बाजार की मार में भी जगमगाते दीये
मृणाल वल्लरी
बहुत फर्क है पिछली और इस दिवाली में। लिखने, सोचने और बोलने का फर्क है। पिछली दिवाली के पहले तक एक एडॉप्टेड भाषा के तहत बस त्योहार और बाजार को कोसना। दशहरा मैदान में रावण के बाजार से लेकर करवा चौथ और दिवाली से लेकर दिल्ली जैसे महानगर में पिछले एक दशक में नया सजा छठ पूजा का बाजार। हर सोसायटी और मोहल्ले के बाहर लगा बुध, शनि या रवि बाजार। चमचमाता हुआ शॉपिंग मॉल का बाजार। पिछली दिवाली मनाने के बाद बाजार को कोस ही रहे थे कि हुकूमत ने बड़े नोटों की नोटबंदी का फरमान सुना दिया। पहले कुछ समझ न आया कि इसका कितना बड़ा असर होगा। नोएडा के लेबर चौक पर खड़ा मजदूर कह रहा था, छठ मनाकर लौटे थे। सारा पैसा खर्च हो गया, काम नहीं मिल रहा है, क्या करें? दिल्ली और एनसीआर के ज्यादातर लेबर चौक का यही हाल था। दिल्ली में चांदनी चौक, चावड़ी बाजार की जिन गलियों में खरीदने और बेचने वालों की भीड़ दहशत फैलाती थी, वहां सन्नाटा था। साप्ताहिक बाजार भी सूने पड़े थे। दिवाली, दशहरा मनाते और बाजार के विरोध में कविता-कहानी पढ़ कर बड़ी हुई एक पीढ़ी ने पहली बार इस तरह बाजार को बंद देखा था।
पहली बार लगा बाजार का चलना कितना जरूरी है, खरीदना और बिकना कितना जरूरी है। बिन बाजार सब सून था। पैसे की दिक्कत हर किसी को थी, हर कोई खर्च करने से डर रहा था। लेकिन किसी एक के पैसे खरचने का डर किसी दूसरे की भूख का कारण था। मेट्रो कार्ड तो डिजिटली रिचार्ज हो जाता था, लेकिन मेट्रो स्टेशन से दफ्तर तक जाने के लिए पैदल चलना ही मुनासिब था। ऐसे में अकसर रिक्शे वाले लोगों से यह कहते थे जितने पैसे हैं उतने ही देना।
इस दिवाली के पहले करवा चौथ का ही सूना बाजार उत्सव का माहौल फीका कर रहा। ब्यूटी पार्लर वाली किसी दार्शनिक की तरह कहती है कि सजना-धजना तो खाने-अघाने के बाद का काम है। महिलाएं घर का बजट, बच्चों के स्कूलों की फीस देखें कि डिजायनर मेहंदी लगवाए। ग्राहक बहुत कम हो गए हैं। बगल की ड्रायक्लीनर्स की दुकान पर एक औरत ने थैले से निकाल कर सिल्क का कुर्ता दिया। दुकानदार ने देखभाल कर रसीद पर कुछ लिखा। इसके बाद औरत की हिम्मत न हुई कि वह अपने थैले में रखे बाकी सिल्क के कुर्ते ड्रायक्लीन के लिए दे। सोसायटी के बाहर पेड़ के नीचे बैठने वाला दर्जी नोटबंदी के एक महीने के बाद से दिखा नहीं। सोसायटी की महिलाएं कपड़े नाप के करवाने जैसे छोटे-मोटे काम करवाती थीं और उसकी जिंदगी की गाड़ी चल जाती थी। छह महीने से ऊपर हो गएस वह वहां दिखा नहीं। चांदनी चौक में पटाखे वाला कह रहा कि अस्सी साल में पहली बार दुकान का शटर बंद रहेगा। अब तो चोर बाजार का ही सहारा है। दिवाली तो दुकान की देहरी पर दिया जलाने के लिए थी। इस बार पीछे से माल बेच रहे, कैसे पूजा करेंगे लक्ष्मी-गणेश की।
इस दिवाली फीके बाजार मायूस करते हैं। भीड़ वाले बाजार से आज पता नहीं, कहां और कैसे लोग बेदखल हो गए। मेट्रो में आराम से मिल रही सीट उन चेहरों के लिए डरा रही है जो महिला कोच में कहती थीं, ‘जरा शिफ्ट हो जाओ, एडजस्ट करो प्लीज’। सात की सीट पर ‘एडजस्ट’ हुर्इं 12 महिलाएं और भीड़ में जरा सीधी खड़ी रहो कि नोकझोंक। आज वह ‘भीड़’ दिल्ली मेट्रो के किराए का बोझ न ढो सकी और उसने अपनी जगह ज्यादा पैसों वालों को दे दी। बाजार की भीड़ भी ज्यादा पैसों वालों तक के लिए सिमट कर रह गई है। अगर बाजार है तो उत्सवों का राग है। ईद पर टोपियां, सेवइयां बेचने वाले, दिवाली पर मिट्टी के दीए बेचने वाले, करवा चौथ पर मेहंदी लगाने वाली, ये सब न किसी के दुश्मन हो सकते हैं और न समाज के।
ईद पर लोग गले मिलते रहें, दिवाली पर दिए जलते रहें। उत्सवधर्मिता बनी रहे और जुम्मन भाई से लेकर कमला चाची हंसी-खुशी जिएं। दिवाली है, बाहर निकलें और थोड़ी खरीदारी करें। बाजार का बचना जरूरी है।