राजनीतिः मालदीव का संकट और चीन की मंशा

मालदीव में घट रही घटनाओं से भारत अछूता नहीं रह सकता। ऐसे में मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति मोहम्मद नशीद की अपील को भारत हल्के में नहीं ले रहा। नशीद ने मालदीव के वर्तमान घटनाक्रम के मद्देनजर भारत से हस्तक्षेप की मांग की है। वहां के वर्तमान राष्ट्रपति अब्दुल्ला यामीन की तानाशाही इस समय चरम पर है। उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति मामून अब्दुल गयूम समेत सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को भी गिरफ्तार कर लिया है। वर्तमान राष्ट्रपति यामीन अब्दुल रिश्ते में गयूम के भाई हैं। गयूम की गिरफ्तारी के बाद उनका परिवार भी बंटा नजर आ रहा है। गयूम की बेटी दुन्या मामून ने, जो पूर्व में मालदीव की विदेशमंत्री रह चुकी हैं, नशीद की राय से असहमति जताई है। वे खुद गयूम और यामीन के बीच समझौता कराने की कोशिश कर रही हैं। भारत की चिंता इसलिए है कि मालदीव बहुत दूर नहीं है।

मालदीव के घटनाक्रम में चीन के प्रभाव के कारण भी भारत चुप नहीं बैठ सकता है। हालांकि हमेशा ही भारत की मुश्किलें पड़ोसी मुल्कों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप के बाद बढ़ी हैं। उधर मोहम्मद नशीद की अपील के बाद चीन सक्रिय है। चीन ने भारत को सलाह दी है कि वह मालदीव के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप न करे। हालांकि चीन जो कुछ मालदीव में कर रहा है, उसी ने भारत की चिंता बढ़ाई है। चीन का आर्थिक विस्तारवाद मालदीव में काफी हद तक पैर पसार चुका है। आशंका जताई जा रही है कि यह भविष्य में चीन के सैन्य विस्तारवाद में भी तब्दील हो सकता है। स्वाभाविक है कि हिंद महासागर में स्थित मालदीव की घटनाओं पर भारत लंबे समय तक चुप्पी नहीं साध सकता है। इससे पहले भारत ने 1988 में मालदीव में तत्कालीन राष्ट्रपति गयूम के आग्रह पर सैन्य हस्तक्षेप किया था, जब गयूम के तख्तापलट की कोशिश की गई थी।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चीन की रुचि मालदीव में कई कारणों से है। अफ्रीकी देश जिबूती और पाकिस्तान के ग्वादर में अपने सैन्य अड््डा बनाने के बाद चीन की नजर मालदीव पर है। उसने यामीन के सहयोग से मालदीव में काफी कुछ हासिल कर लिया है। अगर मालदीव पूरी तरह से चीन के नियंत्रण में आता है तो चीन की मैरीटाइम सिल्क रोड की योजना सफल हो जाएगी। यही नहीं, अफ्रीका से लेकर एशिया तक के समुद्री कारोबार पर चीन का एकछत्र राज होगा। चीन को इस दिशा में उम्मीद तब दिखाई दी, जब मालदीव ने वन बेल्ट वन रोड परियोजना में शामिल होने की घोषणा कर दी। इस योजना के तहत चीन बंदरगाह, हवाई अड््डे, गैस पाइप लाइन और पेट्रोलियम पाइप लाइन विकसित कर रहा है। मालदीव की वर्तमान सरकार ने अपने यहां चीन को खुलकर निवेश करने की अनुमति दे रखी है।

यही नहीं, यह अनुमति इस हद है कि इससे मालदीव की संप्रभुता के खतरे में पड़ जाने की आशंका जताई जा रही है। मालदीव सरकार ने नियमों में संशोधन कर विदेशियों को जमीन खरीदने की इजाजत दी है, ताकि चीन की कंपनियां बड़े पैमाने पर मालदीव में जमीन खरीद सकें। इस संशोधन के बाद विदेशी कंपनियों को एक अरब डॉलर तक की जमीन खरीदने की छूट मालदीव में मिल गई। इसके लिए अब्दुल्ला यामीन की सरकार ने 2015 में जमीन के मालिकाना संबंधी नियमों को संसद में पारित करवाया। चीन ने इसका लाभ तुरंत उठाया। यही नहीं, वर्तमान सरकार ने संसदीय प्रक्रिया को नजरअंदाज कर चीन के साथ पिछले साल मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किया।

मालदीव के राजनीतिक दल और वहां के लोग अपने देश चीन के निवेश को लेकर बंटे हुए हैं क्योंकि काफी लंबे समय बाद मालदीव में लोकतंत्र की बहाली 2008 में हो पाई थी। आज यहां एक पक्ष पूरी तरह चीनी निवेश के साथ खड़ा है। इसमें वर्तमान सरकार के समर्थक हैं। जबकि भारत समर्थक नशीद के सहयोगी चीनी निवेश पर तमाम सवाल उठा रहे हैं। नशीद ने चीनी निवेश को गुलाम बनाने वाला निवेश बताया है। उनका तर्क है कि चीनी निवेश के नाम पर भारी कर्ज मालदीव पर लादा जा रहा है। जिन योजनाओं में चीनी निवेश हुआ है उनकी कीमतें वास्तविक मूल्य से काफी बढ़ा कर बताई गई हैं। मालदीव के सरकारी खजाने पर इसका बुरा असर पड़ेगा।

हवाई अड्डे और बंदरगाह के विकास के नाम पर चीनी कंपनियां मालदीव को भारी कर्ज में धकेल देंगी। नशीद का कहना है कि मालदीव की भावी पीढ़ियां इसकी भुक्तभोगी होंगी, क्योंकि कर्ज चुकाने की क्षमता नहीं होगी। बाद में यही चीनी कंपनियां जो निवेश के नाम पर भारी कर्ज दे रही हैं, कर्ज न चुकाए जाने की स्थिति में उन सारी योजनाओं का मालिकाना हक मांगेंगी। चीनी कंपनियों ने यही श्रीलंका में किया। दरअसल, एशिया के कई देशों की नीतियों को चीन खासा प्रभावित कर रहा है। हालांकि इसके पीछे उसका मकसद भारत को घेरना ही नहीं है। चीन भारत को घेरने के प्रयासों के साथ-साथ एशिया प्रशांत क्षेत्र में अपने आर्थिक वर्चस्व को बढ़ाना चाहता है। मालदीव ही नहीं, पाकिस्तान, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल, म्यांमा, ये सभी चीन के ‘वन बेल्ट वन रोड’ के दायरे में हैं। इन मुल्कों में भारी निवेश की घोषणा चीन ने की है। पाकिस्तान में चीन ने वन बेल्ट वन रोड के तहत आर्थिक कॉरिडोर का काम तेज कर दिया है। इस कॉरिडोर पर लगभग 57 अरब डॉलर के निवेश का काम शुरू हो चुका है। नेपाल में भी चीनी कंपनियों ने आठ अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की है। वहीं बांग्लादेश में भी चीनी राष्ट्रपति ने पच्चीस अरब डॉलर के निवेश की घोषणा की थी।

दूसरी तरफ, चीनी निवेश के नाम पर श्रीलंका लगभग 3.3 अरब डॉलर के चीनी कर्ज के जाल में फंस चुका है। चीन अगर महज व्यापारिक दृष्टि भारत के पड़ोस में निवेश करे तो भारत उतनी चिंता नहीं करेगा। लेकिन चीन का छुपा उद्देश्य ही भारत की परेशानी है। ग्वादर में पहले चीन ने व्यापार के दृष्टिकोण से बंदरगाह विकसित करने की बात कही थी। लेकिन अब उसे चीनी सैन्य अड्डा बनाया जा रहा है। यही चीन ने श्रीलंका में भी किया। श्रीलंका के हैबनटोटा बंदरगाह को पहले व्यापारिक बंदरगाह के नाम पर चीन ने विकसित किया, लेकिन बाद में वहां सैन्य अड्डा बनाने की कोशिश की। भारत के प्रयासों से चीन की यह कोशिश विफल हो गई। मालदीव में भी चीन भविष्य में सैन्य अड्डा बना सकता है।

मालदीव में मुश्किल से बहुदलीय लोकतंत्र की बहाली हुई थी। 2008 में मालदीव में बहुदलीय आधार पर चुनाव करवाया गया। लेकिन अब फिर मालदीव तानाशाही के जाल में फंस गया। संसदीय परंपरा को ताक पर रख दिया गया। वर्तमान सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों को मानने से इनकार कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने उन सारे विपक्षी नेताओं को रिहा करने के आदेश दिए जिन पर अदालतों में मामले चलाए जा रहे थे। सुप्रीम कोर्ट ने बारह विपक्षी सांसदों की सदस्यता बहाली के आदेश दिए थे। अगर इन सदस्यों की सदस्यता बहाल हो जाती, तो यामीन की कुर्सी खतरे में पड़ सकती थी। क्योंकि संसद के पास राष्ट्रपति के खिलाफ महाभियोग का अधिकार है। विपक्ष से लेकर न्यायपालिका तक, सबको कैद करके यामीन ने फिलहाल अपनी सत्ता तो बचा ली है, पर इसी के साथ उन्होंने खुद को विश्व जनमत की निगाह में निंदा और तिरस्कार का पात्र भी बना लिया है।

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