मासूमियत से यह कैसा खिलवाड़
इतिहास के पन्नों पर हो रही वर्तमान की सियासत में हमारा भविष्य भी अंधकारमय हो रहा है। ऐसा ही कुछ लगता है सोशल मीडिया में वायरल हुए बच्चे का वीडियो देख कर, जो हाथ में पत्थर उठाए वही बोल रहा है जो उससे बोलवाया जा रहा है। यह मासूम वही समझ रहा है जो उसे समझाया जा रहा है। विचारणीय यहां यह है कि बाल-मन को विरोध, नकारात्मकता और हिंसा की जो सीख दी जा रही है वह उस बच्चे या उसके परिवार के लिए ही नहीं, समाज के लिए भी घातक है। उग्र भीड़ के उन्माद में बच्चों को कच्ची उम्र में दी जा रही विचार और व्यवहार की इस दिशाहीनता से क्या हासिल होना है? जबकि यह किसी से छिपा नहीं है कि भारत में हिंसा प्रभावित इलाकों में पहले से ही बच्चे कैसा नरक भुगत रहे हैं।
गौरतलब है कि हाल ही में पुणे के पास स्थित भीमा-कोरेगांव में भड़की जातीय हिंसा ने जब आर्थिक राजधानी मुंबई सहित पूरे महाराष्ट्र को ठप कर दिया, तब एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ। वीडियो में एक बच्चा हाथ में पत्थर लिये नजर आ रहा है। इसमें बच्चा कहता है कि वह मराठाओं को मारने जा रहा है। दलित पार्टियों के विरोध-प्रदर्शन में एकत्र भीड़ में जब इस बच्चे पूछा गया कि आपके हाथ में यह पत्थर क्यों हैं? तो उसने कहा लोगों पर हमला करने के लिए। वीडियो में कोई पीछे से बच्चे से यह कहलवाता है कि हम पर मराठा लोगों ने हमला किया है और अब मैं उन्हें मारने जा रहा हूं। इतना ही नहीं, महाराष्ट्र में हुए इस विरोध-प्रदर्शन में बड़ी संख्या में किशोर भी तोड़-फोड़ और आगजनी करते नजर आए हैं। ये हालात वाकई चिंतनीय हैं, क्योंकि दुनिया का कोई भी हिस्सा हो, हिंसा और तनाव का खमियाजा बच्चों को भोगना ही पड़ता है। हमारे यहां भी आए दिन बन रहा तनाव का वातावरण बच्चों की मन:स्थिति ही नहीं बदल रहा बल्कि सड़क पर उतरी ऐसी भीड़ में उनकी संख्या भी बढ़ा रहा है।
गौरतलब है कि सीरिया के गृहयुद्ध में 2016 में कम से कम साढ़े छह सौ बच्चे मारे गए। देश की भावी पीढ़ी के लिए इसे यूनीसेफ ने आज तक का सबसे बुरा साल बताया है। यही नहीं, सीरिया के ज्यादातर युवाओं में बीमार कर देने वाले तनाव के लक्षण देखने को मिल रहे हैं। यूनीसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक ऐसे हालात के शिकार हुए बच्चों को वहां बाल मजदूरी, बाल विवाह और लड़ाई का हथियार बनाया जा रहा है। 2016 में कम से कम साढ़े आठ सौ बच्चों को सैनिक बनाए जाने की जानकारी है, जो कि एक साल पहले के मुकाबले दोगुनी है। ऐसे में सोचने वाली बात है कि ऐसा हिंसक परिवेश हमारे यहां भी बच्चों के मन-मस्तिष्क पर नकारात्मक असर ही डालेगा। यों भी अपने परिवेश में हिंसा और आक्रामकता के मंजर देखने वाले कितने ही मासूम मन जीवन-भर भय के अंधेरे से बाहर नहीं आ सकते।
सवाल है कि आज की सियासत आखिर बच्चों को क्या सिखा रही है? जिस बच्चे में ऊंच-नीच या भेदभाव की समझ नहीं, उसे इन समस्याओं में शामिल करना कितना सही है? ऐसे विरोध-प्रदर्शनों का हिस्सा बना कर हिंसा का पाठ पढ़ाना कैसी मानसिकता का परिचायक है? एक बच्चा, जिसे खुद ही नहीं पता कि वह कौन है, दूसरों की जान लेने की बात कर रहा है। हमारे भीतर भरी हिंसा और नफरत के लिए बच्चों को हथियार बनाना आखिर कितना सही है? राजनीति के इन प्रायोजित खेलों में सड़कों पर उतरे कम उम्र के बच्चों को आखिर इस भीड़ का हिस्सा बना कर क्या सिखाया जा रहा है? नासमझी की उम्र में ही उनकी समझ को दिशाहीन करना वाकई चिंतनीय है। ये बच्चे ही समाज के भावी नागरिक हैं। इस तरह के हिंसक प्रदर्शनों में उनकी मौजूदगी चौंकातीं ही नहीं, भयभीत भी करती है। मासूमियत के गुम होने का यह ग्राफ हमारे पूरे पारिवारिक-सामाजिक ताने-बाने के लिए ही नहीं, बल्कि प्रशासनिक व्यवस्था के लिए भी चिंतनीय विषय है। अपनी स्वार्थपरक सोच के चलते बच्चों को उन मुद््दों के लिए नकारात्मक बनाया जा रहा जिनकी उन्हें कोई समझ ही नहीं। यों हिंसक और संवेदनाहीन होता बचपन किस तरह के भावी भारत का निर्माण करेगा? बच्चों की मासूमियत पर उग्रता और असंवेदनशीलता साया डालना वाकई एक गंभीर चिंता का विषय है। सोचना जरूरी है कि यह विध्वंसक सोच आखिर कहां ले जाएगी?
