राजनीतिः शहरी खेती की तजवीज

ती को तकनीक से जोड़ने में मिसाल कायम कर चुके इजराइल ने यह दिखाया है कि शहर का कोई भी कोना हो, वहां खेती मुमकिन है। छतों पर, दीवारों पर, सार्वजनिक भवनों (स्कूलों, थिएटर आदि) और यहां तक कि सड़कों के बीच और रेल पटरियों के बगल में भी। बेशक, शहरी खेती परंपरागत खेती की जगह नहीं ले सकती, लेकिन इसकी पूरक बन सकती है। 

जब इधर पहले टमाटर-प्याज के दाम आसमान पर पहुंचे, तो देश का शहरी वर्ग इससे सबसे ज्यादा आहत दिखाई दिया। यह वर्ग तब जरा भी चिंतित नहीं था, जब लगातार आठ महीनों तक टमाटर का थोक मूल्य महज दस रुपए किलो था। हालांकि इसकी खुदरा कीमत पच्चीस रुपए प्रति किलो थी, लेकिन किसानों को टमाटर पर काफी नुकसान इस बीच उठाना पड़ा। यही किस्सा प्याज का है। कई बार तो ऐसा भी हुआ, जब किसानों ने लागत मूल्य भी न मिलने पर आक्रोश में पूरी फसल सड़कों पर फेंक दी, क्योंकि उनके पास उसे शहरों तक पहुंचाने का खर्च उठाने की हिम्मत भी नहीं बची थी। ऐसे में सवाल उठता है, क्या शहरी तबका सब्जियां उगाने का महत्त्व समझता है?

शहर अपने भीतर सब्जियों की पैदावार की अहमियत को समझें। कुछ देश इस दिशा में काम कर रहे हैं। एक उदाहरण इजरायल का है। खेती को तकनीक से जोड़ने में मिसाल कायम कर चुके इजराइल ने शहरी खेती की एक नई अवधारणा का विकास किया है जो ग्रामीण खेती से अलग है। उसने यह दिखाया है कि शहर का कोई भी कोना हो, वहां खेती मुमकिन है। छतों पर, दीवारों पर, सार्वजनिक भवनों (स्कूलों, थिएटर आदि) और यहां तक कि सड़कों के बीच और रेल पटरियों के बगल में भी। बेशक, शहरी खेती परंपरागत खेती की जगह नहीं ले सकती, लेकिन इसकी पूरक बन सकती है।

परंपरागत खेती की तुलना में शहरी खेती बहुत कम जगह लेती है। फसलों के विकास में कम समय लगता है। भारी उपकरणों के साथ काम करने की जरूरत नहीं है। इसकी उपज में वजन कम और मात्रा ज्यादा होती है। इजराइल में शहरी खेती की विशेषज्ञ, हिब्रू विश्वविद्यालय में प्राध्यापिका क्यूकीरमान का तो इस बारे में मत है कि अगर आज के आधुनिक शहरों में खेती नहीं की जा रही है तो यह शहरी जनता के प्रति एक प्रकार का अपराध है। खेती में वहां जो ज्ञान विकसित किया गया है, उसे तकनीक के साथ जोड़ा गया है। वहां शहरियों को इसके लिए प्रेरित किया गया है कि कैसे आॅटोमेशन के जरिए कोई व्यक्ति खुद बेहद आसानी के साथ सब्जियां उगा सकता है। वहां ऐसी तकनीक का विकास किया गया है जिससे परंपरागत खेती के मुकाबले महज दस फीसद पानी का इस्तेमाल कर खेती की जा सके। यहां तक कि खारे पानी में भी खेती का इंतजाम किया गया है।

तकनीक के जरिए उपज की आॅटोमैटिक देखभाल होती है। वहां बताया जाता है कि कौन-सा पौधा किस माध्यम (पानी या मिट्टी) में रखा जाए। गैलिआ का कहना है कि औद्योगिक क्रांति से करीब दो सौ साल पहले, ज्यादातर लोग किसान थे और भोजन (फल, सब्जी, अनाज) उगाने का ज्ञान आम था। ऐसे में, शहरी खेती नया काम नहीं, बल्कि जड़ों की ओर लौटना है। यह समझने की जरूरत है कि शहर के आसपास के क्षेत्र में फसलें उगाने से कितना सकारात्मक फर्क पड़ता है। ताजा फलों और सब्जियों से ज्यादा पोषक तत्त्व मिलते हैं, आबादी की सेहत बेहतर होती है। खान-पान की आदतों में भी बदलाव होता है। जो आबादी हरी पत्तेदार सब्जियां ज्यादा उगाएगी, स्वाभाविक है कि वहां के बच्चे ये सब्जियां ज्यादा खाएंगे। यही नहीं, भोजन की बर्बादी भी कम होगी। परंपरागत खेती की उपज और इसका उपभोग करने वालों में दूरी के कारण भावनात्मक जुड़ाव नहीं होता। किसानों की मेहनत की इज्जत नहीं होती। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि पश्चिमी यूरोप में परिवारों में चालीस फीसद से अधिक भोजन फेंक दिया जाता है। ऐसे में शहरी खेती बदलाव का एक बड़ा आधार हो सकती है।
यह भी उल्लेखनीय है कि शहरी खेती में पैदावार कुछ ही घंटों में खेत से लेकर थाली तक की दूरी तय कर सकती है और लोगबाग उपज अपने पास ज्यादा समय तक रख सकेंगे। इसे विपणन और ढुलाई के ढेर सारे जंजाल से नहीं गुजरना होगा। ढुलाई की दूरी बहुत कम होने से वायुप्रदूषण घटेगा। पौधों-वनस्पतियों की मौजूदगी से शहर की आबोहवा में भी बदलाव आएगा। शहरी खेती की अवधारणा कैसे किसी जगह को बदल सकती है, इसका एक उदाहरण न्यूयॉर्क में मिला। वहां के औद्योगिक इलाके में स्थित एक इमारत में सिर्फ तीस फीसद जगह पर कंपनियों ने अपने दफ्तर खोले थे। लेकिन एक सुझाव के बाद उस विशाल इमारत की छत पर खेती शुरू की गई। ऐसा करते ही न सिर्फ इमारत पूरी तरह भर गई, बल्कि अब वहां एक वेटिंग लिस्ट बन गई है जिसमें लोग व कंपनियां जगह खाली होने का इंतजार कर रहे हैं। उस इमारत के सामने एक रेस्तरां भी खोला गया है जिसमें उस इमारत की छत पर होने वाली खेती से मिले उत्पादों का इस्तेमाल होता है।

 आज स्थिति यह है कि शहरी बच्चे भोजन और जीवन में सब्जियों का महत्त्व भूल गए हैं, जिससे वे जंक फूड के शिकार हो रहे हैं। कुछ ही महीने पहले, दिल्ली स्थित एम्स के जीव विज्ञान विभाग ने कक्षा 5 से 12 तक में पढ़ने वाले निजी स्कूलों के सात हजार बच्चों पर अध्ययन किया। उसका निष्कर्ष यह निकला है कि सामान्य बच्चों के मुकाबले चार गुना ज्यादा भोजन करने वाले ये बच्चे मोटापे और मधुमेह जैसी बीमारियों की जद में आते जा रहे हैं। इन खतरों के बावजूद ज्यादातर अभिभावक बच्चों के खानपान में तब्दीली करने को उत्सुक नहीं हैं क्योंकि खुद न तो उनके पास बर्गर-पित्जा आदि का विकल्प देने लायक समय है और न ही बाजार में इतनी मात्रा में फल-सब्जियां वाजिब दाम में उपलब्ध हैं कि वे इन विकल्पों को आजमा सकें।

सबसे अहम बात यह है कि दिल्ली ही नहीं, देश के ज्यादातर शहरों में अब फल-सब्जियां भोजन के एक प्रेरक तत्त्व के रूप में मौजूद नहीं हैं, जिससे लोगों में उन्हें लेकर कोई खास रुचि नहीं बची है। इसकी एक वजह यह भी है कि आधुनिक शहरी इलाकों से फल-सब्जी मंडियां तकरीबन गायब हो चली हैं। अब उनकी जगह सीधे घरों में फल-सब्जी की आपूर्ति करने वाली आॅनलाइन कंपनियां आ गई हैं। फल-सब्जियों की आॅनलाइन खरीदारी में उन्हें छूकर, महसूस करते हुए छांटने-सूंघने का विकल्प खत्म हो गया है। आॅनलाइन स्टोर प्लास्टिक-थैलों में बंद जैसे फल-सब्जी घर पहुंचा देते हैं, आम शहरी उतने से ही संतुष्ट हो जाते हैं। यह संतुष्टि भी असल में फल-सब्जी से शहरियों के रिश्ते को तोड़ने में सहायक सिद्ध हो रही है।

हमारे देश मेंशहरियों के फल-सब्जी से टूटते रिश्ते की एक झलक पिछले साल इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च आॅन इंटरनेशनल इकोनॉमिक रिलेशन के सर्वेक्षण से मिली थी, जिसमें बताया गया था कि दिल्ली-एनसीआर, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद और कोलकाता जैसे शहरों में लोग जरूरत के मुकाबले आधी या उससे भी कम फल-सब्जियां खा रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक इसकी न्यूनतम खपत प्रतिव्यक्ति पांच यूनिट होनी चाहिए, पर इन शहरों में यह औसत खपत 3.5 है। इसमें 1.5 यूनिट फल हैं और 2.5 यूनिट सब्जियां। हैरानी की बात है कि इस सर्वेक्षण में भी शहरों में फल-सब्जियों की कम उपलब्धता और कम लगाव की बात कही गई थी। बहरहाल, शहरी लोग अगर खुद सब्जियां उगाने का कोई प्रबंध करेंगे, तो इसका एक लाभ यह तो जरूर होगा कि वे किसान की मेहनत का अंदाजा लगा सकेंगे और कभी-कभार महंगे होने वाले टमाटर या प्याज पर वैसा रुदन नहीं करेंगे, जैसा फिलहाल अक्सर नजर आ जाता है।

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