राजपाटः मुश्किल राह
अमित शाह ने लक्ष्य तो जरूर दे दिया, पर पश्चिम बंगाल के भाजपाई उसे देखकर हांफ रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव के दौरान इस सूबे में भाजपा का वोटबैंक तो जरूर बढ़ा था पर सीटें दो ही मिल पाई थीं। उसमें एक तो दार्जीलिंग की सीट ही थी जो 2009 में भी गोरखा जनमुक्ति मोर्चे की मेहरबानी से ही मिली थी। बाबुल सुप्रियो ने जरूर आसनसोल सीट जीत कर हौसला बढ़ाया था भगवा पार्टी का। लेकिन पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में फिर ध्वस्त हो गए भाजपा के मंसूबे। एक तो सूबे में भाजपा के क्षत्रप पहले ही से गुटबाजी में उलझे हैं। ऊपर से अमित शाह कह गए कि पंचायत चुनाव से पहले हर मतदान केंद्र पर भाजपा की बूथ कमेटी बन जानी चाहिए। इसी महीने साबंग विधानसभा सीट के उपचुनाव के नतीजे ने भी भाजपा को नया जोश दिया।
पर बस इतना भर कि कांग्रेस से आगे निकल गई वह। कांग्रेस का गढ़ रही इस सीट पर दूसरे नंबर पर तो फिर भी नहीं आ पाई। दूसरे नंबर पर आने का सपना माकपा ने तोड़ दिया। मुकुल राय पर है अब सारा दारोमदार। लेकिन जानकार दूसरी राय रखते हैं। यही कि मुकुल राय कभी भी ममता बनर्जी से अलग अपना वजूद नहीं बना पाए। तृणमूल कांग्रेस में बड़ी हैसियत तो जरूर रही पर ममता की बदौलत। ऐसे में वे बूथ स्तर तक भाजपा का विस्तार कर पाएंगे, कहना मुश्किल है। 77 हजार हैं सूबे में बूथ। शहरी इलाकों में तो फिर भी आरएसएस का प्रभाव काम आ रहा है पर दिक्कत ग्रामीण इलाकों में ज्यादा है। फिर कैसे देगी भाजपा पंचायत चुनाव में ममता को टक्कर।