महागठबंधन से मुकाबले के लिए अमित शाह ने तैयार की खास रणनीति, कस रहे एनडीए के ढीले पुर्जे

2014 की तरह क्या 2019 में भी एनडीए एकजुट रहेगा या फिर बिखराव का शिकार होगा।अगर बिखरेगा तो फिर संभावित विपक्षी महागठबंधन से मुकाबला करने में एनडीए कितना सक्षम होगा? ये सवाल बीजेपी और विपक्ष दोनों के जेहन में हैं। वजह कि 2019 की लड़ाई काफी कुछ हद तक एनडीए और विपक्षी एकजुटता के स्तर पर निर्भर करेगा। शायद यही वजह है कि हालिया उपचुनावों में लगातार मिली हार ने बीजेपी को सहयोगियों की सुधि लेने को मजबूर किया है। राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की शिवसेना से बुधवार(छह मई) को होने जा रही मुलाकात इस बात की तस्दीक करती है।अब तक एनडीए के जिस सबसे बड़े घटक दल शिवसेना को बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह अपेक्षित भाव नहीं देते थे,खुद कई दफा शिवसेना के नेता बीजेपी पर इसको लेकर हमला बोलते रहे, उसी के मुखिया उद्धव ठाकरे से अमित शाह की मुलाकात पर सियासी गलियारे में खास चर्चा है। कहा जा रहा है कि क्या हाल के दिनों में खुद को कमजोर पा रही बीजेपी अब फिर से एनडीए के ढीले पुर्जे कसकर मजबूत होने की कोशिश में है। अमित शाह का मानना है कि एनडीए को एकजुट होकर विपक्षी महागठबंधन को चित किया जा सकता है।इस नाते ‘एका’ जरूरी है।

2014 के चुनाव में बीजेपी ने अकेले दम पर 272 का जादुई आंकड़ा छू लिया था। जबकि एनडीए के दो दर्जन सहयोगियों में से 22 दलों ने भी 54 सीटें जीतीं थीं। जिससे लोकसभा में एनडीए की कुल 335 सीटें रहीं।एनडीए में सांसदों की संख्या के हिसाब से शिवसेना ही सबसे प्रमुख सहयोगी पार्टी रही, जिसके 18 सांसद रहे। पिछले कुछ समय से जिस तरह से बीजेपी के सहयोगी दलों ने नाराजगी दिखानी शुरू की है, उससे 2019 के पहले एनडीए में बिखराव की आशंका है। शायद अमित शाह इसे भांप लिए हैं। यही वजह है कि अब उन्होंने एनडीए के ढीले पुर्जे कसने की तैयारी की है। सभी सहयोगियों से बातचीत के जरिए गिले-शिकवे दूर कर मिशन 2019 के लिए कमर कसने मे जुटे हैं। इसकी शुरुआत अमित शाह ने उस शिवसेना के साथ बातचीत के लिए आगे बढ़कर की है, जिस पार्टी ने बीजेपी को दुश्मन नंबर एक बताया।

दक्षिण भारत में इकलौते प्रमुख सहयोगी दल टीडीपी ने मार्च में एनडीए का साथ छोड़ दिया।16 सांसदों वाले चंद्रबाबू नायडू ने केंद्र पर आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा न देने पर वादाखिलाफी का आरोप मढ़ने के बाद यह फैसला किया।उन्होंने अपने दो मंत्रियों से इस्तीफे दिलवा दिए।यह बीजेपी के लिए बड़ा झटका माना गया। जिसके बाद अन्य सहयोगी दलों ने दबाव की राजनीति शुरू कर दी। खास बात है कि फूलपुर, गोरखपुर सहित हालिया कैराना उपचुनाव में मिली हार ने एनडीए के घटक दलों को बीजेपी पर दबाव बनाने का मौका दिया।बीजेपी की कमजोर होती स्थिति को अपनी मांगे रखने के लिए सहयोगी दलों ने अनुकूल समय पाया। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि कैराना-नूरपुर और बिहार में जोकीहाट उपचुनाव में हार के बाद जिस तरह से जदयू ने बैठक कर 25 सीटों पर दावा ठोंका, वह इसी दबाव की राजनीति का उदाहरण है।

थोड़ा अतीत में चले तो बिहार में एनडीए के एक अन्य सहयोगी आरएलएसपी नेता उपेंद्र कुशवाहा भी नाराज चल रहे हैं। राज्य के शैक्षणिक संस्थानों में गुणवत्ता की मांग के बहाने राजद नेताओं के साथ मंच साझा कर बीजेपी को संकेत दे चुके हैं।पंजाब में शिरोमणि अकाली दल से भी हाल-फिलहाल बीजेपी के रिश्ते पहले जैसे सहज नहीं रहे।इसका अंदाजा फरवरी में शिरोमणि अकाली दल के नेता नरेश गुजराल के बयान से लगाया जा सकता है, जब उन्होने बीजेपी पर सहयोगी दलो को उचित सम्मान न देने का आरोप लगाया था। कहा था कि वाजपेयी के जमाने में जितना गठबंधन धर्म का पालन होता था, उतना आज नहीं है। बताया जा रहा है कि अमित शाह उद्धव ठाकरे से मुलाकात के बाद शिरोमणि अकाली दल मुखिया प्रकाश सिंह बादल से भी मीटिंग करेंगे। इसके बाद यह सिलसिला एनडीए के सभी घटक दलों के साथ चलेगा।

बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता का कहना है कि अलग-अलग वजहों से जमीन पर तमाम योजनाएं सही ढंग से नहीं उतर सकीं, जिससे जनता में नाराजगी है, 2014 में जो सपने दिखाए गए थे, वो पूरे नहीं होते दिख रहे। ऐसे में 2014 का करिश्मा 2019 में दोहराया जाएगा, इसमें संदेह है।ऐसे में बीजेपी भले 2014 में अकेले दम बहुमत हासिल की थी, उसे 2019 में सरकार बनाने के लिए गठबंधन की जरूरत पड़ेगी। शायद यही वजह है कि अब पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने सहयोगी दलों की सुधि लेनी शुरू कर दी है। गुरुवार(सात मई) को पटना में नीतीश कुमार की अध्यक्षता में एनडीए की बैठक होनी है। जिसमें रालोसपा नेत उपेंद्र कुशवाहा, लोजपा के रामविलास पासवान और बीजेपी से सुशील मोदी हिस्सा लेकर 2019 में बिहार को लेकर रणनीति तय करेंगे।

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