हमारे देश में विचारधाराओं के इर्द-गिर्द बुने आंदोलन होते रहे हैं। व्यवस्था की असफलताओं से जनमी कुंठाओं से जूझने के लिए ऐसे प्रदर्शन लाजिमी भी हैं। लेकिन इस उग्रता और उन्माद को देख कर लगता है कि इन प्रदर्शनों को हवा देने वाले लोगों में व्यवस्था के सुधार और पूरे देश के हित की कोई इच्छा है ही नहीं। वे तो देश के भविष्य को ही गुमराह करने में लगे हैं। मासूम बच्चों के मन में घृणा के बीज बो रहे हैं। अफसोस कि राजनीतिक दल भी इन्हें अपनी स्वार्थपरता के मुताबिक हवा देते रहते हैं। इस खेल में हर पार्टी माहिर हो चली है। हालिया समय में सामने आया सबसे चिंतनीय पहलू यह है कि यों जुटने वाली भीड़ में बच्चे, किशोर और कम उम्र के युवा भी शामिल हो रहे हैं। देश का भविष्य कहे जाने वाले इन बच्चों का हिंसक व्यवहार प्रशासनिक अमले के लिए भी समस्या बन जाता है, बिना किसी जानकारी और जागरूकता के, कुछ लोगों के उन्माद में ये भागीदार बन रहे हैं। दरअसल, भारत ही नहीं, दुनिया भर में बच्चे आतंक और हिंसा के खेल का हथियार बनाए जा रहे हैं। हिंसा और भय फैलाने वालों का मानस ही कुछ ऐसा होता है कि वे बच्चे हों या युवा, किसी के विषय में नहीं सोचते। चिंतनीय यह है कि राजनीति और प्रदर्शनों के ऐसे हिंसक खेल में न बचपन की मासूमियत बच पा रही है और न ही भविष्य की उम्मीदें। यही वजह है कि रक्तरंजित खेल की बिसात पर दिख रहे इन जन-उभारों में नई पीढ़ी की ऊर्जा दिखती तो है, पर कोई नई दिशा नहीं।
विरोध-प्रदर्शन असल में समाज का असंतोष जाहिर करने के लिए होते हैं। इनकी सार्थकता तभी है जब इनमें भागीदार बनने वाले लोग चेतना-संपन्न हों। यह भागीदारी व्यवस्था में सुधार लाए और राजनीति का स्तर ऊपर उठाए, यही वांछनीय है। लेकिन अपने स्वार्थ साधने के फेर में कुछ लोग बच्चों की मासूमियत और युवाओं के उतावलेपन का फायदा उठाने से बाज नहीं आ रहे हैं। वे नई पीढ़ी को जागरूक और संवेदनशील बनाने के बजाय हिंसा और उग्रता का पाठ पढ़ा रहे हैं, जो न तो व्यक्तिगत रूप से हमारी भावी पीढ़ी के लिए के लिए हितकर है और न ही देश के लिए। युवा बदलाव के वाहक होते हैं। अपने देश और समाज की समस्याओं और चुनौतियों को जानना और इनसे पार पाने के लिए आवाज उठाना गलत नहीं है।परदिशाहीन होकर उन्मादी भीड़ का हिस्सा बनना कोई प्रभावी परिणाम नहीं दे सकता। इन्हें समझना होगा कि दायित्व-बोध के बिना दिखाया जाने वाला आक्रोश आमजन के लिए बड़ी मुसीबत बनता है। सोची-समझी राजनीतिक चालों के तहत फैलाई जाने वाली ऐसी अराजकता किसी का भला नहीं कर सकती। ऐसी भीड़ का यों होश गंवा कर हिस्सा बन जाना, नई पीढ़ी को कुछ नहीं दे सकता। अलबत्ता उग्रता, असंवेदनशीलता और अंधसमर्थन का व्यवहार समाज और उनके जीवन से बहुत कुछ छीन जरूर रहा है।