सिर्फ सोशल मीडिया पर मनाया जाता है पर्यावरण दिवस

मैं एक आम आदमी हूं मुझे प्रदूषण के तकनीकी पहलुओं की जानकारी नहीं है, पीएम एसपीएम क्या है मैं नहीं जानता लेकिन मैंने देखा है कि पहले पिता जी कहते थे, सुबह उठ कर सैर करो सुबह की हवा ज्यादा फायदेमंद होती है और अब स्कूलों के शिक्षक कहते हैं सुबह सैर पर मत जाना सुबह हवा ज्यादा जहरीली होती है। यानी कुछ तो बदला है और यह आम आदमी भी समझ सकता है। ये बातें जल्द ही रिलीज होने वाली फिल्म ‘कड़वी हवा’ के निर्देशक नील माधव पांडा ने एक बातचीत में कहीं। वे सीएमएस पर्यावरण के एक कार्यक्रम में अपनी फिल्म को लेकर बात कर रहे थे।

पांडा ने कहा कि हम लोग वैज्ञानिक नहीं हैं, जो वायुमंडल की बारीकियां समझें। आम आदमी को पर्यावरण की तकनीकी भाषा या इसकी बारीकियों की जानकारी नहीं, लेकिन उसे समझ में आता है कि कुछ तो बदला है। इसे इस तरह से कहना होगा जिससे आम आदमी यह समझ सके कि उसकी कौन सी गतिविधि से आसपास क्या फर्क पड़ेगा। जरूरी यह भी है कि यह बात किस तरह कही जाए कि असर करे, वरना हम सब कुछ ही दिनों में भूल जाते हैं।  ‘कड़वी हवा’ की चर्चा करते हुए उन्होंने बताया कि उनके दिमाग में यह फिल्म बनाने की बात तब आई, जब उन्होंने ऐसी जगह के बारे में जाना जहां समुद्र के अंदर घर बने हैं और हैंडपंप लगे हैं। यह जगह है ओडीशा के पूर्वी तट पर बसे गांव सतभाया की। यहां सात गांवों का समूह था, जिसमें से किनारे के गांव समुद्र के बढ़Þे जलस्तर में समा गए। पांच साल में सात में से पांच गांवों को समुद्र ने अपनी चपेट में ले लिया। घर, हैंडपंप सब कुछ समुद्र में। इस पर रिचर्ड दा ने रिसर्च की और हमने 2006 में डॉक्यूमेंट्री बनाई, लेकिन कुछ सवाल बचे थे जिनको उठाया जाना बाकी था। ‘कड़वी हवा’ उसी का विस्तार है।

पांडा ने कहा कि दुख व हैरानी है कि इन दिनों सुबह डॉक्टर पार्क में टहलने से भी मना करते हैं। दिल्ली सहित अन्य शहरों में लोगों को धुंध के चलते सांस लेने में परेशानी हो रही है, इसके बावजूद आने वाले वक्त में वे इस मुद्दे को भूल जाएंगे। वे भूलें नहीं, इसलिए उनको कहीं गहरे स्तर पर चोट करने की दरकार है। ‘कड़वी हवा’ में यही दिखाने की कोशिश की गई है। पांडा ने कहा कि इतनी भयावह स्थिति है, फिर भी मुझे नहीं लगता कि हमारी पीढ़ी को सच में जलवायु परिवर्तन की चिंता है। जब विश्व पर्यावरण दिवस आता है तो लोग केवल उसके बारे में सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं, जिम्मेदारी उठाने की पहल कहीं नहीं दिखती। उन्होंने कहा कि हाल ही में प्रदूषण के कारण दिल्ली में स्कूल बंद हो गए थे। फिर भी यही होगा कि एक महीने बाद लोग इसके बारे में भूल जाएंगे।  पांडा की फिल्म के केंद्र में 70 साल का एक नेत्रहीन बुजुर्ग है। वह उत्तर भारत के पथरीले क्षेत्र बुंदेलखंड के चंबल में जल संकट से सबसे अधिक प्रभावित है। यह किरदार अभिनेता संजय मिश्रा ने निभाया है। पांडा ने कहा कि उन्होंने फिल्म में एक ऐसे व्यक्ति के जीवन की पड़ताल करने की कोशिश की है जिसका कार्बन फुटप्रिंट शून्य है यानी वह पर्यावरण में जहर नहीं घोलता, इसके बावजूद वह कुछ जरूरी बदलाव लाने वाला बनता है। यह फिल्म सब कुछ आईने की तरह सामने लाकर रख देती है। आगे की राह हमें तय करनी है।

 

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