जगह पहुंचा था
सुस्ती बनाम मंदी
अर्थव्यवस्था में सुस्ती आ जाने के निष्कर्ष को प्रधानमंत्री ने बड़ी वीरता के साथ खारिज कर दिया। उनका तर्क इस तथ्य पर आधारित था कि अर्थव्यवस्था के कुछ क्षेत्रों ने सकारात्मक वृद्धि दर्ज की है और इस सिलसिले में उन्होंने कारों की बिक्री (12 फीसद), व्यावसायिक वाहनों की बिक्री (23 फीसद), दोपहिया वाहनों की बिक्री (14 फीसद) में बढ़ोतरी के साथ-साथ हवाई यातायात, हवाई माल ढुलाई और टेलीफोन के ग्राहकों की तादाद बढ़ने के उदाहरण दिए। प्रधानमंत्री ने सही कहा है, कुछ क्षेत्रों में वृद्धि का रुझान है, पर ऐसे क्षेत्र बहुत कम हैं, और यही कारण है कि अर्थव्यवस्था ऐसे दौर से गुजर रही है जिसे ठहराव या सुस्ती का दौर कहा जाता है।
प्रधानमंत्री के शोधकर्ताओं और व्याख्यान-लेखकों ने उन्हें क्यों नहीं बताया कि अगर अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में वृद्धि नहीं हो रही है, तो अर्थव्यवस्था में मंदी का आलम रहेगा, न कि सुस्ती का। जबकि वास्तव में कुछ क्षेत्रों में वृद्धि दर्ज हो रही है, वहीं कुछ क्षेत्रों में नकारात्मक वृद्धि या गिरावट का रुझान है:
* खनन और उत्खनन: (-) 0.66 फीसद
* मैन्युफैक्चरिंग: 1.17 फीसद
* निर्माण: 2.0 फीसद
* कृषि, वनीकरण और मत्स्य उत्पादन: 2.34 फीसद
ये चार क्षेत्र मिलकर भारतीय अर्थव्यवस्था का चालीस फीसद हिस्सा हैं, और इनके आंकड़े सुस्ती की सच्चाई बयान करते हैं, जिसे अब प्रधानमंत्री की नवगठित आर्थिक सलाहकार परिषद ने भी मान लिया है।
असलियत क्या है
इस स्तंभ को आंकड़ों से बोझिल न करके, मैं आपका ध्यान तेरह तिमाहियों की तरफ खींचना चाहूंगा- अप्रैल 2014 (राजग सरकार मई 2014 में आई थी) से जून 2017 तक, जिनके आंकड़े केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय और रिजर्व बैंक ने प्रकाशित किए हैं। इन आंकड़ों में दो लाइनें हैं: एक लाइन है निवेश की, जिसे संबंधित तिमाही में जीडीपी के अनुपात में कुल निश्चित पूंजी निर्माण (जीएफसीएफ) के जरिए मापा जाता है। दूसरी लाइन है संबंधित तिमाही में, पिछले वित्तवर्ष की समान अवधि के मुकाबले, ऋणवृद्धि की।
ये दो लाइनें बड़े सार्थक ढंग से बताती हैं कि राजग/भाजपा सरकार ने अर्थव्यवस्था के साथ क्या किया है। पहली बात यह कि सरकार ने अर्थव्यवस्था में निवेश करने की इच्छा को ही मार दिया है। इसमें मुख्य दोषी वित्त मंत्रालय है। इसने भारी राशि जुटाने के लिए पीछे की तारीखों से कर-निर्धारण किया। इसने विभिन्न कर-कानूनों में बेहद कठोर और भयावह संशोधन किए, और उसी तरह के नए कर-कानून भी बनाए। इसने छापा (रेड)-राज का रास्ता खोल दिया। बकाये कर का आकलन करने वाले अफसरों को काफी विवेकाधिकार दे दिए गए, और यह भी प्रावधान कर दिया गया कि उन्हें अपनी कार्रवाई का कारण बताने की जरूरत नहीं। वायदे के विपरीत, करदाता को अपना पक्ष रखने का मौका न देने से, कर-आकलन की हरेक समीक्षा व्यवहार में तहकीकात का रूप ले लेती है। आय कर के मामले कार्रवाई के लिए धनशोधन निरोधक अधिनियम के तहत प्रवर्तन निदेशालय को भेजे जा रहे हैं। चार्टर्ड एकाउंटेंट्स से पूछिए, वे आपको बताएंगे कि वे पहले से ज्यादा व्यस्त हैं और पहले से ज्यादा कमा रहे हैं, पर उनके ग्राहक हलकान हैं। सरकार ठप परियोजनाओं को फिर से शुरू करने में नाकाम रही है। अकेले बिजली के क्षेत्र में, तीस हजार मेगावाट की परियोजनाएं अटकी हुई हैं और उनमें काफी कीमती पूंजी फंसी हुई है। बैंकों के प्रमुखों ने मुझे बताया है कि बिजली, दूरसंचार, स्टील और निर्माण, ये क्षेत्र सबसे ज्यादा परेशानी में हैं। लिहाजा, इन अग्रणी क्षेत्रों में नए निवेश की कोई संभावना नहीं दिखती।अन्य आंकड़े: वर्ष 2017-18 की दूसरी तिमाही के दरम्यान 84,500 करोड़ की परियोजनाएं घोषित की गर्इं, जो कि इस सरकार के आने के बाद से एक तिमाही का सबसे कम आंकड़ा है।
एनपीए का भार
सरकार ने एनपीए की समस्या से निपटने में भी पूरी अपरिपक्वता दिखाई है। बैंक प्रबंधनों को और मजबूत करने के बजाय उसने मनमाने ढंग से नियुक्तियां और तबादले किए। बैंक प्रबंधकों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए, और वे डर के मारे निष्क्रिय हो गए हैं। बैंकों के प्रमुखों और कार्यकारी अधिकारियों से पूछिए, वे आपको बताएंगे कि वे कर्ज मंजूर करना नहीं चाहते, निष्क्रिय खातों के साथ समझौता करने की उनकी तनिक इच्छा नहीं है और न ही पूंजी निर्माण में उन्हें रुचि रह गई है। बे बस यही चाहते हैं कि बिना किसी झंझट के रिटायर हो जाएं! सरकार ने खराब कर्जों (बैड लोन्स) का भार एक जगह डालने के लिए ‘बैड बैंक’ बनाने का संकेत दिया था, पर अभी तक वह इस दिशा में कुछ नहीं कर सकी है, न ही सरकार बैंकों को फिर से पर्याप्त पूंजी-क्षम बना सकी है। बैंक-ऋण व्यवस्था शोचनीय हालत में पहुंच गई है।
निजी निवेश और बैंक-ऋण में नवजीवन का संचार किए बिना, अर्थव्यवस्था के जल्दी से पटरी पर लौट आने की ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। अब आपकी बारी है, प्रधानमंत्री जी।