सब्र की इंतिहा, जंग का मूड

यशवंत सिन्हा की तुलना अरुण जेटली और नरेंद्र मोदी ने कर्ण के सारथी शल्य से कर अपनी ही भद पिटवाई। सिन्हा अस्सी पार के हैं। उनके साहस की सराहना करनी चाहिए। जेटली ने अस्सी की उम्र में नौकरी तलाशने का आरोप लगा कर उनका उपहास उड़ाया। भूल गए कि वे आइएएस की चमक-धमक वाली नौकरी छोड़ कर राजनीति में कूदे थे। शुरुआत में डीटीसी कर्मचारियों की यूनियन का अध्यक्ष तक बनने से परहेज नहीं किया था। कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री थे तो उनके निजी सचिव के नाते राजनीति के दांवपेच सीख लिए थे। मोदी से नाराजगी की वजह अपनी अनदेखी तो हो सकती है पर पद की चाह नहीं। फिर देश की आर्थिक नीतियों की आलोचना करने का मतलब सरकार का विरोध तो है नहीं। लोकतंत्र की दुहाई देने वाले मामूली आलोचना भी नहीं सह सकते तो फिर सबके साथ और सबके विकास का नारा क्यों लगाते हैं। यशवंत सिन्हा अकेले नहीं हैं। वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे और भी कई कद्दावर नेता मोदी-शाह और जेटली की कार्यशैली से रुष्ट हैं। शत्रुघ्न सिन्हा, राम जेठमलानी और अरुण शौरी किस-किस को पदलोभी कह कर खारिज करेंगे। आडवाणी, जोशी और शांता कुमार भी बोल भले न रहे हों पर खुश भी तो नहीं हैं। गनीमत है कि चौतरफा विरोध का अहसास कर मोदी सरकार ने झुकने में भलाई समझी है और जीएसटी के ढांचे में कुछ राहत देने को तैयार हुई है। भले कारोबारी इसे अभी भी ऊंट के मुंह में जीरा ही क्यों न बता रहे हों।

जंग का मूड
लालू प्रसाद अब ज्यादा फिक्रमंद नहीं लग रहे। वे किसी भी मुकाबले और चुनौती से निपटने के मूड में हैं। पार्टी की चिंता भी कतई नहीं। उसे तो उनकी पत्नी राबड़ी देवी संभाल लेंगी। पति के बाद वैसे भी पत्नी अगर पति के दायित्व को संभाले तो इसमें कोई बुराई नहीं। राबड़ी अब पहले वाली राबड़ी हैं भी नहीं। वह राबड़ी जो एक जमाने में चपरासी के क्वार्टर में रहती थीं। यह क्वार्टर उनके जेठ को आबंटित था। अब तो वे बिहार की पूर्व मुख्यमंत्री हैं। विधान परिषद और विधानसभा दोनों का अनुभव है। लालू यादव जब चारा घोटाले में जेल गए थे, तब अचानक संभालना पड़ा था राबड़ी को मुख्यमंत्री का पद। हालांकि लालू के जेल से बाहर आने पर भी वे ही संभालती रहीं यह जिम्मा। लालू ने दोबारा मुख्यमंत्री बनने की कोई चाहत नहीं दिखाई। विरोधी दल की नेता भी रह चुकी हैं। विरोधियों पर अब वे जमकर पलटवार करती हैं। लालू तो उन्हें संसद भेजना चाहते थे पर उन्होंने इनकार कर दिया था। बेशक पार्टी को संभालने से कभी गुरेज नहीं किया। सयानी हो चुकी हैं। अपनी पार्टी को किसी दूसरे के हाथ में सौंपने का जोखिम जानती हैं। रंजन यादव को अभी तक नहीं भुला पाईं। पति-पत्नी ने उन पर खूब भरोसा किया था। पर वे तो पार्टी पर ही कब्जा करने की हसरत पाल बैठे। सो, उन्हें बाहर करना पड़ा। उनके कटु अनुभव से सीख भी खूब ली कि पार्टी को परिवार में ही रखना है।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *