वक्त की नब्ज- दावोस के बाद
अगले हफ्ते प्रधानमंत्री मोदी दावोस जा रहे हैं, दुनिया के सबसे धनवान निवेशकों को आश्वासन देने कि भारत निवेशकों का स्वागत करता है। एक समय था, कोई दस साल पहले, जब भारत छा-सा गया था इस बर्फीले शहर में। याद है मुझे कि विश्व आर्थिक मंच के इस वार्षिक सम्मेलन में किस तरह देर रात तक दावोस के रेस्तराओं में गूंजते थे हिंदी फिल्मी गीत और भारतीय उद्योगपतियों की इतनी इज्जत थी कि जहां जाते थे, उनका सम्मान किया जाता था। ये वे दिन थे जब लाइसेंस राज के समाप्त होने का असर महसूस होने लगा था दुनिया को और विदेशी निवेशक भारत को उन नजरों से देखने लगे थे, जिन नजरों से कभी चीन को देखा करते थे। दावोस में चर्चा थी कि बिलकुल वैसे जैसे चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था में सुधार ला कर छलांग मार कर इक्कीसवीं सदी में कदम रखा था, वैसे ही भारत करने वाला है। इस विश्वास को और मजबूत किया चंद्रबाबू नायडू जैसे मुख्यमंत्रियों ने, जिन्होंने दावोस आकर आश्वासन दिया कि उनके राज्य में जो भी निवेश करने आएगा, उसको हर सुविधा मिलेगी और कोई भी लालफीताशाही का सामना नहीं करना पड़ेगा। समस्या अपने भारत देश की यह है कि वह सुनहरा क्षण ऐसे गायब हुआ देखते-देखते, कि जैसे यथार्थ नहीं, सपना था।
क्यों ऐसा हुआ? किसके कहने पर ऐसा किया गया? इन सवालों के जवाब नहीं हैं मेरे पास, लेकिन इतना जरूर कह सकती हूं कि नरेंद्र मोदी जब प्रधानमंत्री बने थे, तो ऐसा लगा था दुनिया के निवेशकों को कि भारत फिर से महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करने वाला है विश्व की अर्थव्यवस्था में। सो, सवाल यह है कि ऐसा अभी तक हुआ क्यों नहीं है? जब विश्व की अर्थव्यवस्था दौड़ने लगी है, तो इस दौड़ में भारत क्यों नहीं दिख रहा है?इन सवालों के जवाब अगर हैं किसी के पास तो भारत सरकार के आला अधिकारियों के पास, क्योंकि उन्हीं की वजह से प्रधानमंत्री मोदी ने वे कदम नहीं उठाए हैं, जिनके अभाव के कारण भारत का जिक्र तक नहीं हो रहा है आज दुनिया के बाजारों में। मोदी ने नारे तो बहुत अच्छे दिए हैं। विकास और परिवर्तन का नारा। मेक इन इंडिया का नारा। स्टार्टअप इंडिया का नारा। स्किल इंडिया का नारा। पर समस्या उनकी यह है कि इन नारों को हकीकत में बदलने का काम उन्होंने उन्हीं आला अधिकारियों को सौंपा है, जिनको परिवर्तन शब्द से घृणा है। परिवर्तन जिस दिन वास्तव में आएगा भारत में, तो इन आला अधिकारियों की शक्ति आधी हो जाएगी, सो ऐसा क्यों होने देंगे?
ऐसा नहीं कि विदेशी पैसा भारत में निवेश नहीं हो रहा है। हो रहा है, बहुत बड़े पैमाने पर, लेकिन उन नई योजनाओं में नहीं, जो देश को असली लाभ पहुंचा सकती हैं। ज्यादातर विदेशी पैसा उन चीजों में निवेश हो रहा है, जो पहले से बन चुकी हैं। शेयर बाजार में निवेश हो रहा है, जहां से क्षणों में गायब हो सकता है जब किसी दूसरे देश की अर्थव्यवस्था भारत से बेहतर लगने लगती है। जब भारत के उद्योगपति अपने देश में निवेश करना नहीं चाहते हैं, तो विदेशी क्यों करने आएंगे? हमारे अपने लोग निवेश इसलिए नहीं कर रहे हैं, क्योंकि उनके लिए न लालफीताशाही कम हुई है और न कारोबार करने का माहौल सुहाना हुआ है मोदी के दौर में। उनकी समस्याओं का समाधान मोदी आसानी से कर सकते, अगर उनसे भेंट लगातार करते रहते पिछले चार सालों में। अजीब बात यह है कि मोदी विदेशी उद्योगपतियों से बेझिझक मिलते रहे हैं, लेकिन भारतीय उद्योगपतियों से तकरीबन बिलकुल नहीं। सो, मेरे जानकार कई बड़े उद्योगपति इस साल दावोस इस उम्मीद से जा रहे हैं कि वहां उनको प्रधानमंत्री से मिलने का मौका मिलेगा और उनके सामने वे अपनी समस्याएं रख सकेंगे। लेकिन क्या ऐसा होने देंगे भारत सरकार के आला अधिकारी, जो मोदी के साथ उपस्थित होंगे दावोस में? या वैसे ही प्रधानमंत्री को घेरे रखेंगे, जिस तरह घेरे रखते हैं दिल्ली में?
मोदी विदेशी निवेशकों का स्वागत बेशक करें। अच्छी बात है, ऐसा करना। लेकिन विदेशी निवेशकों के आने से नहीं पैदा हो सकते हैं रोजगार के अवसर, जिनकी भारत के नौजवानों को सख्त जरूरत है। ये तभी पैदा होंगे, जब भारतीय निवेशक (छोटे और बड़े दोनों) नए उद्योगों, नए कारोबारों में निवेश करना शुरू करेंगे दोबारा। जरूरत सिर्फ बड़े उद्योगों-कारखानों की नहीं है, जरूरत है छोटे-मोटे कारोबारों की भी। पिछले हफ्ते मैं जोधपुर में थी, सो वहां से एक उदाहरण पेश करती हूं।
कुछ साल पहले जोधपुर के दो भाइयों ने इस शहर के पुराने बाजार में एक टूटी-पुरानी हवेली खरीदी और उसकी मरम्मत करके एक छोटा-सा होटल बनाया महरानगढ़ किले के साए में। इस होटल की खूब चर्चा होने लगी विदेशी पर्यटकों में और जब बड़ी तादाद में आने लगे, तो इस पुराने बाजार में एक नई जान आ गई। सो, आज वहां बड़ी-बड़ी दुकानें आ गई हैं, जिनमें ऐसा सामान बेचा जाता है, जो भारत के कारीगरों ने बनाया है और हर कोने पर खुलने लगे हैं नए होटल और रेस्तरां। यानी हजारों नौकरियां इस छोटे से बाजार में पैदा हो गई हैं आज, जहां पहले बिलकुल नहीं थीं। ये सब हुआ है बिना सरकार की मदद से और ऐसा हो सकता है भारत में जगह-जगह अगर सरकारी अधिकारी दखल न दें। समस्या यह है कि मोदी के दौर में सरकारी अधिकारियों की शक्ति बढ़ी है कम होने के बदले, क्योंकि उन्होंने अपनी योजनाओं को सफल बनाने का सारा काम इनके हाथों में दे रखा है। दावोस से वापस लौटने के बाद उनको असली परिवर्तन लाना होगा, अगर अगले साल फिर से प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं।