राजनीतिक पार्टियों, धर्म-गुरुओं और श्रद्धालुओं के बीच एक मौन-सहमति
विकृत श्रद्धा
भारत के भीड़ तंत्र खास तौर पर अपने गुरुओं पर अपार आस्था रखने वाले श्रद्धालुओं की मानसिकता की थाह लेना आसान नहीं है। पता नहीं यह सबक इन श्रद्धालुओं ने कहां से सीख लिया है कि दुष्कर्म करने वाले और कानून द्वारा घोषित अपराधी के पक्ष में खड़े हो जाओ, आगजनी और उपद्रव करो और सत्ता को चुनौती दो! भर्त्सना अथवा निंदा करने के बजाय अपराधी के पक्ष में उतरो और सामाजिक मूल्यों और न्याय-प्रक्रिया की धज्जियां उड़ाओ! लोगों के इस अविवेकपूर्ण रवैये को देख हमारी अदालतों का सहम/ सिहर जाना स्वाभाविक है और यह न्यायपालिका के कार्य-निर्वहन के लिए कोई सुखद स्थिति नहीं है। दोषी को दंड देना न्यायालय का काम है और उस दंड को कार्यान्वित कराना सरकार का। अगर इसी तरह दबंगई का सहारा लेकर लोगबाग अपराधी का साथ देने लगे तो फिर न्यायप्रक्रिया की जरूरत ही क्या है! हमारी न्याय व्यवस्था में दोषी को पूरा अवसर दिया जाता है कि वह अपनी बेगुनाही साबित करे। गंभीर आरोपों के साबित होने पर ही सजा सुनाई जाती है।
दरअसल, हरियाणा जैसे अनियंत्रित उपद्रव बिना कारण परवान नहीं चढ़ते। राजनीतिक पार्टियों, धर्म-गुरुओं और श्रद्धालुओं के बीच एक मौन-सहमति बनी रहती है वोट लेने-देने के मामले को लेकर। कथित धर्मगुरु जानता है कि उसके पास श्रद्धालुओं की अकूत शक्ति रूपी जादुई चिराग है और वोट-लोलुप राजनीतिक पार्टियां भी अच्छी तरह जानती हैं कि धर्मगुरु उनका त्राता है। यदि वह उनके पक्ष में फतवा या फरमान जारी करे तो राजनीतिक रण में उन्हें भारी लाभ हो सकता है। यों धर्मगुरु भी हवा का रुख देख कर अपनी वफादारियां बदलते रहते हैं। श्रद्धालुओं में अपनी आशातीत लोकप्रियता और मजबूत पकड़ को वे भुनाने का भरसक यत्न करते हैं। इस प्रक्रिया में वे अपनी हर तरह की इच्छा-पूर्ति के लिए हर तरह का उचित-अनुचित काम करते हैं और आश्वस्त रहते हैं कि सत्ताधारी पार्टी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकती। मगर वे नहीं जानते कि अंतत: जीत हमेशा सत्य की होती है, असत्य की नहीं। देर से ही सही, पाप ने हमेशा पुण्य से शिकस्त ही खाई है। ‘सत्यमेव जयते नानृतम’। मुण्डक उपनिषद का यह आप्त-वचन राजनेताओं, धर्मगुरुओं और श्रद्धालुओं पर समान रूप से लागू होता है।
आखिर यह कैसी विडंबना है कि एक तरफ तो बलात्कारी को तुरंत गिरफ्तार करने के लिए हमारे देश के नागरिक एकजुट होकर काली पट्टियां बांध कर सड़कों पर कैंडल-मार्च आदि करते हैं मगर दूसरी तरफ एक बलात्कारी को सजा हो जाने पर ये नागरिक सजा के विरोध में सड़कों पर उतर कर शहर फूंक देते हैं! हमारे नागरिकों की यह कैसी मानसिकता है?
’शिबन कृष्ण रैणा, अलवर
हादसा बनाम हत्या
जिस प्रकार खतौली में रेलवे की लापरवाही के कारण दो दर्जन से ज्यादा लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी वह अप्रत्यक्ष हत्या ही है और उसी के अनुसार दोषियों पर कार्रवाई होनी चाहिए। जनमानस को दिखाने के लिए निलंबन, स्थानांतरण या छुट्टी पर भेज देना सजा नहीं है, यह तो एक लंबी प्रक्रिया का बहुत छोटा कदम है। इन लोगों का निलंबन कब समाप्त हो जाएगा और कब ये छुट्टी से वापस आ जाएंगे लोगों को पता भी नहीं चलेगा। जरा उन लोगों के बारे में सोचिये जिनके परिवार अपने परिजनों की अकाल मृत्यु के कारण जिंदगी भर के लिए बर्बाद हो गए।
यदि सरकार लोगों की जिंदगी और सरकारी संपत्ति को नुकसान से बचाने के प्रति गंभीर है तो ऐसे गैरजिम्मेदार लोगों के विरुद्ध तुरंत कानूनी करते हुए सजा दिलाए ताकि भविष्य में लोग अपनी जिम्मेदारी निभाने में कोई कमी न छोड़ें।
’यश वीर आर्य, देहरादून