प्रवहमान ज्ञान परंपराएं
मणींद्र नाथ ठाकुर
भारत राष्ट्र-राज्य से ज्यादा एक सभ्यता है। इसकी अपनी ज्ञान परंपराएं हैं। इसका बहुत पुराना इतिहास है। देश के हर हिस्से में किसी न किसी प्राचीन ज्ञान परंपरा के अवशेष मिल जाते हैं। क्या ये परंपराएं जीवंत हैं या मारणासन्न? कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर शेल्डन पोलोक के एक प्रजेक्ट का नाम ही है ‘डेथ आॅफ संस्कृत’। उनका मानना है कि इस परंपरा की मृत्यु बहुत पहले हो गई थी और इसके कुछ अवशेष बचे हुए हैं, जिनको अब समेट कर जमा कर लेना बहुत जरूरी है, अन्यथा बाद में इसके अस्तित्व का पता चलना भी मुश्किल हो सकता है। भारतीय सभ्यता के ज्ञान की भाषा संस्कृत थी और इसके पतन ने इस सभ्यता की सांस्कृतिक धरोहर को भी पतन के कगार पर ला खड़ा किया है।
लेकिन यह मामला इतना आसान भी नहीं है। सभ्यताओं का इतिहास बहुत लंबा होता है और अनेक उत्थान-पतन के बावजूद उसमें अपने आधारभूत मूल्यों को सुरक्षित रखने की क्षमता होती है। कुछ ऐसा ही अहसास मुझे अपने शोध ‘नॉलेज ऐंड प्रैक्टिस इन इंडिया’ के लिए बिहार के कुछ गांवों में घूमते हुए हुआ। गौरतलब है कि बिहार के मिथिला अंचल में इस सभ्यता के अनेक दर्शन सैकड़ों वर्षों तक फलते-फूलते रहे। और इस क्षेत्र में घूमने से लगता है कि यहां की सामूहिक चेतना में इन परंपराओं का इतना गहरा प्रभाव है कि भले कुछ समय के लिए इसकी लोकप्रियता और अभ्यास में गिरावट आई हो, इसके पुन: प्रस्फुटित और पल्लवित होने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता।
उदाहरण के लिए न्याय दर्शन के लिए मशहूर एक गांव सरिसबपाही को लें। इस गांव में कई सौ वर्षों से महत्त्वपूर्ण न्याय दर्शन के अध्ययन-अध्यापन की परंपरा रही है। बहुत से महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखे गए हैं। हाल में इस गांव में चौदहवीं शताब्दी के एक बड़े विद्वान अयाची मिश्र की प्रतिमा लगाई गई। इस विद्वान से एक कहानी जुड़ी हुई है, जिससे भारत के गांवों में स्थित बौद्धिक परंपराओं का चरित्र स्पष्ट होता है। उनके तेजस्वी बालक की प्रतिभा से खुश होकर राजा ने उसे बहुमूल्य गहने उपहार में दिए। मां के वादे के अनुसार बेटे की पहली कमाई पर उस महिला का अधिकार था, जिसने उसे प्रसव के समय सहायता की थी। इसलिए पुत्र को आदेश दिया कि गहना उसे दे आए। उस महिला ने इतने महंगे गहने लेने से इंकार कर दिया। लेकिन उसकी एक न चली। फिर उसने उस गहने को बेच कर गांव में एक तालाब बनवाया। यह तालाब आज भी है। मजे की बात यह कि गांव वालों ने अयाची और उस दलित महिला दोनों की मूर्ति लगाई है। इस ज्ञान परंपरा के लोग इतिहास या आत्मकथा नहीं लिखते थे। लेकिन उनकी बहुत-सी कहानियां आज भी लोगों की जुबान पर हैं। इन कहानियों को संकलित कर इस ज्ञान परंपरा का समाजशास्त्र गढ़ा जा सकता है।
