शहीदों को याद करने की उन्हें फुरसत नहीं
राज खन्ना
मलिकपुर गांव में कपड़े से ढंकी एक प्रतिमा सबका ध्यान खींचती है। एक शहीद की इस प्रतिमा को बने चार माह हो चुके हैं, लेकिन देश के बड़े लोगों, भाग्य विधाताओं के पास इतना वक्त नहीं है कि वे यहां आकर शहीद जवान की प्रतिमा का अनावरण करें। शहीद के परिजन इस बेरुखी से हताश हैं, पर उन्हें उम्मीद है कि एक न एक दिन, कोई तो इस शहादत को सम्मान देने को तैयार होगा। उन्हें इसी बात से तसल्ली मिल जाएगी कि देश के लिए कुरबान होने वाला उनका लाड़ला कम से कम लोगों की यादों में जिंदा है। 8 अगस्त 2016 को कश्मीर केकुपवाड़ा में आतंकियों से मुठभेड़ में रामशब्द यादव का अविवाहित बेटा महेंद्र यादव शहीद हो गया था। वह बीएसएफ में उपनिरीक्षक था। शहादत के बाद उसके अंतिम संस्कार में भारी भीड़ उमड़ी थी। सरकार-प्रशासन सबने बड़े वादे-घोषणाएं की थीं। भीड़ की पुरनम आखें, तनी मुट्ठियां और जब तक सूरज- चांद रहेगा के जोशीले नारे थे। लेकिन वक्त गुजरते ही सरकार और मजमे ने सब बिसरा दिया। महेंद्र के पिता रामशब्द ने बेटे की समाधि के लिए दो गज जमीन मांगी थी। तत्कालीन डीएम ने वादा किया था। वह वादा धरा का धरा रह गया।
तत्कालीन मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने शहीद के परिवार को बीस लाख रुपए की आर्थिक सहायता दी थी। प्रशासन ने शहीद परिवार को यह चेक थानेदार के जरिए भेजा था। रामशब्द कहते हैं कि जब बेटा ही नहीं रहा तो पैसे क्या होगा? शहीद बेटे की यादों में वे जीते हैं और वही उनकी सबसे कीमती पूंजी है। ख्वाहिश उनकी यही है कि महेंद्र का बलिदान लोगों को याद रहे। खासकर युवा पीढ़ी उससे प्रेरणा ले। इसी उम्मीद में उन्होंने मुख्यमंत्री से मिली पूरी रकम शहीद महेंद्र की प्रतिमा और स्मारक स्थल के निर्माण में खर्च कर दी।
अब चार महीने गुजर चुके हैं शहीद की प्रतिमा स्थापित हुए। पिता और परिवार को शहीद की अंत्येष्टि के वक्त उमड़े लोगों की संवेदना और जोश की याद थी। तकरीबन डेढ़ साल का वक्त बीतते सब भुलाया जा चुका है।
प्रतिमा अनावरण के लिए गृहमंत्री, बीएसएफ के महानिदेशक सहित अन्य नामचीन हस्तियों से गुजारिश के जवाब में रामशब्द को निराशा हासिल हुई। स्थानीय सांसद वरुण गांधी ने भी बस प्रतिमा अनावरण का वादा किया है। तारीख जानने की कोशिश में रामशब्द यादव को जवाब में वरुण के सचिव की बार-बार फोन न करने की नसीहत मिलती है। महेंद्र के छोटे भाई की नौकरी और विभागीय मदद के वादे भी जहां के तहां हैं। जाहिर है इस उपेक्षा और उदासीनता से शहीद परिवार बेहद आहत है। एक पिता की उदास आंखों से आंसू ढलकते हैं और सवाल करते हैं कि क्या देश के लिए कुरबान होने वाले ऐसे ही याद किए जाते हैं।