राजनीतिः महानगरों के दड़बे

भारत जैसे आबादीबहुल देश में रोटी और कपड़े के बाद तीसरी सबसे अहम जरूरत मकान की उपलब्धता का इस वक्त क्या हाल है, इसका अंदाजा सरकारी आवासीय योजनाओं में आवेदकों की संख्या से होता रहा है। पर इन योजनाओं में फ्लैट के नाम पर काल कोठरी या मुर्गी के दड़बे जैसा घर देने की जो परंपरा दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) ने पिछली दो योजनाओं से शुरू की, उसका नतीजा यह निकला कि लोगों ने आवंटित फ्लैट लौटाने में ही भलाई समझी। हाल की डीडीए की आवासीय योजना-2017 के सफल आवेदकों में से साढ़े पांच हजार लोग अपना फ्लैट इसी वजह से छोड़ चुके हैं। इसके अलावा अगली-पिछली योजनाओं के कुल ग्यारह हजार से अधिक फ्लैट फंसे हैं। सवाल है कि आखिर घर देते समय सरकारी प्राधिकरण या निजी बिल्डर फ्लैट के औसत आकार का ध्यान क्यों नहीं रख रहे हैं।

दो साल पहले ग्लोबल प्रॉपर्टी कंसल्टेंट कंपनी- जेएलएल इंडिया ने देश के सात बड़े शहरों में बने नए घरों और फ्लैटों के आकार का आकलन किया था। पिछले पांच वर्षों के दौरान किए गए इस आकलन का नतीजा यह है कि इस दौरान औसत फ्लैटों के आकार में 26.4 फीसद तक की कमी आई है। इसकी वजह यह है कि महंगाई के कारण आवासीय क्षेत्र में बिक्री की गिरावट को देखते हुए बिल्डर बेहद छोटे फ्लैट बनाने लगे हैं, ताकि उन्हें कम कीमत पर बेच कर मांग बढ़ाई जा सके। कई शहरों में बन रहे छोटे फ्लैटों की तुलना तो मुर्गी के दड़बे से की जा सकती है, क्योंकि उनमें दो बच्चों वाला एक औसत परिवार भी मुश्किल से ही रह सकता है। ऐसे ही एक अन्य अध्ययन में पता चला है कि मुंबई में फ्लैटों के औसत आकार में सबसे ज्यादा 26.4 फीसद कमी आई है। इसके बाद फ्लैटों का आकार बंगलुरु में 23.7 फीसद, कोलकाता में 24 फीसद और चेन्नई में 22.7 फीसद तक घटा है। दिल्ली-एनसीआर में भी मझोले आकार के फ्लैटों का आकार 9.7 फीसद तक कम हो गया है, जबकि पुणे में यह गिरावट सात फीसद तक है।

सिकुड़ते फ्लैटों की यह समस्या नई नहीं है। एक दशक पहले वर्ष 2008 में इस समस्या का नोटिस लेते हुए नेशनल सैंपल सर्वे आॅर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) ने कुछ आंकड़े जारी कर बताया था कि 32 फीसद भारतीय शहरियों को रहने के लिए अमेरिकी जेलों में कैदियों को मिलने वाली जगह के बराबर या उससे भी कम जगह मिल पाती है। एक अमेरिकी कैदी के लिए जेल में न्यूनतम 60 वर्ग फीट निर्धारित है, जबकि हमारे शहरों में एक तिहाई आबादी के घर में औसतन 258 वर्ग फीट जगह ही होती है। इस जगह को 4.3 व्यक्तियों वाले औसत परिवार में विभाजित करने पर हरेक के हिस्से में अमेरिकी कैदियों जितनी या उससे भी कम जगह आ पाती है। इसी जगह में एक आम शहरी को अपने रहने, सोने, भोजन पकाने और शौचालय आदि का प्रबंध करना होता है।

बेशक, राज्यवार स्थितियों में थोड़ा अंतर है। जम्मू-कश्मीर, केरल, गुजरात, छत्तीसगढ़, पंजाब और राजस्थान में शहरियों के पास सांस लेने की जगह थोड़ी ज्यादा है। इसी तरह गांवों में 39 फीसद लोगों के घर प्रति व्यक्ति 65 वर्ग फीट की जगह मुहैया कराते हैं। लेकिन बीते 50-55 वर्षों में शहर और गांव, दोनों ही जगहों पर लोगों की जिंदगी तंग घरों में सिमटने की मजबूर हुई है और आज 55 फीसद शहरियों और 56 फीसद ग्रामीणों को प्रति व्यक्ति बमुश्किल दस गुणा दस की जगह में जिंदगी बसर करनी पड़ती है। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 17 करोड़ लोग झुग्गियों में रहते हैं, जहां का जीवन तो शायद अमेरिकी जेलों से भी कई गुना बदतर ही नहीं, नारकीय होता है।

असल में यह हमारे देश के आवास संकट का एक गंभीर पहलू है जिस पर हमारे योजनाकारों को निश्चय ही ध्यान देना चाहिए क्योंकि आगे चल कर इससे कई सामाजिक समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। समस्या सिर्फ व्यक्तिगत एकांत की नहीं है, बल्कि घरों के भीतर होने वाले शोर व अन्य व्यवधानों से लोगों की जिंदगी तक प्रभावित हो सकती है। कायदे से शहरों में जिस रफ्तार से सरकारी आवासीय योजनाओं में भी मकान-फ्लैट का आकार सिकुड़ता जा रहा है, वह एक चिंताजनक बात होनी चाहिए। पर अफसोस इस बात का है कि इस समस्या पर फिलहाल हमारे योजनाकारों की ज्यादा नजर नहीं पड़ी है।

दिल्ली विकास प्राधिकरण इस पर खुश हो सकता है कि वह पिछली योजनाओं के मुकाबले पिछले दो वर्षों में कई हजार ज्यादा फ्लैट जनता को मुहैया करा चुका है, पर इसका दूसरा पहलू यह रहा कि इस योजना के ज्यादातर फ्लैट एक कमरे वाले और छोटे आकार के थे। प्राधिकरण ने जो योजना निकाली थी, उसमें औसत मध्यवर्गीय परिवार की आवश्यकताओं को पूरा कर सकने की क्षमता दो कमरे वाले फ्लैटों की संख्या चार-पांच सौ ही थी। अब की योजनाओं में ज्यादातर फ्लैट छोटे आकार वाले एक कमरे वाले होते हैं जो दो बच्चों वाले परिवार की जरूरतों के लिहाज से काफी तंग माने जाते हैं। यही वजह है कि अब डीडीए छोटे फ्लैटों की सुध लेने की योजना बना रहा है। वह एलआइजी यानी एक कमरे के फ्लैटों के आकार में सुधार की बात कह रहा है और साथ ही, दो छोटे फ्लैट आपस में मिला कर एक ही आवदेक को देने की योजना बना रहा है।

रोजगार के सिलसिले में बाहरी लोगों के महानगरों में आ जाने से यहां की जमीन से लेकर बिजली-पानी जैसे सभी संसाधनों पर बेइंतहा दबाव पड़ रहा है। ऐसे में सरकार जैसे-तैसे लोगों को घर ही मुहैया करा दे, यही काफी होगा, आकार की बात तो बाद में होती रहेगी। पर मामला इतना सीधा और आसान नहीं है। रोजी-रोजगार के सिलसिले में नजदीकी इलाकों या राज्यों से दिल्ली आए लोग या तो गांव-देहात की अपनी सारी जमीन-जायदाद बेच कर या फिर हैसियत से कई गुना ज्यादा कर्ज लेकर घर लेने की कोशिश करते हैं। इसके बाद जब वे दड़बे जैसे घरों में रहने पहुंचते हैं तो उन्हें लगता है कि मानो वे आसमान से गिर कर खजूर में अटक गए हों। इन हालात में वे कई सामाजिक-मानसिक दबावों में घिर जाते हैं जो अंतत: कई दुष्प्रभावों के रूप में सामने आते हैं। ऐसा हाल अकेले दिल्ली या मुंबई का ही नहीं है, लखनऊ, कानपुर, पटना, रांची, इंदौर, भोपाल, चंडीगढ़ समेत तमाम उन सभी शहरों का भी है जो नौजवानों को कायदे का कोई रोजगार दिला देते हैं। इस समस्या का एक पहलू यह भी है कि शहरों के पास रिहाइश के लिए नाममात्र की जमीन बची है। जितनी जमीन वहां है, वह या तो निजी बिल्डरों के कब्जे में है या फिर किसान-प्राधिकरण के झगड़े में फंसी पड़ी है। इसका अंजाम यह निकला है कि आज देश में 2.7 करोड़ लोगों के पास रहने को घर ही नहीं हैं और वे झोपड़-पट्टियों में गुजर-बसर कर रहे हैं।

पर इस समस्या के कुछ हल फिर भी दिखते हैं। जैसे सरकार को सबसे पहले शहरों में खाली पड़े मकानों का आकलन करना चाहिए, जिन्हें विशुद्ध रूप से निवेश के मकसद से ही लिया जाता है। ऐसे खाली फ्लैटों-मकानों को जरूरतमंदों को किराये पर दिलाने की व्यवस्था सरकार को करनी चाहिए। दूसरा उपाय यह है कि युवाओं को उनके मूल स्थानों में ही रोजगार दिलाने का बंदोबस्त करे सरकार। अगर लोगों को अपने मूल स्थानों में ही रोजगार मिलने लगेगा तो वे महानगरों का रुख नहीं करेंगे। इस तरह मकानों का आकार घटाने की बिल्डरों की प्रवृत्ति पर अंकुश लग सकेगा।

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