ऐसी अनेक परंपराएं भारत में हैं। एक और उदाहरण। असम में एक गांव है मयांग, जिसके बारे में कहा जाता है कि किसी जमाने में यह तांत्रिक ज्ञान का केंद्र हुआ करता है। भीम के बेटे घटोत्कच से लेकर गोरखनाथ के गुरु मछेंद्रनाथ तक की कहानी इस गांव से जुड़ी है। अभी कई अमेरिकी शोधकर्ता भी यहां काम कर रहे हैं। आमतौर पर लोग इसे एक मायावी दुनिया की तरह समझते हैं। लेकिन इसका संबंध सभ्यता की ज्ञान परंपराओं से है। यहां भी कोई विधिवत इतिहास या आत्मकथा लेखन नहीं है, लेकिन कथाएं बहुत-सी हैं। इन दोनों गांवों की खासियत है कि यहां से अनेक प्राचीन पांडुलिपियां प्राप्त हुई हैं। इतनी बड़ी संख्या में पांडुलिपियों का होना यह प्रमाणित करता है कि ये विकसित परंपराएं थीं और सामाजिक व्यवहार से जुड़ी थीं। ऐसे कई गांव भारत में हैं। केरल में भी कई गांव हैं, जहां आयुर्वेद की परंपरा है और कई गांवों में गणित की परंपरा है।
भले आज के आधुनिक तत्त्व और ज्ञान मीमांसा ने इन्हें खारिज कर दिया हो या पोलोक जैसे विद्वान इसे खात्मे के कगार पर मानें, यह भी सच है कि ये ज्ञान परंपराएं जनमानस में गहरी पैठी हैं। इतिहास के किसी मोड़ पर कई बार ऐसा लगता है कि इनका अंत हो गया, फिर अचानक इनका पुनर्जागरण हो जाता है।
इस बारे में केरल सरकार ने कई महत्त्वपूर्ण पहलें की हैं। एक तो उसने राज्य की ज्ञान परंपराओं को संकलित और सुरक्षित रखने के लिए केंद्र सरकार से अलग एक बौद्धिक संपदा कानून बनाया है। गौर करने की बात है इस कानून के अनुसार किसी बाहरी संस्था को केरल की आयुर्वेदिक परंपरा पर आधारित स्वास्थ्य केंद्र खोलने का अधिकार नहीं है। अब लगभग यह स्थापित हो चुका है कि केरल में गणित की कई विधाएं, जैसे कैलकुलस, ट्रिगनामेट्री आदि बारहवीं सदी में ही विकसित कर लिया था। यानी, न्यूटन और लिबनिज के इस विधा को विकसित करने के लगभग पांच सौ साल पहले यह केरल में हो चुका था। संगम ग्राम के माधव ने इसे चौदहवीं शताब्दी में एक संस्थागत रूप प्रदान किया था। जॉर्ज वर्गीज जोसेफ ने अपनी किताब ‘दी क्रेस्ट आॅफ दी पीकॉक’ में इसका विशद वर्णन किया है। सरकार ने इसे आगे बढ़ाने के लिए कुछ ही साल पहले ‘केरल स्कूल आॅफ मैथेमैटिक्स’ की स्थापना की है।
इस संदर्भ में यह समझना जरूरी है कि ग्रामीण भारत से जुड़ी इन ज्ञान परंपराओं को राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल से जोड़ कर देखना बिलकुल ठीक नहीं है। अस्मिता के सवाल से जुड़ते ही ज्ञान की राजनीति शुरू हो जाती है। फिर हम इस तर्क-वितर्क में फंस जाते हैं कि अमुक विषय पर किसने पहले खोज की। उस विषय पर गहराई से शोध करने के बदले हम एक तरह की पराजित मानसिकता की तर्क-व्यवथा के शिकार हो जाते हैं। इस राष्ट्रीय अस्मिता के सवाल से परे सरकार, शैक्षणिक संस्थाओं और बुद्धिजीवियों को इस सभ्यता के बचे हुए स्रोतों को संवरना और खंगालना चाहिए। संभव है मनुष्य ने दुनिया के इस हिस्से में बहुत कुछ प्राप्त किया हो और उस पर शोध से मानवता का कुछ भला हो जाए। आज की भाषा में कहें तो हमें अपनी बौद्धिक संपदा के बारे में सचेत होना जरूरी है। सभ्यताओं का इतिहास राष्ट्र-राज्य के इतिहास से कहीं पुराना है और मानवता के प्रति उसका दायित्व भी ज्यादा है। इसलिए जो लोग अपने को इस सभ्यता के वाहक समझते हैं, उनका दायित्व है कि इन ज्ञान परंपराओं को मानव कल्याण से जोड़ कर देखें। समस्या यह है कि आधुनिकता विज्ञान जिस ज्ञान मीमांसा पर टिका है, उसका अपना दर्प है और जिन संस्थाओं और जिस तरह की राजनीति को इसने जन्म दिया है वही दर्प उनके व्यक्तित्व का हिस्सा है। परिणामत:, ज्ञान को शुद्ध ज्ञान के लिए, सत्य के लिए और मानवता के कल्याण के लिए देखने के बदले उसे बाजार और अस्मिता की कसौटी पर देखा जाने लगा है।