अमेरिकी मदद और पाकिस्तान

पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा पर इस समय लगभग वही दबाव है जो 2001 में पाकिस्तान के सैन्य तानाशाह परवेज मुशर्रफ पर था। न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड टॉवर पर उसामा बिन लादेन के आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने सीधे तौर पर पाकिस्तान को धमकाया था। अमेरिका ने सितंबर में पाकिस्तान को अफगानिस्तान के युद्ध में सहयोग देने के लिए धमकी का उपयोग किया था। अमेरिका ने कहा था कि अगर पाकिस्तान ने आतंकियों के खिलाफ छेड़े गए युद्ध में सहयोग नहीं दिया तो उसे पाषाण युग में पहुंचा देंगे। इसका असर यह हुआ कि मुशर्रफ ने एक हफ्ते के अंदर आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की तरफ से छेड़े गए युद्ध में साथ देने की घोषणा कर दी। आज बाजवा के सामने वही परिस्थिति है। बाजवा को डोनाल्ड ट्रंप की भाषा समझ आ रही है। ट्रंप ने साफ कहा कि आर्थिक सहायता तभी मिलेगी जब हक्कानी नेटवर्क पर पाकिस्तान अपने इलाके में कार्रवाई करे।
रावलपिंडी स्थित सैन्य मुख्यालय में वरिष्ठ सेना अधिकारियों की लगातार बैठकें हो रही हैं। आगे की रणनीति बनाई जा रही है। इस समय पाकिस्तान को पाषाण युग में गोला बारूद से बदलने की अमेरिका की चेतावनी नहीं है। लेकिन आगे विश्व बैंक और अंतराष्ट्रीय मुद्राकोष के सहारे पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने की रणनीति अमेरिका बना सकता है। हालांकि परिस्थितियां बदली हैं। पाकिस्तान पर सीधे सैन्य कार्रवाई का मतलब चीन से सीधा टकराव होगा। क्योंकि चीन का भारी निवेश इस समय पाकिस्तान में है। यही नहीं, अब पाकिस्तान में चीन के सैन्य अड््डे बन रहे हैं।

अमेरिका और पाकिस्तान के संबंधों को यथार्थ की कसौटी पर देखे जाने की जरूरत है। अमेरिका ने पाकिस्तान को मिलने वाली एक अरब डॉलर की सहायता राशि रोक दी है। लेकिन पाकिस्तान अमेरिकी दबाव में आने के बजाय सख्त जवाब दे रहा है। एक तरफ अमेरिकी सहायता राशि रोके जाने के संकेत आए। दूसरी तरफ पाकिस्तान चीन को एक और सैन्य ठिकाना देने की तैयारी में लग गया है। पाकिस्तान फिलहाल किसी तरह के दबाव में आने को तैयार नहीं है। अमेरिका का जो दबाव मुशर्रफ ने 2001 में झेला था वह अब पाकिस्तान के सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा झेलने को तैयार नहीं हैं। यही कारण है कि अमेरिका ने बातचीत के रास्ते खुले रखे हैं। अमेरिका कह रहा है कि पाकिस्तान आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई करेगा तो सहायता राशि बहाल कर दी जाएगी। यह 2001 से अलग भाषा है।

उस समय पाषाण युग में पहुंचाने की धमकी से पाकिस्तान घबरा गया था। परवेज मुशर्रफ ने कई तर्क देते हुए अफगानिस्तान में छेड़े गए युद्ध में अमेरिका को सहयोग देने की घोषणा कर दी थी। उन्होंने तर्क दिया था कि देश की सुरक्षा, परमाणु हथियारों की सुरक्षा और कश्मीर की आजादी की आवाज को मजबूत रखने तथा अफगानिस्तान में भारत के बढ़ते हस्तक्षेप को देखते हुए अमेरिका को युद्ध में सहायता देना जरूरी है। हालांकि इससे कट््टरपंथी नाराज हुए। मुशर्रफ को इसके परिणाम बाद में भुगतने पड़े। उन पर दो बार आतंकी हमले हुए।

पाकिस्तान ने साफ शब्दों में कहा है कि वह अमेरिकी धमकियों की परवाह नहीं करता है; पाकिस्तान अमेरिकी पैसे से नहीं चल रहा है। यही नहीं, पाकिस्तान ने कई आंकड़ों के साथ जवाब देते हुए अमेरिका को पाकिस्तान और अफगानिस्तान में युद्ध थोपने के लिए जिम्मेवार बताया। साथ ही, कहा कि अफगानिस्तान में अमेरिकी लड़ाई का सबसे बड़ा भुक्तभोगी पाकिस्तान है। ट्रंप की राय है कि पाकिस्तान को तैंतीस अरब डॉलर की सहायता राशि देना मूर्खता थी। पाकिस्तान कहता है कि आतंक के खिलाफ छेड़े गए युद्ध की भारी कीमत उसने चुकाई है। पाकिस्तान को 123 अरब डॉलर का नुकसान आर्थिक मोर्चे पर हुआ। पाकिस्तान का तर्क है कि तैंतीस अरब डॉलर में से चौदह अरब डॉलर तो वास्तव में अफगानिस्तान में बैठे अमेरिकी सैनिकों को रणनीतिक सहयोग देने में खर्च किया गया। नागरिक और सुरक्षा सहयोग के तौर पर पाकिस्तान को सिर्फ अठारह अरब डॉलर की राशि मिली है। ऐसे में पाकिस्तान को अब भी अमेरिका से सौ अरब डॉलर के करीब राशि और मिलनी चाहिए।

पाकिस्तान नई रणनीति के तहत ईरान से अपने संबंधों को बेहतर कर रहा है। वहीं चीन को अपनी जमीन का इस्तेमाल करने की अनुमति देने के बदले पाकिस्तान चीन से और आर्थिक मदद लेगा। पाकिस्तान का भूगोल ही उसकी रणनीति को मजबूत करता है। अमेरिका इसी भूगोल के चलते पाकिस्तान को आर्थिक सहायता देता रहा। सोवियत रूस के खिलाफ छेड़े गए युद्ध में पाकिस्तान का सहयोग अमेरिका को उसके भूगोल के कारण ही लेना पड़ा था। चीन भी पाकिस्तान के भूगोल की महत्ता को समझता है। चीन जिबूती के बाद पाकिस्तान के जिवानी में दूसरा सैन्य बेस बनाने जा रहा है। पाकिस्तान इसके लिए राजी है। जिवाकी ग्वादर बंदरगाह के पास है। यह ईरानी बंदरगाह चाबहार से नजदीक है। पाकिस्तान चीन को जिवाकी देकर भारत और अमेरिका दोनों की काट निकालने की योजना बना रहा है। पाकिस्तान अच्छी तरह जानता है कि अफगानिस्तान में मौजूद नाटो सैनिकों की एकमात्र आपूर्ति लाइन पाकिस्तान होकर जाती है, इसलिए अमेरिका एक हद से आगे नहीं जाएगा। इस समय चौदह हजार नाटो सैनिक अफगानिस्तान में हैं। 2011 में पाकिस्तान एक बार अपना गुस्सा दिखा चुका है। उस समय अमेरिकी फायरिंग में डूरंड लाइन पर मोहम्मंड एजेंसी के पास पच्चीस सैनिकों की मौत हो गई थी। तब पाकिस्तान ने नाटो सैनिकों की आपूर्ति लाइन रोक दी थी। मुश्किल से पाकिस्तान को मनाया गया था।

चीन इस समय एशिया में अमेरिकी प्रभाव को खत्म करने में लगा है। दिसंबर महीने में चीनी विदेशमंत्री के साथ अफगानिस्तान और पाकिस्तान के विदेशमंत्रियों की बैठक हुई। इस बैठक में चीन ने अफगानिस्तान के अंदर भी वन बेल्ट वन रोड के तहत पचास अरब डॉलर के निवेश का प्रस्ताव दिया। साथ ही अफगानिस्तान और पाकिस्तान के बीच तनाव खत्म करने के लिए मध्यस्थता के प्रस्ताव भी दिए। अफगानिस्तान का रुख यहां बदला नजर आया। इससे पहले अशरफ गनी ने भारत में संकेत दिए थे कि जब तक पाकिस्तान अफगानिस्तान के लिए भारत को जाने वाले व्यापार-मार्ग नहीं खोलेगा, अफगानिस्तान ‘वन बेल्ट वन रोड’ में भाग नहीं लेगा। यह स्थिति भारत के लिए असमंजस वाली है।

भारत और अमेरिका के बीच नजदीकियां तो बढ़ी हैं लेकिन अमेरिका का एकमात्र दबाव पाकिस्तान पर हक्कानी नेटवर्क को लेकर है। लश्कर और जैश जैसे आतंकी संगठनों पर अमेरिका बहुत ज्यादा दबाव डालने के लिए राजी नहीं है। भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती नजदीकी से ईरान भी परेशान है। भारत की दिक्कत यह है कि अफगानिस्तान में उसके पहुंचने का एकमात्र रास्ता ईरान है। चाबहार के जरिए ईरान ने भारत का रास्ता काबुल तक आसान कर दिया है। वैसे में ईरान की थोड़ी-सी नाराजगी भी भारत को मुश्किल में डाल सकती है। भारत और इजराइल के बीच बढ़ती नजदीकी से भी ईरान परेशान है। लिहाजा, भारत को पूरी तरह से संतुलन बना कर चलना होगा। पाकिस्तान अब भी हक्कानी नेटवर्क पर कार्रवाई के बजाय अमेरिका के सामने दो मसले उठा रहा है। एक तरफ कश्मीर की आजादी की बात पाकिस्तान लगातार कर रहा है तो दूसरी तरफ अफगानिस्तान की सीमा में बैठे पाकिस्तानी तालिबान के आतंकियों पर कार्रवाई की मांग भी पाकिस्तान लगातार कर रहा है। पाकिस्तान लगातार यह भी जताने की कोशिश कर रहा है कि आतंक के खिलाफ हुए युद्ध से सबसे ज्यादा उसके नागरिक ही प्रभावित हुए हैं; पाकिस्तान में साठ हजार के करीब लोग आतंकी हमलों में मारे गए हैं।

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