राजनीतिः धर्म के नाम पर
पिछले दिनों दिल्ली के रोहिणी स्थित एक तथाकथित आध्यात्मिक विश्वविद्यालय में लड़कियों के यौन शोषण का मामला सामने आया है। यौन शोषण हुआ है या नहीं, यह तो जांच के बाद ही पता चल पाएगा, लेकिन इस तथाकथित विश्वविद्यालय के अंदर कई महिलाएं बदहवासी की हालत में मिली हैं। आश्रम के संचालक बाबा के क्रियाकलाप भी संदिग्ध रहे हैं। आसाराम, रामपाल, राम रहीम और वीरेंद्र देव दीक्षित जैसे बाबाओं की एक लंबी सूची हमारे सामने है, जिससे यह सवाल उठता है कि हमारे समाज का एक खासा हिस्सा ढोंगी बाबाओं की गिरफ्त में क्यों है? हमारे देश में प्रभावी व्यक्तियों, राजनीतिकों और बाबाओं का गठजोड़ अंतत: समाज में विगलाव पैदा कर रहा है। इस दौर में धार्मिक आश्रमों के अनुयायियों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसीलिए सभी राजनीतिक दल इन आश्रमों को अपने पाले में करना चाहते हैं। इस चाहत में ये दल धार्मिक आश्रमों के अनुचित क्रियाकलापों को भी नजरअंदाज करते रहते हैं। दूसरी ओर, आश्रमों के प्रमुख अपने अनुयायियों को मनोवैज्ञानिक रूप से इस तरह जकड़ लेते हैं कि अनुयायी अपने प्रमुख के खिलाफ कुछ सुनना नहीं चाहते।
बाजारवाद के इस दौर में अध्यात्म का जिस तरह से बाजारीकरण किया जा रहा है वह दुर्भाग्यपूर्ण है। धर्म के इस बाजारीकरण से लोगों को मूर्ख बनाया जा रहा है। आज धर्म को जिस तरह से स्वार्थसिद्धि का साधन बनाया जा रहा है वह किसी से छिपा नहीं है। धर्म के नाम पर आज कई बाबाओं के क्रियाकलाप किसी भी लिहाज से धर्म की परिधि में नहीं आते हैं। बाबाओं द्वारा सजे-धजे मंचों से मोह-माया त्यागने के प्रवचन देना तथा अपने निजी जीवन में मोह-माया में लिप्त रहना आज एक सामान्य-सी बात हो गई है। धीरे-धीरे एक ऐसा तंत्र विकसित हो रहा है जो अपनी संपूर्ण ताकत झोंक कर धर्म का व्यवसायीकरण करना चाहता है। यह तंत्र काफी हद तक अपने उद््देश्य में सफल भी हो रहा है और इसी कारण आज इन लोगों के लिए धर्म पूर्णकालिक व्यवसाय बन गया है।
ऐसा नहीं है कि अपने निहित स्वार्थों के लिए धर्म का दुरुपयोग केवल इसी काल में किया जा रहा है। प्राचीन काल से ही कुछ ताकतें धर्म का गलत इस्तेमाल करती आई हैं। इन ताकतों ने अपने स्वार्थों को प्रमुखता देते हुए अपने-अपने तरीके से धर्म की व्याख्या शुरू कर दी। कुछ ऐसे मिथकों को स्थापित किया गया जिससे कि इनका एक अलग समानांतर शासन चल सके। धर्म के नाम पर जनमानस को भटकाने और ठगने की प्रक्रिया आज भी जारी है। आज हालत यह है कि धर्म के सहारे कई तथाकथित आचार्य, गुरु व मठाधीश अपार धन-दौलत बटोर रहे हैं। उन्हें धर्म एक ऐसा साधन दिखाई दे रहा है जहां शत-प्रतिशत सफलता की गारंटी है। आज राजनीतिक दल भी धर्म के नाम पर जनता की भावनाओं को खूब भुना रहे हैं। धर्म के इस परिवर्तित स्वरूप ने हमें एक ऐसे चौराहे पर ला खड़ा किया है जहां हम यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि हमें किस रास्ते पर आगे बढ़ना है। प्रश्न यह है कि इस तरह के तथाकथित आध्यात्मिक गुरु कब तक जनता की भावनाओं को भुनाते रहेंगे? और कब तक हम इनके संदिग्ध क्रियाकलापों को नजरअंदाज करते रहेंगे? अगर धर्म का व्यवसायीकरण इसी तरह जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब इस समाज से बची-खुची नैतिकता भी समाप्त हो जाएगी और शेष रह जाएंगे इंसान के रूप में आत्मविहीन ठूंठ। उस समय इस समाज की क्या हालत होगी? यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।
