2014 में जिन छह राज्यों से नरेंद्र मोदी ने जीतीं 224 सीटें, वहां 2019 के लिए बन रहा यह सीन

2019 का लोकसभा चुनाव होने में एक साल से थोड़ा ही ज्यादा समय बचा है। लिहाजा, सभी राजनीतिक दल इसकी तैयारियों में जुट गए हैं। भारतीय जनता पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने भी गुरुवार (15 फरवरी) को बाइक रैली कर हरियाणा के जींद से 2019 की लड़ाई का आगाज कर दिया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी शुक्रवार (16 फरवरी) को नई दिल्ली में स्कूली बच्चों से परीक्षा पर चर्चा कर नए वोटरों को साधने की कोशिश की है मगर यह बड़ा सवाल है कि क्या 2014 की प्रचंड जीत नरेंद्र मोदी 2019 में भी दोहरा पाएंगे। मौजूदा राजनीतिक हालात से तो यह नहीं झलकता है कि 2019 की राह भाजपा और टीम मोदी के लिए आसान होगी। 2014 में छह बड़े राज्यों की कुल 248 सीटों पर एनडीए को 224 सीटें मिली थीं लेकिन वहां भी सियासी डगर कठिन लगता है।

गुजरात: पीएम मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के गृह राज्य गुजरात में पिछले साल हुए विधान सभा चुनाव में बमुश्किल भाजपा की बादशाहत बरकरार रही। 2012 के मुकाबले भाजपा को 17 सीटों का नुकसान उठाना पड़ा और 182 सदस्यों वाली विधानसभा में मात्र 99 सीटें ही जीत पाई। हालांकि, 2014 के लोकसभा चुनाव में गुजरात की सभी 26 संसदीय सीटों पर भाजपा की जीत हुई थी। यानी साफ है कि 2014 की मोदी लहर 2017 तक आते-आते गुजरात में कमजोर पड़ चुकी है। अब मोदी-शाह की जोड़ी उस लहर को कैसे फिर से जगा पाएंगे, कहना मुश्किल लगता है। वैसे बजट 2018 को किसानों, गरीबों और गांवों पर फोकस कर भाजपा ने मतादाताओं के बड़े वर्ग को साधने की कोशिश की है। भाजपा की यह मुहिम रंग लाएगी या नहीं यह तो 2019 में ही पता चल सकेगा।

राजस्थान: में हाल ही में यहां हुए उप चुनाव ने जाहिर कर दिया कि वहां भी भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं है। दो संसदीय और एक विधान सभा सीट पर हुए उप चुनाव में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा है। हालात ऐसे हैं कि राज्य भाजपा में ही दो फाड़ है और केंद्रीय नेतृत्व से राज्य में नेतृत्व परिवर्तन की मांग की जा रही है। इस साल के अंत तक यहां विधानसभा चुनाव भी होने हैं। 2014 के लोकसभा में राजस्थान की सभी 25 सीटें भाजपा को मिली थीं लेकिन अब वसुंधरा सरकार के खिलाफ उपजे असंतोष और मोदी सरकार के खिलाफ बनी हवा 2019 में मोदी राज की वापसी में अड़ंगे डाल सकता है। इधर, कांग्रेस पहले से मजबूत स्थिति में आई है।

उत्तर प्रदेश: देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में करीब साल भर पहले तक भाजपा की लहर थी। विधानसभा में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला तो राजनीतिक वनवास खत्म करते हुए पार्टी ने योगी को सीएम बनाया। मगर देश में बनते-बिगड़ते सियासी समीकरण और दलित-मुस्लिम विरोधी होने का भाजपा पर लगता ठप्पा भाजपा के लिए साल 2019 की राह में रोड़ा अटका सकता है। 2014 में यहां की 80 लोकसभा सीटों में से 73 भाजपा और सहयोगियों की झोली में गई थी। अगले साल होने वाले संसदीय चुनावों में योगी सरकार का कामकाज, अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण और गैर भाजपाई-गैर कांग्रेसी राजनीतिक समीकरण अहम भूमिका निभा सकता है। वैसे अगले महीने होने वाले फुलपुर और गोरखपुर संसदीय उप चुनाव में 2019 की झलक दिखाई दे सकती है। इन दोनों सीटों पर भाजपा की जीत हुई थी।

बिहार: राजनीतिक रूप से उर्वर रहे बिहार में राजद अध्यक्ष लालू यादव के जेल में रहने से सियासी समीकरण नया रूप ले सकता है। 2014 के लोकसभा चुनाव का समीकरण टूट सकता है। एनडीए से राजनीतिक मौसम वैज्ञानिक कहे जाने वाले रामविलास पासवान, केंद्रीय मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी अलग हो सकते हैं। अगर ऐसा होता है तो भाजपा के लिए यह चुनौतीपूर्ण हो सकता है। हालांकि, नीतीश पहले ही राजद का साथ छोड़कर एनडीए में शामिल हो चुके हैं। इससे जदयू के कुछ बागी राजद की तरफ भी जा सकते हैं। जातीय गोलबंदी फिर से होने लगी है। बता दें कि 2014 के चुनावों में बिहार की 40 सीटों में से 31 पर भाजपा और सहयोगी दलों की जीत हुई थी।

मध्य प्रदेश:  मध्य प्रदेश में भी इस साल के आखिर तक विधान सभा चुनाव होने हैं। वहां भी शिवराज सिंह चौहान सरकार के खिलाफ एंटी इनकमबेंसी फैक्टर हावी है। लिहाजा माना जा रहा है कि वहां भी भाजपा के लिए राह 2014 के मुकाबले आसान नहीं होगी। बता दें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को 29 में से 27 सीटें मिली थीं। हालांकि, कांग्रेस नेताओं की तीन खेमे में बंटा होना भाजपा के लिए सुनहरा मौका हो सकता है।

महाराष्ट्र: यहां शिवसेना ने खुद को एनडीए से अलग कर लिया है। ऐसे में वहां भाजपा के लिए 2019 का रण जीतना आसान नहीं होगा। 2014 में एनडीए को 48 में से 42 सीटें मिली थीं। इनमें से 18 पर शिवसेना की जीत हुई थी। शिवसेना के अलग होने से 2019 का राजनीतिक परिदृश्य अलग हो सकता है। इसके अलावा शरद पवार अगर कांग्रेस से समझौता करते हैं तो मुकाबला और कड़ा हो सकता है। देवेंद्र फड़णवीस सरकार का कामकाज भी अहम रोल अदा करेगा। उनपर मराठा सेंटिमेंट के आरोप लगते रहे हैं।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *