व्यवस्था से लड़ती एक भली औरत
अजित राय
भारत के 48 वें अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह ( गोवा) के विश्व सिनेमा खंड में दिखाई गई सर्जेई लोजनित्स की रूसी फिल्म ‘अ जेंटिल क्रिएचर’ मर्दों की व्यवस्था में एक अकेली औरत के अमानवीय अपमान का दस्तावेज है। आज के रूस में यदि ऊपर तक आपकी कोई जान पहचान नहीं है तो आपकी कोई नहीं सुनेगा।
रूस के एक सुदूर गांव में अकेली रहनेवाली महिला को एक दिन अपने पति को जेल में भेजा हुआ पार्सल लौटती डाक से मिलता है। परेशान होकर वह जेल जाकर यह पता लगाने का फैसला करती है कि पार्सल क्यों लौटा? अपमान और हिंसा से बेपरवाह वह विपरीत परिस्थतियों में भी अपने पति की खोज जारी रखती है। जेल के भीतर और बाहर भ्रष्टाचार और अन्याय का बोलबाला है जहां उसकी मदद करने वाला कोई नहीं है।
सर्जेई लोजनित्स ने सुप्रसिद्ध रूसी लेखक फ्योदोर दोस्तव्स्की की इसी नाम की कहानी से फिल्म का नाम रखा है। फिल्म की बुनावट पर काफ्का और गोगोल की रचनाओं का भी साफ असर है। रूस में इस फिल्म की शूटिंग नहीं हो सकती थी, इसलिए इसे लातीविया के एक ऐसे शहर में शूट किया गया जहां स्तालिन के जमाने की विशाल जेल की इमारत है। लोजनित्स अपनी डाक्यूमेंटरी फिल्मों के कारण जाने जाते हैं। इस फिल्म का छायांकन भी इसी शैली में किया गया है।
फिल्म के कई दृश्य दिल दहलाने वाले हैं। भीड़ से भरे डाकघर में लंबी लाइन पार कर जब वह औरत खिड़की पर पहुंचती है तो उसे कोई ठीक जवाब नहीं मिलता। पीछे खड़े मर्द न सिर्फ उसका मजाक उड़ाते हैं बल्कि एक तो उसके मुंह पर थूकने की धमकी देता है। बस में लोग किसी दुर्घटना पर ऐसे बात करते हैं जैसे यह सब आम बात है। मानवाधिकार कार्यालय में जो दृश्य है, वह हास्यास्पद है। अपराधियों, नशेड़ियों, वेश्याओं, लुटेरों, पुलिस और जेल के सुरक्षा गार्डों से गुजरती हुई यह भद्र महिला हर कीमत पर अपनी न्याय की खोज जारी रखती है। आधी रात एक छोटे से रेलवे स्टेशन के मुसाफिरखाने में वह एक भयानक सपना देखती है जहां फिल्म के सारे चरित्र रूस के लाल-सफेद राष्ट्रीय लिबास में बारी-बारी अपना बयान दे रहे हैं कि इस औरत के साथ क्या-क्या गुजरी है। यह एक फैंटेसी सिक्वेंस है जो आधुनिक रूस की व्यवस्था की बखिया उधेड़कर रख देता है।
अंतिम दृश्य में वह औरत सपने से जागती है। एक दूसरी औरत उसे अपने साथ चलने को कहती है जिसके पास उसके पति का सुराग है। फिल्म हमें यातना के अंतहीन जंगल से गुजारते हुए रहस्यमय उम्मीद पर खत्म होती है। वसीलीना माकोव्तसेवा ने मुख्य चरित्र निभाया है। नाओमी क्वासे की ‘हिकारी’ , जिसे अंग्रेजी में ‘रेडियंस’ ( चमक) कहा गया है, आधुनिक जापानी सिनेमा मे मील का पत्थर बनने की राह पर है। अपनी पिछली फिल्मों- ‘स्टील द वाटर’ (2014) और ‘स्वीट बींस’ (2015) की भावभूमि का विस्तार करते हुए उन्होंने एक ऐसा मेलोड्रामा रचा है कि चकित होना पड़ता है। एक लगभग अंधे हो चुके फोटोग्राफर मासाया नाकामोरी (माजातोसी नगाशे)और अंधे लोगों के लिए फिल्मों का वर्णन लिखनेवाली उत्साही लड़की मिसाको ओजाकी (अयामे मिसाकी) की दोस्ती के आईने मे दिन-रात, जंगल-समुद्र, गांव-शहर , धरती-आकाश को देखने में रौशनी की चमक को महसूस किया जा सकता है। नाओमी क्वासे ने अंधे हो रहे नायक की संवेदना से ध्वनियों का कोलाज रचा है। हवा पानी लहर से लेकर कैमरे की क्लिक और प्रकृति हर आवाज से दृश्य बनाने की कोशिश की है। एक फिल्म शो मे दोनों मिलते हंै और चित्रों के जरिए अपने अपने अतीत का वह चमकदार संसार देखते है जो अबतक उनसे ओझल था। वह कहता है – ‘हमारी आंखों के सामने जो गायब हो जाता है,उससे अधिक खूबसूरत कुछ भी नहीं है।’
एक मार्मिक दृश्य में सड़क पर गिरने के बाद एक युवक उसका कैमरा लेकर भाग जाता है। वह उठता है और उसके स्टूडियो जाकर कैमरा वापस छीनते हुए कहता है – ‘कैमरा मेरा दिल है भले ही अब मैं इस्तेमाल नहीं करता।’ उसकी पत्नी उसको छोड़ गई है। उसके पास अतीत की सुनहरी यादें है जब वह फोटोग्राफी का नायक हुआ करता था। उसकी आंखों मे जो थोड़ी रौशनी बची है कैमरा वहां से चीजों को दिखाता है।