इस दौर में कई बाबाओं पर यौन शोषण के आरोप लगे हैं। इसके अतिरिक्त आज संपूर्ण देश के कुछ आध्यात्मिक आश्रमों व मठों में विभिन्न प्रकार के घिनौने कुकृत्य हो रहे हैं। दरअसल, आज बाबाओं का एक वर्ग सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण जिस वातावरण में जी रहा है वहां वासना का प्रस्फुटन कोई हैरानी की बात नहीं है। यदि अपने को बाबा और साधु-संत कहने वाले ही काम-पिपासु बनकर अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने लगेंगे तो हम आने वाली पीढ़ी को किस मुंह से नैतिकता की शिक्षा देंगे? नैतिक क्षरण के इस दौर में संत समाज ठीक ढंग से अपनी भूमिका तभी निभा पाएगा जबकि वह संत की परिभाषा पर खरा उतरे। अब समय आ गया है जबसंत समाज स्वयं अपने बीच में से कुकृत्य करने वालों को निकाल कर अलग पंक्ति में खड़ा करे।
आज आधुनिक साधु-संत और बाबा जिस तरह से विलासतापूर्ण जीवन जी रहे हंै उसे देख कर आश्चर्य होता है। उनके आश्रम महल जैसे दिखते हैं। आज कई आश्रम, अखाड़े व मठ जिस तरह से गंदी राजनीति का शिकार हो रहे हैं वह दुर्भाग्यपूर्ण है। मठाध्यक्ष बनने के लिए साधु-संतों के बीच जिस तरह का शक्ति-प्रदर्शन होता है उसे देख कर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि जनमानस को रास्ता दिखाने वाला यह समुदाय आज स्वयं ही अपने रास्ते से भटक गया है। आश्रमों तथा मठों की सत्ता पर कब्जा करने के लिए छल-कपट और अन्य तमाम तरह के हथकंडे अपनाए जाते हैं। इतना ही नहीं, इससे आगे बढ़ कर हिंसा भी होती है। धन-दौलत और धार्मिक संस्था या संगठन पर कब्जे की प्रतिद्वंद्विता में गंभीर अपराध के भी मामले मिल जाएंगे।
सच्चा संत तो मात्र प्रेम के रास्ते पर चलना जानता है। घृणा और द्वेष उसे छू भी नहीं पाते हैं। एक संत का हृदय इतना निर्बल कभी नहीं हो सकता कि घृणा और द्वेष उसके हृदय से प्रेम को बाहर निकाल कर वहां अपना घर बसा लें। आज साधु-संत जिस गति से राजनीति में आ रहे हैं वह भी हमारे समाज और देश के लिए शुभ नहीं है। जब साधु-संत राजनीति में आते हैं तो उनका कहना यह होता है कि वर्तमान में धर्म के अभाव में राजनीति गलत रास्ते पर जा रही है और धर्म के माध्यम से राजनीति को एक नई दिशा देने के लिए ही वे राजनीति में उतरे हैं। लेकिन वे राजनीति को तो कोई राह नहीं दिखा पाते बल्कि स्वयं राजनीति के माध्यम से भौतिक संतुष्टि की राह देख लेते हैं।
आज तथाकथित साधु-संतों और उनके पिछलग्गू धर्म के कुछ ठेकेदारों ने यह अच्छी तरह समझ लिया है कि भारत की जनता धर्म के नाम पर आंख मंूद कर और बिना कुछ सोचे-समझे, जो कहा जाय उसे करने को तैयार रहती है। व्यावसायिकता और कठिन प्रतिस्पर्धा के इस दौर में आज प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में मानसिक तनाव झेल रहा है। ऐसे में, एक बड़ा वर्ग अध्यात्म और धर्म के सहारे इस मानसिक तनाव को कम करने की कोशिश कर रहा है। धर्म के ठेकेदारों ने संघर्ष से जूझते आम आदमी की परेशानी को बखूबी समझ लिया है और वे इसी के सहारे अपना व्यवसाय चला रहे हैं। बड़े-बड़े बजट वाली कथाएं आयोजित कराना भी इसी प्रकार का एक व्यवसाय है। पिछले दस वर्षों में कथा आयोजनों की बाढ़-सी आ गई है। इन कथाओं का प्रवचन करने वाले संत और आयोजकगण स्वयं ही प्रवचनों में कही गई बातों के अनुरूप आचरण नहीं करते हैं। ऐसे में प्रवचन सुनने वाले श्रोताओं से यह आशा कैसे की जा सकती है कि उन पर प्रवचन का कोई प्रभाव पडेÞगा और वे उसी के अनुरूप आचरण करेंगे? अब समय आ गया है कि हम धर्म के नाम पर किसी भी साधु-संत या बाबा पर आंख मूंद कर विश्वास करने से पहले अपने मस्तिष्क के द्वार खोलें। अपने और समाज के हित के लिए हमें अपने अंदर वैज्ञानिक चेतना का विकास करना ही होगा।