बंगाल: आभूषण बनाने में पारंगत कारीगर गुजार रहे हैं तंगहाली भरी जिंदगी

शंकर जालान

पश्चिम बंगाल में स्वर्ण आभूषण बनाने वाले लाखों कारीगर तंगहाली में जी रहे हैं। आंकड़ों के मुताबिक देश भर में जितने स्वर्ण आभूषण बनते हैं उसका 90 फीसद या तो बंगाल में बनता है या फिर विभिन्न राज्यों में रह रहे बंगाली कारीगर बनाते हैं। दिन-रात मेहनत करके ये कारीगर जितने खूबसूरत गहने बनाते हैं, इनकी निजी जिंदगी उतनी ही बदसूरत है। कारीगरों के मुताबिक साल-दर-साल आर्थिक स्थिति बिगड़ती जा रही है। असंगठित होने के कारण उनके हुनर पर समस्याओं का हथौड़ा भारी पड़ रहा है। मध्य कोलकाता के हंसपुकुरिया फर्स्ट लेन में कंगन बना रहे कारीगर अभिजीत गोइला ने जनसत्ता को बताया कि कई वजह से आभूषण बनाने वाले कारीगरों की स्थिति दयनीय हो गई है, जिनमें सबसे प्रमुख है मशीनों का आना। गोइला ने बताया कि जो कंगन बनाने में उसे सात से आठ घंटे लगेंगे वही कंगन मशीन से आठ से दस मिनट में बन जाएगा।

लिहाजा ज्यादातर बड़े-बड़े और नामी शोरूम वालों ने अपने यहां मशीनें लगा ली हैं। उसने बताया कि इनदिनों जंजीर (चेन) का निर्माण पूरी तरह मशीनों से ही किया जा रहा है। साथ ही कंगन, हार, झुमका और अंगूठी काफी हद तक मशीनों से बनाई जाने लगी है। इसी तरह सर हरिराम गोयनका स्ट्रीट के कारीगर ज्योति दास के मुताबिक पूंजी व मशीन की मार जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे आभूषण कारीगर बेरोजगार होते जा रहे हैं। दास का कहना है कि यदि यही स्थिति रही तो कारीगरों की संख्या घटकर सैकड़ों में सिमट जाएगी। उन्होंने बताया कि हमारी मजबूरी देखकर आभूषण विक्रेता मजदूरी में कटौती कर रहे हैं। दस ग्राम सोने का जेवर निर्माण करने पर एक ग्राम सोना देने की बजाए घटाकर 200 या 300 मिलीग्राम ही दे रहे हैं।

बड़तला स्ट्रीट में सोने पर रंग-बिरंगा मीना का काम करने वाले सुमंत बोर ने बताया कि आज से पांच-छह साल पहले तक वे रोजाना चार-पांच सौ रुपए कमा लेते थे, लेकिन आज कमाई घटकर डेढ़-दो सौ रुपए रह गई है। सुमंत ने कहा कि परिवार चलाने के लिए उधार लेने को मजबूर होना पड़ रहा है। उन्होंने कहा कि अब वे दूसरे काम की तलाश में हैं। सुमंत ने कहा- वह कोई भी काम करने को तैयार हैं, जिसमें रोजाना सात-आठ सौ की कमाई हो जाए। इस बाबत बंगीय स्वर्ण शिल्पी समिति के सचिव हरि प्रसाद सोनी ने कहा कि कारीगरों की न्यूनतम मजदूरी तय करने के साथ उन्हें अन्य सुविधा उपलब्ध कराने के लिए कई बार विचार-विमर्श किया गया, लेकिन इस दिशा में अभी तक पुख्ता तौर पर कुछ नहीं हो पाया है। उन्होंने बताया कि कुछ सालों पहले न्यूनतम मजूदरी पर सहमति बनी थी, लेकिन वह पूरी तरह सफल नहीं हो पाई।

बड़े शोरूम वालों ने कारीगरों में फूट डाल दी और संगठित नहीं होने के कारण कारीगर उनके झांसे में आ गए। सोनी का तर्क है कि हैंडमेड ज्वैलरी इंडस्ट्री से कारीगरों के पलायन की सबसे बड़ी वजह स्वास्थ्य समस्या है। जहरीली गैसों, खराब कामकाजी परिस्थितियां व कुछ अन्य कारणों कई रोग उन्हें जकड़ लेते हैं। वे कहते है कि बहुत ही कम शोरूम वाले हैं जो कारीगरों को बाजार के मानकों के मुताबिक मजदूरी देते हैं। कारीगरों को जमीन पर बैठ कर, बंद कमरे में काम करने को कहा जाता है, जहां रोशनी भी कम रहती है। और काम करने का कोई समय भी निश्चित नहीं होता है।

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